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अनिवार्य मतदान पर नहीं बनी एक राय

अनिवार्य मतदान पर नहीं बनी एक राय

by प्रमोद भार्गव
in सामाजिक
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भारत में चुनाव सुधारों को लेकर बहुत ज्यादा संजीदगीं नहीं है। इसीलिए चुनाव सुधारों से संबंधित जब भी संसद में बात उठती है तो उसे मुश्किल मुद्दा मानकर टाल दिया जाता है। लोकसभा के चालू सत्र में ‘अनिवार्य मतदान‘ हेतु दो निजी विधेयक चर्चा के लिए लाए गए थे, इस पर अन्य दलों के सांसदों की बात तो छोड़िए भाजपा के सांसद ही एकमत दिखाई नहीं दिए। भाजपा के राजीव प्रताप रूड़ी और राजेंद्र गंगवाल ने अनिवार्य मतदान का विरोध किया, जबकि भाजपा के ही निहालचंद एवं जगदंबिका पाल इसके सर्मथन में थे। बीजू जनता दल के महताब ने भी जरूरी मतदान का विरोध किया। दरअसल चुनाव सुधारों पर मार्च-2015 में प्रस्तुत रिपोर्ट में विधि आयोग ने अनिवार्य मतदान के विचार का यह कहते हुए विरोध किया था कि इसे लागु करना अव्यावहारिक व असंभव है। रिपोर्ट के तथ्यों में एक हद तक सच्चाई है।

समाजसेवी संगठनों द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में दायर की गई जनहित याचिकाओं के माध्यम से चुनाव सुधार की कई मांगे की गईं, लेकिन कोई भी मांग पूरी नहीं हुई। इन मांगों में मतदाताओं को प्रत्याशी को खारिज करने के हक के साथ जनता की उम्मीदों पर खरा नहीं उतरने पर बीच में वापस बुलाने का अधिकार की मांग भी की गई थी। चूंकि राजनेताओं को ये मांगें रास नहीं आईं, इसलिए इन मांगों के बजाए राजनीतिक दलों ने दलीलें दीं कि पहले मतदान को अनिवार्य किया जाए। क्योंकि हमारे देश में मतदान का औसत प्रतिशत बेहद कम है। जहां ज्यादातर पचास फीसदी मतदाता अपने प्रतिनिधि का चुनाव करते हों, वहां किसी क्षेत्र के उम्मीदवारों को नकारने अथवा वापस बुलाने का अधिकार कैसे दिया जा सकता है ? ये अधिकार बड़े स्तर पर धनराशि की फिजूलखर्ची का भी कारण बन सकते है। लिहाजा पहले मतदान की अनिवार्यता के प्रति मतदाताओं को जागरूक किया जाए, ताकि विकल्प की सार्थकता साबित हो सके। हालांकि 2019 के लोकसभा चुनाव में मतदान का प्रतिशत बढ़कर 66.11 प्रतिशत हो गया, जो 2014 के आम चुनाव में हुए मतदान से 1.16 फीसदी ज्यादा रहा है।

किसी भी देश के लोकतंत्र की सार्थकता तभी है जब शत-प्रतिशत मतदान से जनप्रतिनिधि चुने जाएं। मौजूदा दौर में हमारे यहां मत-प्रतिशत 35-40 से 65-70 तक रहता है। आतंकवाद की छाया से ग्रसित रहे पंजाब और जम्मू-कश्मीर में यह प्रतिशत 20 तक भी रहा है। लेकिन लोकतांत्रिक प्रक्रिया की बहाली के साथ इन प्रदेशों में भी मतदान में उम्मीद से ज्यादा इजाफा भी देखने में आ रहा है। लोकसभा के चालू सत्र में बहस के दौरान इस संदर्भ में विरोधाभासी पहलू देखने में आए। रूड़ी ने कहा कि मतदान को अनिवार्य किए जाने से विकास होने की दलील तर्कसंगत नहीं है। शत-प्रतिशत मतदान खतरनाक भी हो सकता है, लेकिन यह किस तरह से खतरनाक होगा, इसकी उन्होंने कोई तार्किक तथ्य नहीं दिए। हालांकि यह सही है कि देश अभी संपूर्ण मतदान के लिए तैयार नहीं है, क्योंकि इसे लागू करना बेहद कठिन है। निहालचंद ने अनिवार्य मतदान का यह कहते हुए समर्थन किया कि इससे चुनाव खर्च में कमी आएगी। यह तथ्य इसलिए उचित लगता है, क्योंकि वोट की खरीद पर अनिवार्य मतदान से अंकुश लग सकता है।

फिलहाल दुनिया के 32 प्रजातांत्रिक देशों में अनिवार्य मतदान की पद्धति प्रचलन में है। इनमें से 19 ही ऐसे देश हैं जहां सभी चुनावों में यह पद्धति अपनाई जाती है। ऑस्ट्रेलिया,अर्जेटीना,ब्राजील,सिंगापुर,तुर्की और बेल्जियम इन देशों में प्रमुख हैं। बेल्जियम व कुछ अन्य देशों में मतदान न करने पर ‘सजा’ का भी प्रावधान है। अलबत्ता इतना जरूर है कि कुछ देशों में 70 साल से ज्यादा उम्र के बुजुर्गों को अनिवार्य रूप से मतदान न करने की छूट मिली हुई है।

लोकतंत्र की मजबूती के लिए आदर्श स्थिति यही है कि हरेक मतदाता अपने मताधिकार का प्रयोग करे। इस नाते 2005 में भाजपा के एक सांसद लोकसभा में ‘अनिवार्य मतदान’ संबंधी विधेयक लाए भी थे। लेकिन बहुमत नहीं मिलने के कारण विधेयक पारित नहीं हो सका। कांग्रेस व अन्य दलों ने इस विधेयक का उस समय विरोध का कारण बताया था कि दबाव डालकर मतदान कराना संविधान की अवहेलना है। क्योंकि भारतीय संविधान में अब तक मतदान करना मतदाता का स्वैच्छिक अधिकार तो है, लेकिन वह इस कर्तव्य-पालन के लिए बाध्यकारी नहीं है। लिहाजा वह इस राष्ट्रीय दायित्व को गंभीरता से न लेते हुए, उदासीनता बरतता है। हमारे यहां आर्थिक रूप से संपन्न सुविधा भोगी जो तबका है, वह अनिवार्य मतदान को संविधान में दी निजी स्वतंत्रता में बाधा मानते हुए इसका मखौल उड़ाता है।

भारत में यदि भविष्य में अनिवार्य मतदान की स्थिति बनती है तो दण्ड का प्रावधान केवल उन मतदाताओं के लिए सुनिश्चित होना चाहिए जो जान-बूझकर मतदान में हिस्सा नहीं लेते। लोकतंत्र के इस महाकुंभ में ऐसे लोग भी भागीदारी नहीं करते जो लोकतांत्रिक प्रक्रिया से स्वयं को ऊपर मानते हुए, इस ऐंठ और अहंम में रहते हैं कि कोई भी प्रतिनिधि निर्वाचित हो जाए अथवा किसी भी दल की सरकार बन जाए, हमें क्या फर्क पड़ने वाला है। इन अहंकारियों की नकेल जरूर दण्ड के प्रावधानों से कसी जानी चाहिए। अनिवार्य मतदान के सिलसिले में सवाल यह भी खड़ा होता है कि हमारे देश में लाखों लोग केवल मतदाता सूचियों की खामियों के चलते मतदान नहीं कर पाते। मतदान के लिए अनिवार्य पहचान-पत्र के अभाव में भी लाखों लोग मतदाता सूची में नाम होने के बावजूद मतदान से वंचित रह जाते हैं। ऐसे मतदाताओं को संबंधित मतदान केन्द्र प्रभारी मतदाताओं को केन्द्र पर मतदान की इच्छा से उपस्थित होने का प्रमाणीकरण दे,  जिससे मतदाता दोष मुक्त रहे। 75 साल से ज्यादा उम्र के मतदाता को स्वेच्छा से मतदान की छूट मिले।  बीमारी से लाचार मतदाता को चिकित्सक, ग्रामसेवक और सरपंच द्वारा जारी प्रमाणीकरण के मार्फत मतदान की छूट मिले। सजा के प्रावधान ऐसे हों, जिसकी भरपाई गरीब से गरीब मतदाता सरलता से कर पाये।

मतदान की अनिवार्यता अल्पसंख्यक व जातीय समूहों को ‘वोट बैंक’ की लाचारगी से भी छुटकारा दिलाएगी। राजनीतिक दलों को भी तुष्टिकरण की राजनीति से निजात मिलेगी। क्योंकि जब मतदान करना जरूरी हो जाएगा तो किसी धर्म, जाति या क्षेत्र विशेष से जुड़े मतदाताओं की अहंमियत खत्म हो जाएगी। नतीजतन उनका संख्याबल जीत अथवा हार को प्रभावित नहीं कर पायेगा। लिहाजा सांप्रदायिक व जातीय आधार पर ध्रुवीकरण की जरूरत नगण्य हो जाएगी। ऐसे हालात यदि निर्मित होते हैं तो भारतीय राजनीति संविधान के उस सिद्धांत का पालन करने को विवश होगी, जो सामाजिक न्याय और समान अवसर की वकालत करता है।

2005 में जो विधेयक संसद में विचार के लिए लाया गया था, उसका महत्वपूर्ण पहलू यह भी था, कि यह विधेयक मतदाता को सभी प्रत्याशियों को नकारने का अधिकार भी देता है। लेकिन इसमें दोष यह है कि यह निर्वाचन की उस व्यवस्था को चुनौती नहीं देता, जिसका आधार ‘बहुमत’ है। मसलन 60 प्रतिशत मतदाता उम्मीदवारों को खारिज करने के पक्ष में मतदान करते हैं, तब शेष रहे 40 प्रतिशत मतदान से उस प्रत्याशी को चुन लिया जाएगा, जिसको ज्यादा वोट मिले हों। हालांकि चुनाव सुधार के मुश्किल प्रावधान लाने से पहले ऐसे सुधार लाने चाहिए, जिन्हें लागू करने में कोई कठिनाई नहीं होगी। वर्तमान चुनाव प्रक्रिया में एक प्रत्याशी एक से अधिक लोकसभा व विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ सकता है, किंतु प्रतिनिधित्व केवल एक निर्वाचन क्षेत्र से ही कर सकता है। इसलिए यदि कोई प्रत्याशी चुनाव जीत भी जाता है तो उसे अन्य विजयी सीट से तत्काल त्याग-पत्र देना बाध्यकारी होता है। इस खाली हुई सीट पर छह माह के भीतर चुनाव कराने की अनिवार्यता रहती है। मसलन चुनाव खर्च के साथ सरकारी मशीनरी भी दुबारा चुनाव के लिए विवश हो जाती है। इस दौरान आदर्श आचार संहिता लागू हो जाने के कारण विकास कार्य भी ठप पड़ जाते है। इसी तरह ठीक चुनाव के पहले दल-बदल करने वाले नेताओं पर पांच साल के लिए चुनाव नहीं लड़ने का प्रतिबंध लगना चाहिए। इन प्रावधानों पर कोई अतिरिक्त खर्च तो होना ही नहीं है, इन्हें लागू करने में भी कोई कठिनाई आने वाली नहीं है। ऐसे प्रावधानों से राजनीतिक चरित्र की उज्जवलता भी बनी रहेगी।

लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं पत्रकार हैं

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