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देश की संस्कृति और बाबासाहब

देश की संस्कृति और बाबासाहब

by प्रशांत बाजपेई
in अप्रैल -२०१५, सामाजिक
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बाबासाहब आंबेडकरने लाखों अनुयायियों के साथ बौद्ध पंथ अपनाया तब वीर सावरकर ने वक्तव्य दिया – ‘‘आंबेडकर का पंथान्तर, हिंदू धर्म में विश्वासपूर्वक ली गई छलांग है। बौद्ध आंबेडकर, हिंदू आंबेडकर ही हैं। आंबेडकर ने एक अवैदिक, पर हिंदुत्व की परिधि में बैठनेवाला भारतीय पंथ स्वीकार किया है इसलिए यह धर्मान्तरण नहीं है।’’ इस अवसर पर महास्थविर चंद्रमणि और दूसरे भिक्षुओं ने जो पत्रक प्रकाशित किए थे, उनमें कहा गया था कि हिंदू धर्म व बौद्ध धर्म एक ही वृक्ष की दो शाखाएं हैं।
जिनके अपने निहित स्वार्थ हैं, उन्हें बौद्ध पंथ और सनातन धारा में सिवाए विरोधाभासों के कुछ और दिखाई नहीं पड़ता। जानकारी और अध्ययन का अभाव भी एक कारण है। लेकिन जिसने भी निस्वार्थ बुद्धि से सत्यान्वेषण करने का प्रयास किया है, तो उसने पाया है, कि बाहरी स्वरूप में कुछ भिन्नताएं होने के बाद भी बौद्ध पंथ उसी भ्ाूमि पर खड़ा है, जिस पर अन्य भारतीय पंथ खड़े हैं। फिर चाहे वो वैष्णव, शैव, शाक्त, जैन, सिख या वाममार्गी कोई भी हों। उदाहरण के लिए आत्मा की अमरता, पुनर्जन्म और कर्मफल का सिद्धांत, मन बुद्धि चित्त अहंकार की व्याख्याएं, साधना की आवश्यक्ता, ‘ओम्’ की सार्वभौमिकता, साधना के सभी दूसरे मार्गों के प्रति आदरभाव आदि। इस जमीन से उखड़कर कोई भी भारतीय पंथ अपना अस्तित्व नहीं बनाए रख सकता। बुद्ध के मार्ग पर ध्यान महत्वपूर्ण हो गया है, तो उपनिषद ध्यान और समाधि के मार्ग पर निरंतर प्रकाश डाल रहे हैं। बुद्ध का प्रसिद्ध वाक्य है – अप्पो दीपो भव: अर्थात् अपना दीपक स्वयं बनो, तो पतंजली भी साधना के मार्ग पर चलकर आत्मा के प्रकाश को उपलब्ध होने को कहते हैं। बुद्ध के पूर्वजन्मों की कथाएं साधकों को रास्ता दिखलाती हैं, तो संपूर्ण प्राचीन संस्कृत वाङ्मय एवं जैन ग्रंथ ऐसे उदाहरणों से भरे पड़े हैं,जिनमें आत्मा की एक देह से दूसरी देह में चलने वाली निरंतर यात्रा का वर्णन है। सभी भारतीय पंथों में नैतिक शिक्षाएं एक सी हैं। ये बातें भारत के बाहर जन्मे सेमेटिक या सामी मजहबों से पूूरी तरह भिन्न हैं।
जब डॉ. आंबेडकर ने सामाजिक न्याय की स्थापना के लिए किसी अन्य पंथ में जाने की घोषणा की, जिसे प्रचलित शब्द का उपयोग करते हुए उन्होंने ‘धर्मांतरण’ कहा, तो ईसाई और मुस्लिम मिशनरी, दोनों ही अवसर को लपकने के लिए लालायित हो उठे। ईसाई मिशनरियों को लगा कि भारत में सदियों सिर पटककर वो जो न कर सके, उसे डॉ. आंबेडकर को ईसाई बनाकर सरलता से हासिल किया जा सकता है। तो दूसरी ओर मुस्लिम लीग जैसों को लगने लगा कि अपनी संख्या वृद्धि का ये अच्छा मौका है। आगा खां, हैदराबाद के निजाम और यूरोपीय मिशनरी तक सभी सक्रिय हो गए। इन बातों को उनके जीवनी लेखक धनंजय कीर, खैरमोड़े आदि ने विस्तार से लिखा है। सब ओर से उनको घेरकर अपनी ओर लाने और इस प्रकार लाखों हिंदुओं को हांक कर अपने रिलीजन में प्रविष्ट करवाने के लिए उत्कंठित प्रयास हो रहे थे। लेकिन बाबासाहब सजग थे। संत श्री गाडगे महाराज ने भी उनसे कहा था कि तुम्हें धर्मान्तरण करना है तो करो लेकिन मुसलमान या ईसाई मत बनना। बाबासाहब ने भी निश्चय व्यक्त किया था कि वे इस्लाम स्वीकार नहीं करेंगे। एक स्थान पर उन्होंने कहा है -‘‘अस्पृश्यों के धर्मांतरण के कारण सर्वसाधारण से देश पर क्या परिणाम होगा, यह ध्यान में रखना चाहिए। यदि ये लोग मुसलमान अथवा ईसाई धर्म में जाते हैं तो अस्पृश्य लोग अराष्ट्रीय हो जाएंगे। यदि वे मुसलमान होते हैं तो मुसलमानों की संख्या दुगुनी हो जाएगी व तब मुसलमानों का वर्चस्व बढ़ जाएगा। यदि ये लोग ईसाई होते हैं तो ईसाइयों की संख्या ५-६ करोड़ हो जाएगी और उससे इस देश पर ब्रिटिश सत्ता की पकड़ मजबूत होने में सहायता होगी।’’
ईसाई मिशनरियों द्वारा किए जा रहे आसमानी दावों की कलई खोलते हुए उन्होंने कहा ईसाइयत ग्रहण करने से उनके आंदोलन का उद्देश्य साध्य नहीं होगा। अस्पृश्य समाज को भेद-भाव की मनोवृत्ति नष्ट करनी है। ईसाई हो जाने से यह पद्धति एवं मनोवृत्ति नष्ट नहीं होती। हिंदू समाज की तरह ईसाई समाज भी जाति ग्रस्त है। लेखक धनंजय कीर लिखते हैं कि ‘‘उनके मन की भावना की प्रतिध्वनि प्रकट करने वाले उनके इन संस्मरणीय शब्दों को किसी को भ्ाूलना नहीं चाहिए कि यदि मन में द्वेष होता व बदला लेने की भावना होती, तो पांच वर्ष में ही मैंने इस देश का सत्यानाश कर दिया होता।’’ हिन्दू संस्कृति को न छोड़ने की उनकी सावधानी अथवा जो धर्म देश की प्राचीन संस्कृति को खतरा उत्पन्न करेगा अथवा अस्पृश्यों को अराष्ट्रीय बनाएगा, ऐसे धर्म को मैं कभी भी स्वीकार नहीं करूंगा, क्योंकि इस देश के इतिहास में मैं अपना उल्लेख विध्वंसक के रूप में करवाने का इच्छुक नहीं हूं।’’
बौद्ध पंथ को स्वीकार करने के पीछे भी उनकी इसी सोच के दर्शन होते हैं। इस संदर्भ में गांधीजी से उनकी चर्चा हुई थी। इस चर्चा के बारे में वे कहते हैं- ‘‘एक बार मैं अस्पृश्यों के बारे में गांधीजी से चर्चा कर रहा था। तब मैंने कहा था कि अस्पृश्यता के सवाल पर मेरे आप से भेद हैं, फिर भी जब अवसर आएगा, तब मैं उस मार्ग को स्वीकार करूंगा जिससे इस देश को कम से कम धक्का लगे। इसलिए बौद्ध धर्म स्वीकार कर इस देश का अधिकतम हित साध रहा हूं, क्योंकि बौद्ध धर्म भारतीय संस्कृति का ही एक भाग है, मैंने इस बात की सावधानी रखी है कि इस देश की संस्कृति व इतिहास की परंपरा को धक्का न लगे।’’ आचार्य चिटणीस ने स्पष्ट किया है कि बाबासाहब को भारतीयत्व का अभिमान था। यह उनके द्वारा चलाए गए ‘भारतभ्ाूषण पे्रस’, ‘बहिष्कृत भारत’, ‘प्रबुद्ध भारत’ आदि के नामों से ही साफ प्रकट होता है। इसलिए जब उन्होंने खोज की कि ऐसा कुछ भारतीय है क्या जिसे स्वीकार किया जा सके? तब उन्हें लगा कि भगवान बुद्ध का धर्म ही प्रेरक हो सकता है।
बाबासाहब के पांव वास्तविकता के धरातल पर मजबूती से जमे थे। तत्कालीन परिस्थितियों का विश्लेषण करते हुए अखिल इस्लामवाद और इस्लामी भाईचारे के बारे में वे कहते हैं – ‘‘इस्लामी भाईचारा विश्वव्यापी भाईचारा नहीं है। वह मुसलमानों का, मुसलमानों को लेकर ही है। उनमें एक बंधुत्व है, लेकिन उसका उपयोग उनकी एकता तक ही सीमित है। जो उसके बाहर हैं उनके लिए उनमें घृणा व शत्रुत्व के अलावा अन्य कुछ नहीं है। इस्लाम एक सच्चे मुसलमान को कभी भारत को अपनी मातृभ्ाूमि तथा हिंदू को अपने सगे के रूप में मान्यता नहीं दे सकता। मौलाना मुहम्मद अली एक महान भारतीय व सच्चे मुसलमान थे। इसीलिए संभवत: उन्होंने स्वयं को भारत की अपेक्षा जेरुसलम की भ्ाूमि में गाड़ा जाना पसंद किया।’’
एक अन्य स्थान पर वे कहते हैं- ‘‘सामाजिक क्रांति करने वाले तुर्कस्थान के कमाल पाशा के बारे में मुझे बहुत आदर व अपनापन लगता है, परंतु हिन्दी मुसलमानों मुहम्मद शौकत अली जैसे देशभक्त व राष्ट्रीय मुसलमानों को कमाल पाशा व अमानुल्ला पसंद नहीं हैं; क्योंकि वे समाज सुधारक हैं, और भारतीय मुसलमानों की धार्मिक दृष्टि को समाज सुधार महापाप लगते हैं।’’
पाकिस्तान निर्माण का प्रश्न उठने पर उन्होंने वहां फंसे हिन्दू समाज को सावधान करते हुए कहा- ‘‘मैं पाकिस्तान में फंसे दलित समाज से कहना चाहता हूं कि उन्हें जो मिले उस मार्ग व साधन से हिन्दुस्थान आ जाना चाहिए। दूसरी एक बात और कहना है कि पाकिस्तान व हैदराबाद की निजामी रियासत के मुसलमानों अथवा मुस्लिम लीग पर विश्वास रखने से दलित समाज का नाश होगा। दलित समाज में एक बुरी बात घर कर गई है कि वह यह मानने लगा है कि हिन्दू समाज अपना तिरस्कार करता है, इस कारण मुसलमान अपना मित्र है। पर यह आदत अत्यंत घातक है। जिन्हें जोर जबरदस्ती से पाकिस्तान अथवा हैदराबाद में इस्लाम धर्म की दीक्षा दी गई है, उन्हें मैं यह आश्वासन देता हूं कि धर्मान्तर करने के पूर्व उन्हें जो व्यवहार मिलता था। उसी प्रकार की बंधुत्च की भावना का व्यवहार अपने धर्म में वापस लौटने पर मिलेगा। हिन्दुओं ने उन्हें कितना भी कष्ट दिया तब भी अपना मन कलुषित नहीं करना चाहिए। हैदराबाद के दलित वर्ग ने निजाम, जो प्रत्यक्ष में हिन्दुस्थान का शत्रु है, का पक्ष लेकर अपने समाज के मुंह पर कालिख नहीं पोतनी चाहिए।’’

प्रशांत बाजपेई

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