हिंदी विवेक
  • Login
  • परिचय
  • संपादकीय
  • पूर्वांक
  • ग्रंथ
  • पुस्तक
  • संघ
  • देश-विदेश
  • पर्यावरण
  • संपर्क
  • पंजीकरण
No Result
View All Result
  • परिचय
  • संपादकीय
  • पूर्वांक
  • ग्रंथ
  • पुस्तक
  • संघ
  • देश-विदेश
  • पर्यावरण
  • संपर्क
  • पंजीकरण
No Result
View All Result
हिंदी विवेक
No Result
View All Result
इतिहास के अत्याचारों केनिशाने पर डॉ. आंबेडकर

इतिहास के अत्याचारों केनिशाने पर डॉ. आंबेडकर

by ज्ञानेद्र बरतरिया
in अप्रैल -२०१५, सामाजिक
0
ह म भारत के लोग इतिहास में, इतिहास के अन्वेषण में रुचिअपेक्षाकृत कम ही लेते हैं। शायद भविष्य के प्रति देख सकने की क्षमता पर भी इसका असर पड़ता हो। हमारी इस कमजोरी का लाभ निहित स्वार्थी तत्वों ने दो ढंग से उठाया है। एक तो वे इतिहास को अपनी मनमर्जी की कथा में बदल कर हमारे गले उतारने की
चेष्टा करते हैं; और दूसरे, इतिहास की अधूरी समझ हमारी भविष्य के प्रति समझ को भी अधूरा बना देती है।
इतिहास की ऐसी अधूरी समझ ने बहुत बड़ा अत्याचार भारतरत्न डॉ. भीमराव आंबेडकर के साथ किया है। लोग आम तौर पर बाबासाहब को संविधान की मसौदा समिति के अध्यक्ष और दलित वर्गों के एक बड़े गैर कांग्रेसी नेता के रूप में जानते हैं। संविधान की मसौदा समिति के अध्यक्ष से लेकर संविधान निर्माण में मुख्य भूमिका निभाने वाले और फिर मुख्य संविधान निर्माता तक की समझ विकसित करने में निस्संदेह आम लोगों को समय लगा है। डॉ. आंबेडकर की दृष्टि को संविधान निर्माण के साथ इस तरह बांध दिया गया कि जब संविधान के कामकाज की समीक्षा करने का प्रयास हुआ, तो दलित नेताओं ने इसे सीधे तौर पर डॉ. आंबेडकर पर हमला करार दे दिया। मीडिया ने, बुद्धिजीवियों ने भी बाबासाहब को मोटे तौर पर दलित नेता और संविधान विशेषज्ञ के रूप में ही पेश किया। मीडिया के पृष्ठों पर, विशेषकर शोधपरक लेखों में डॉ. आंबेडकर का उल्लेख प्रायः संविधान सभा की बहस में उनके उद्धहरणों तक सीमित रहता है।
दलित जातियों का शिक्षित वर्ग, विशेषकर वह वर्ग, जिसे आरक्षण आदि सुविधाओं से लाभ हुआ है, बाबासाहब को उस मसीहा के तौर पर देखता-दिखाता है, जिसने उन्हें संविधान में आरक्षण की सुविधा दिलाई। दलित जातियों की राजनीति करने वाले दलों और नेताओं ने बाबासाहब को एक ऐसे प्रतीक के तौर पर प्रयोग करना पसंद किया है, जो अन्य (सवर्ण) जातियों के विरुद्ध लड़ाकू तेवर अपनाने में सहायक हों। इस वर्ग का पसंदीदा कार्य डॉ. आंबेडकर के चित्रों और उनकी मूर्तियों पर माल्यार्पण करना और सदनों में प्रत्येक विषय में आरक्षण विषय पर परोक्ष-अपरोक्ष जोर देना होता है। स्वयं डॉ. आंबेडकर अपने चित्र लगाए जाने के कितने सख्त विरोधी थे, या स्वयं डॉ. आंबेडकर आरक्षण के लिए कितने अनमने थे- इसे समाज में खुल कर रखा जाए, तो इस अधूरी ऐतिहासिक समझ का पर्दाफाश हो जाएगा।
पुणे पैक्ट के बारे में कई लोग जरूर जानते हैं। क्या इस इतिहास को इस दृष्टि से नहीं देखा जाना चाहिए कि यह पुणे पैक्ट ही था, जिसने गांधीजी को अछूतोद्धार कार्य के लिए देश भर में शहर-शहर घूमकर अभियान चलाने के लिए प्रेरित किया या इसकी नैतिक बाध्यता उत्पन्न कर दी थी? हमारे इतिहासकारों ने तो यह बात भी बहुत फुसफुसाते अंदाज में रखी है कि पुणे पैक्ट के बाद गांधीजी ने सक्रिय राजनीति त्याग दी थी। क्यों त्याग दी थी? और क्या इस निष्पत्ति को एक महान राष्ट्रनिर्माणकारी घटना के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए?
भविष्य के प्रति हमारी दृष्टि इतिहास के प्रति हमारी समझ से निर्धारित होती है। क्या यह मात्र संयोग है कि आरक्षण या संविधान किस्म के शब्द प्रचलन में आने के भी काफी पहले डॉ. आंबेडकर भारत के, (और वास्तव में विश्व भर के) प्राचीन इतिहास के विशारद हो चुके थे। देश और विश्व का इतिहास समझने के बाद उन्होंने, और संभवतः नियति ने, तय किया कि भारत में उन्हें आगे क्या कदम उठाना है। और हमने क्या किया? हम इतिहास के विद्वान के रूप में डॉ. आंबेडकर को शायद कम ही पहचानते हैं। इसी तरह अर्थशास्त्र के विद्वान डॉ. आंबेडकर जातिगत विमर्श के शोर में लगभग मौन हो चुके हैं। विदेश जाकर अर्थशास्त्र में डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त करने वाले डॉ. आंबेडकर पहले भारतीय थे। यह डॉ. आंबेडकर ही थे, जिन्होंने कृषि क्षेत्र में निवेश की वकालत की थी। यह डॉ. आंबेडकर ही थे, जिन्होंने शिक्षा, सार्वजनिक साफ-सफाई, स्वास्थ्य, सामुदायिक स्वास्थ्य और आवास को मूलभूत सुविधाओं में शामिल किया था। रुपए की कीमतों के पतन के कारणों के उनके अध्ययन पर उन्हें डीएससी की उपाधि दी गई थी। एक दौर में ब्रिटिश राज के साथ मधुर संबंधों के बावजूद भारत के आर्थिक विकास पर ब्रिटिश राज के दुष्प्रभावों को उन्होंने खुलकर सामने रखा था। वित्त आयोग की स्थापना, भूमि सुधार, जनसंख्या नियंत्रण की आवश्यकता को संभवतः पहली बार उन्होंने ही रखा था। इस दौर को गौर से देखने पर लगता है कि संभवतः डॉ. आंबेडकर को अहसास था कि समय के उस मोड़ पर आज़ादी की मांग करने भर से ज्यादा अहम है कि देश का जो भी भला किया जा सकता हो, वह कर लिया जाए।
विभिन्न सामाजिक आंदोलनों के विद्वान डॉ. आंबेडकर, हिन्दू महिलाओं के हितैषी डॉ. आंबेडकर; श्रमिकों को, श्रम आंदोलनों को संविधान में सशक्ति दिलाने वाले डॉ. आंबेडकर; आज़ादी के कई दशक बाद भारत कितना मजबूत रहेगा- इसकी चिंता करने वाले डॉ. आंबेडकर; कम्युनिज्म, इस्लाम और ईसाइयत के खतरों से भारत की रक्षा करने वाले डॉ. आंबेडकर- अधूरे दृष्टिकोणों के इस शोर में सामने कम ही आ पाते हैं। वास्तव में डॉ. आंबेडकर को सिर्फ जाति या संविधान के दायरे में न रख कर सबसे पहले उस दौर में रखा जाना चाहिए, जिसे उन्होंने प्रत्यक्ष देखा और अनुभव किया था, वह दौर जिसका लगभग अनिश्चित सा भविष्य सभी के सामने था, और जिस भविष्य की भी उन्होंने चिंता की थी। हिन्दू धर्म के प्रति उनके कठोर वचन आज भी कई हिन्दुओं को परेशान करते होंगे, लेकिन उन्हें यह अवश्य विचार करना चाहिए कि यह शब्द उन डॉ. आंबेडकर के हैं, जिन्होंने यह भी कहा था कि जब आसमान में चील-गिद्ध उड़ते थे, तो महार समझ जाते थे कि भोजन कहां पड़ा है, डॉ. आंबेडकर तो स्वयं महार जाति से संबंधित थे, मुंशी प्रेमचंद की लिखी कहानी- ठाकुर का कुआं भी वही वेदना व्यक्त करती है। डंडे फटकार कर चलने की बाध्यता; पीने के पानी, रोजगार, शिक्षा से लेकर देव मंदिरों तक पहुंच पर पूर्ण विराम; सिर पर मैला ढोने की विवशता, जो प्रथा में बदल चुकी थी; अस्पृश्यता का दंश, भविष्य तो दूर, वर्तमान के लिए भी पूर्ण आशाहीनता- आखिर डॉ. आंबेडकर ने उस पीड़ा को ही तो व्यक्त किया। !‘‘कारण चाहे जो भी रहे हों, लेकिन जिस इतिहास को नकारा नहीं जा सकता, उस इतिहास को महसूस करने की कल्पना भी करें, तो डॉ. आंबेडकर सिर्फ दलितों के नहीं, पूरी मानवता के रक्षक नजर आएंगे। उनके सामने तुर्क और मुगल नहीं थे। उनके सामने हिन्दू समाज था। उन्हें इस हिन्दू समाज से लड़कर ही अपने लक्ष्य पूरे करने थे, सो उन्होंने किए।
अटलबिहारी वाजपेयी ने प्रधान मंत्री रहते हुए कहा था कि संविधान मनुस्मृति नहीं है, यह भीमस्मृति है। इससे अधिक महत्वपूर्ण संभवतः कुछ नहीं था। क्यों? इतिहास में भारत पर असंख्य बार हमले हुए। बार-बार कशमकश चली। विदेशी आक्रांताओं के समक्ष भारत की कमजोरी, बहुतांश उसकी सामाजिक कमजोरियों से उत्पन्न होती थी (देखें पानीपत की तीसरी लड़ाई का इतिहास)। यही सामाजिक कमजोरियां सामाजिक रूढ़ि बन चुकी थीं, जिन्हें जड़ से उखाड़े बिना न समाज मजबूत हो सकता था, न देश। उन जड़ों की गहराई मापना भी असंभव ही था। कोई महामानव ही पूरे वृक्ष को बचाते हुए उसकी सड़ी-गली जड़ें उखाड़ने का काम कर सकता था। उस मोड़ पर भारत डॉ. आंबेडकर के लिए दलितों से जुड़े प्रश्न दुहरा अर्थ रखते थे। एक ओर उन्हें इस समुदाय की, उसके वर्तमान और भविष्य की एक घोर अमानवीयता से रक्षा करनी थी, और दूसरी ओर उन्हें सारे समाज को समूल नाश से बचाना था। उद्धरण देने की आवश्यकता नहीं है- (तात्पर्य के रूप में) डॉ. आंबेडकर ने कहा था कि अगर आपकी सामाजिक कमजोरियां इसी प्रकार बनी रहती हैं, तो आप एक कमजोर समाज, एक कमजोर राष्ट्र रह जाएंगे, और ऐसे में आजादी की रक्षा करना एक बड़ा सवाल होगा। कल्पना करना कठिन है कि अगर हम मनुस्मृति के स्थान पर भीमस्मृति से संचालित न हुए होते, तो क्या आज हम अपनी भौगोलिक एकता को, अपनी संप्रभुता को संरक्षित रख पाने में सफल हो पाते? और यह कोई सौदबाजी नहीं थी। यह राष्ट्र निर्माण था। अगर बाबासाहब सौदबाजी पर उतारू रहे होते, तो दलितों को बौद्ध बनने को न कहते, उन्हें नास्तिकता, इस्लाम, ईसाइयत या कम्युनिज्म की तरफ धकेल देते।
लेकिन डॉ. आंबेडकर की स्मृति सिर्फ इस भीमस्मृति की रचना में नहीं है। इसका मर्म भविष्य के प्रति डॉ. आंबेडकर की गहरी और स्पष्ट सोच में है। संविधान सभा की मसौदा समिति में प्रो. के.टी शाह ने एक-एक कर दो संशोधन पेश किए। एक में वह देश को सेक्युलर घोषित कराना चाहते थे, और दूसरे में सेक्युलर के साथ-साथ सोशलिस्ट। दोनों संशोधन डॉ. आंबेडकर ने सीधे ठुकरा दिए। डॉ. आंबेडकर ने कहा- देश का सामाजिक और आर्थिक ढांचा संविधान में निहित नहीं हो सकता और यह कार्य निर्वाचित प्रतिनिधियों पर छोड़ दिया जाना चाहिए। हो सकता है भविष्य में सोशलिस्ट ढांचे से भी बेहतर विकल्प सामने आए। दूरदृष्टि इसे कहते हैं। अपने संविधान में सेक्युलर और सोशलिस्ट शब्द लिखने वाले, (४२ वें संशोधन के जरिए) भारत के अलावा कुल दो देश हुए हैं। एक युगोस्लाविया और दूसरा सोवियत संघ। दोनों का हश्र सबके सामने हैं। क्या हमें अपने इतिहास में अपने मनीषियों की दूरदृष्टि का उल्लेख नहीं करना चाहिए, जो चमत्कार नहीं, बल्कि परिश्रम का परिणाम थी? क्या आप आज की प्रतियोगितात्मक राजनीति में डॉ. आंबेडकर जैसी दूरदृष्टि और राजनैतिक साहस की कल्पना कर सकते हैं?
यही स्थिति संविधान के अनुच्छेद ३७० पर है। जब कश्मीर पर कबाइलियों और पाकिस्तानी सेना ने हमला किया, और नेहरू सरकार हक्का-बक्का रह गई, तब (विलय पत्र हस्ताक्षर होने के बाद) विधि मंत्री डॉ. आंबेडकर ने नेहरू को सुझाव दिया था कि महार रेजीमेंट को कश्मीर भेजा जाए और कबाइलियों का मुकाबला छापामार पद्धति से किया जाए। डॉ. आंबेडकर ने भारत के विभाजन की अपरिहार्यता की भविष्यवाणी भले ही पहले ही कर दी हो, लेकिन आज़ादी के बाद उनके लिए प्राथमिकता फिर भिन्न थी। बलराज मधोक ने (अनु. ३७० के संदर्भ में) लिखा है कि डॉ. आंबेडकर ने शेख अब्दुल्ला से स्पष्ट शब्दों में कहा था- आप चाहते हैं कि भारत आपकी सीमाओं की रक्षा करे, आपके क्षेत्र में सड़कें बनाए, आपको खाद्यान्न की आपूर्ति करे, और कश्मीर का दर्जा भारत से बराबरी का हो। और भारत सरकार के अधिकार सीमित ही हों, और भारत के नागरिकों को कश्मीर में कोई अधिकार न हों। इस प्रस्ताव पर सहमति जताना भारत के हितों के साथ धोखाधड़ी करना होगा, और भारत का विधि मंत्री होने के मैं ऐसा कभी भी नहीं करूंगा। डॉ. आंबेडकर ने न केवल अनु. ३७० का मसौदा लिखने से इनकार कर दिया (जिसे बाद में गोपालस्वामी आयंगर ने लिखा) बल्कि जब इस अनुच्छेद पर बहस हुई, तो सरकार की ओर से बहस का उत्तर देने के लिए भी डॉ. आंबेडकर नहीं आए, हालांकि अन्य अनुच्छेदों पर उन्होंने उत्तर दिया। गांधी जी ने देश का विभाजन टालने के लिए जिन्ना को अविभाजित भारत का प्रधान मंत्री बनाने का सुझाव दिया था। अगर ऐसा कोई प्रस्ताव विभाजित भारत के लिए भी डॉ. आंबेडकर के लिए दिया गया होता, तो संभवतः कश्मीर समस्या नाम का नासूर आज न होता।
बहुत बार कहा जाता है, और बहुत आसानी से सिद्ध भी किया जा सकता है कि डॉ. आंबेडकर के विचार प्रवाह ने और कर्म प्रवाह ने कम से कम दो बार दिशा बदली। क्यों? इसका उत्तर इस बात में है कि जब पहली दिशा से, जो बहुत स्पष्ट ढंग से हिन्दुओं के लिए, विशेषकर सवर्णों के लिए बहुत असह्य थी, डॉ. आंबेडकर को अपने लक्ष्य पूरे होते प्रतीत हुए, तो उन्होंने उसे त्यागे बिना, दूसरी दिशा में कार्य तेज कर दिया। वह लक्ष्य क्या थे, इन्हें समझा जाना जरूरी है। हिन्दुओं और विशेषकर सवर्णों के लिए अत्यंत उग्र भाषा और उग्र विचार रखने वाले, ब्राह्मणों से, महात्मा गांधी से भेद-मतभेद की लंबी लड़ाई लड़ने वाले डॉ. आंबेडकर ने यह भी कहा था कि जाति प्रथा के  लिए ब्राह्मणों को दोषी नहीं ठहराया जा सकता है। डॉ. आंबेडकर ने ब्रिटिश राज के इतिहास विषयक मैकालेवाद या मैक्कार्टिज्म को सिरे से खारिज कर दिया। डीएनए आधारित रिसर्च तो अब हाल के वर्षों में सामने आई है, डॉ. आंबेडकर बहुत पहले ही स्पष्ट घोषणा कर चुके थे कि जिन्हें शूद्र कहा जाता है, वे और सवर्ण एक ही नस्ल के हैं, और यह कि आर्यों के भारत पर हमले, अनार्यों पर उनकी विजय और अनार्यों को शूद्र कहने की अंग्रेज थ्योरी- दोहरी संक्रामक बीमारी से पीड़ित है। वास्तव में डॉ. आंबेडकर ऐसे एकमात्र नेता थे, जो आर्यों के भारत पर हमले की थ्योरी को नकारने का साहस रखते थे। आज के नेता तो डीएनए द्वारा पुष्टि हो चुकने के बावजूद यह कहने का साहस नहीं रखते कि हम सभी भारतीय एक ही नस्ल के हैं। इतिहास के इस विद्वान के इन विचारों को हमने इतिहास में भी कभी शामिल नहीं किया।

ज्ञानेद्र बरतरिया

Next Post
महात्मा गांधी और डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर

महात्मा गांधी और डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

हिंदी विवेक पंजीयन : यहां आप हिंदी विवेक पत्रिका का पंजीयन शुल्क ऑनलाइन अदा कर सकते हैं..

Facebook Youtube Instagram

समाचार

  • मुख्य खबरे
  • मुख्य खबरे
  • राष्ट्रीय
  • राष्ट्रीय
  • क्राइम
  • क्राइम

लोकसभा चुनाव

  • मुख्य खबरे
  • मुख्य खबरे
  • राष्ट्रीय
  • राष्ट्रीय
  • क्राइम
  • क्राइम

लाइफ स्टाइल

  • मुख्य खबरे
  • मुख्य खबरे
  • राष्ट्रीय
  • राष्ट्रीय
  • क्राइम
  • क्राइम

ज्योतिष

  • मुख्य खबरे
  • मुख्य खबरे
  • राष्ट्रीय
  • राष्ट्रीय
  • क्राइम
  • क्राइम

Copyright 2024, hindivivek.com

Facebook X-twitter Instagram Youtube Whatsapp
  • परिचय
  • संपादकीय
  • पूर्वाक
  • देश-विदेश
  • पर्यावरण
  • संपर्क
  • पंजीकरण
  • Privacy Policy
  • Terms and Conditions
  • Disclaimer
  • Shipping Policy
  • Refund and Cancellation Policy

copyright @ hindivivek.org by Hindustan Prakashan Sanstha

Welcome Back!

Login to your account below

Forgotten Password?

Retrieve your password

Please enter your username or email address to reset your password.

Log In

Add New Playlist

No Result
View All Result
  • परिचय
  • संपादकीय
  • पूर्वांक
  • ग्रंथ
  • पुस्तक
  • संघ
  • देश-विदेश
  • पर्यावरण
  • संपर्क
  • पंजीकरण

© 2024, Vivek Samuh - All Rights Reserved

0