ग्रामीण सहकारिता और एनपीए की समस्या

सहकारिता के क्षेत्र में सामाजिक भावना घटती जाना सहकारी बैंकों के समक्ष एनपीए की समस्या का मुख्य कारण है। यह भावना जागृत करने से ग्रामीण सहकारिता जीवित रहेगी एवं एनपीए की समस्या नहीं रहेगी। सहकार भारती के कार्यकर्ताओं के माध्यम से संस्कार का यह काम हो सकता है।

रिजर्व बैंक ने नरसिंहन समिति की सिफारिश के अनुसार 1 अप्रैल 1992 से सभी बैंकों पर एनपीए के प्रावधान लागू कर दिए। इन प्रावधानों के पूर्व कर्ज पर वसूल हुआ ब्याज व वसूल न हुआ ब्याज दोनों आय में जोड़े जाते थे। इससे बैंकों और सोसायटियों की प्रत्यक्ष में क्या स्थिति है इसका पता नहीं चलता था। एनपीए प्रावधान लागू होने के बाद प्रथम वर्ष चार तिमाहियों छोड़ कर कर्ज पर ब्याज व किस्त वसूल होना अनिवार्य कर दिया गया। 1996 में तीन तिमाहियों, 1997 में दो तिमाहियों व 1 अप्रैल 2004 से 90 दिन से अधिक के कर्ज के ब्याज व किस्त वसूल करना अनिवार्य हो गया। इस तरह चरणबद्ध तरीके से ये नियम लागू किए गए। जिन कर्जों से आय नहीं होती, उन्हें अनुत्पादक कर्ज कहा जाता है और तब से अनुत्पादक संज्ञा प्रचलन में आ गई। देश के बैंकिंग क्षेत्र में एनपीए की मात्रा बढ़ जाने से बैंकों की मुनाफा-क्षमता घट गई और वे संकट में पड़ गए। रिजर्व बैंक ने सरकारी बैंकों पर त्वरित सुधार कार्रवाई (झीेािीं उेीीशलींर्ळींश अलींळेप) जैसे प्रतिबंध लगाए। इससे ऐसे बैंकों के नए कर्ज वितरण पर पाबंदियां लग गईं। सरकार ने ऐसे बैंकों के लिए पैकेज घोषित कर उन्हें संभालने का प्रयास किया। लेकिन, देश के शहरों में जब ऐसी स्थिति है तब सहकारी बैंकों व सोसायटियों का भविष्य क्या होगा? यह प्रश्न उपस्थित हुआ। एनपीए के प्रावधानों का ठीक से पालन करने में अक्षम बैंकों व सोसायटियां, चाहें शहरी हो या ग्रामीण इलाकों की हो, समापन में चली गईं और डूब गईं। अपने देश में सहकारिता समृद्ध थी लेकिन एनपीए की समस्या ने उसके अस्तित्व को ही खतरा पैदा हो गया।

सहकारिता क्षेत्र संगठित नहीं है, न ही उनका पेशेवर दृष्टिकोण है। मितव्ययिता, सहकारिता प्रशिक्षण का अभाव एवं सहकारिता के तत्वों का पालन न किए जाने से समस्याएं बढ़ती जा रही हैं। वर्तमान में ग्रामीण सहकारी संस्थाओं में लोकतांत्रिक तरीके से काम नहीं होता। संस्था एकाध व्यक्ति के ही नियंत्रण में होती है। इससे पैसे का विनियोग उस व्यक्ति की मर्जी के अनुसार होता है। इन्हीं कारणों से इन संस्थाओं में एनपीए की समस्या बढ़ने की बात कही जाती है। लेकिन ग्रामीण सहकारिता क्षेत्र में एनपीए की समस्या के क्या कारण हैं उस पर संक्षेप में चर्चा करना आवश्यक है। क्योंकि, ऊपर उल्लेखित कारणों के अतिरिक्त अन्य कारण भी हो सकते हैं। खेती पर आधारित अर्थव्यवस्था और अकाल जैसी परिस्थिति, किसानों की उपज को उचित दाम न मिलना आदिें से खेती का व्यवसाय नुकसान में है। कुल मिलाकर इस दुष्टचक्र में ग्रामीण सहकारिता फंस गई है। सहकारी सोसायटियों एवं सहकारी बैंकों के नियंत्रण के बाहर जा रहे एनपीए के कारण उनकी  लाभप्रदता कम होती है। परिणाम स्वरूप संस्थाओं की विश्वसनीयता घटती है, उनकी प्रगति नहीं हो पाती और वे नए कर्ज देने में असमर्थ होती हैं। इससे विकास की गति कम हो जाती है। ऐसी स्थिति में लघु उद्योग खड़े नहीं हो पाते। इस भंवर में संस्थाएं फंस कर रह गई हैं।

इन संस्थाओं में एनपीए बढ़ने के कुछ कारण निम्नलिखित हो सकते हैं:-

कर्जदार का अनुचित चयन: कर्जदार की वास्तविक आवश्यकता को पहचान कर कर्ज देना आवश्यक है।कर्जदार ईमानदार एवं विश्वासनीय होना चाहिए। उसके पास अपनी पूंजी भी होनी चाहिए। इस प्रकार उचित कर्जदार का चुनाव होने से कर्ज सहसा एनपीए नहीं होता।

लाभप्रद व्यवसाय को कर्जः ऐसे उचित व्यवसाय को कर्ज देना आवश्यक है जिसकी लाभ क्षमता हो। ॠण प्रस्ताव की इस दृष्टि से जांच-पड़ताल करना आवश्यक है। कई बार ऐसी कुशलता न होने पर भी कर्ज दे दिया जाता है।

कर्ज देते समय महत्वपूर्ण बातों की ओर अनदेखा करनाःसहकारी संस्थाएं भावनात्मक रूप से कर्ज व्यवहार करती हैं। गिरवी सम्पत्ति का ध्यान रख कर कर्ज देती हैं। कर्ज लेने का उद्देश्य, कर्ज देने के बाद कितनी आमदनी होगी, इस आमदनी से कर्ज की किस्त वसूल हो सकती है या नहीं, कर्जदार में की क्षमता क्या है, इन बातों का विचार नहीं किया जाता। इसी तरह जिस काम के लिए कर्ज दिया गया है उसके लिए ही उसका उपयोग हो रहा है या अन्यत्र धन व्यय किया जा रहा है इसकी निगरानी भी नहीं की जाती और कर्ज बकाया होकर अनुत्पादक हो जाता है।

जानबूझकरकर्जन  चुकानाः  सहकारी क्षेत्र में  अव्यावसायिक नेतृत्व एवं अप्रशिक्षित कर्मचारियों का लाभ उठाकर कर्जदार सहकारी संस्थाओं से कर्ज लेकर जानबूझकर डूबाते हैं।  दिनोंदिन यह संख्या बढ़ती जा रही है। ऐसे व्यवहारों में बहुत बार संस्थाओं के लोग भी शामिल होते हैं। ऐसे कर्जदारों के लिए रिजर्व बैंक की संज्ञा है थळश्रश्रर्षीश्रश्र ऊशषर्रीश्रींशी याने जानबूझकर कर्ज न चुकाने वाले। रिजर्व बैंक ने ऐसे कर्जदारों की सूची बना कर क्रेडिट रेटिंग एजेंसी को दी है। ऐसे कर्जदार संस्थाओं की प्रगति में रोड़ा बनते हैं। अतः उचित समय पर वसूली की कार्रवाई एवं अन्य कानूनी कार्रवाई करना आवश्यक है

कर्जमाफी की सरकार से अपेक्षा: अकाल, बाढ़ इत्यादि प्राकृतिक आपत्ति के कारण कई बार केंद्र सरकार, राज्य सरकार कर्जमाफी देती हैं। किसानों को इस तरह की कर्जमाफी दी जाने के कारण अपना भी कर्ज माफ होगा इस अपेक्षा में कर्जदार कर्ज की किस्ते अदा नहीं करते और यह कर्ज एनपीए हो जाता है।

कर्ज़ देते समय संस्थाओं की गलतीः कर्ज़ देते समय संस्थाओं की ओर से तकनीकी किस्म की गलती होने और कर्ज देते समय सावधानी न बरतकर जल्दबाजी में कर्ज देने से गलतियां हो सकती हैं जैसे कि सदोष दस्तावेज बनाना, गिरवी सम्पत्ति का विवरण गलत लिखना, कर्जदार या जमानदारों के दस्तखत न होना। ये गलतियां इतनी गंभीर होती हैं कि सम्बंधित संस्था कानूनी कार्रवाई कर नहीं पाती। इसलिए अपेक्षित वसूली नहीं की जा सकती व फलस्वरूप खाता अनुत्पादक हो जाता है।

संस्थाओं की ओर से वसूली के लिए प्रयत्नों में कमीःकर्ज वितरण के बाद किस्त एवं ब्याज की वसूली के लिए बार-बार प्रयत्न करना ( उश्रेीश चेपळीेींळपस) आवश्यक है। यदि इस संबंध में कोताही बरती गई तो कर्जदार की कर्ज वापस करने की मानसिकता कालांतर में कम हो जाती है। इससे किस्ते अनियमित होने पर कर्ज बकाया होकर एनपीए हो जाता है। ऐसा न हो इसलिए नियमित प्रयत्न आवश्यक है।

कर्जदार की बीमारी, घर में किसी का बीमार होना: कर्ज लेने के बाद स्वयं कर्जदार अथवा उसके परिवार में किसी के बीमार होने पर चिकित्सा का खर्च होने, चिकित्सा की ओर ही अधिक ध्यान देने आदि से व्यवसाय की ओर पर्याप्त गंभीरता से ध्यान देना संभव नहीं होता। व्यवसाय ठीक से न चलने से कर्ज बकाया हो जाता है। वेतनभोगियों के कर्जों में 1 से 3% कर्ज बीमारी के कारण बकाया हो जाते हैं।

आवश्यकता से कम कर्ज मंजूर करना: व्यवसाय के लिए आवश्यक राशि अगर कर्ज के रूप में नहीं दी गई तो पूंजी के अभाव में व्यवसाय करने में अड़चन उत्पन्न होती है। कर्जदार बाजार से और कर्ज लेने का प्रयत्न करता है जो बहुत महंगे होते हैं और इसके कारण बैंक की किस्त रुक जाती है। अतः बैंक द्वारा जरूरत के अनुसार कर्ज देना अपेक्षित है, ताकि खाता एनपीए न हो।

आवश्यकता से अधिक कर मंजूर देना: व्यवसाय को जरूरत से ज्यादा कर्ज दिए जाने से उस रकम का अन्य कामों के लिए उपयोग होकर व्यवसाय में दिक्कतें आ सकती हैं जैसे व्यवसाय की रकम का प्लाट खरीदी/शेयर खरीदी के लिए उपयोग करना। इससे रिटर्न कम आने पर और इस निवेश के कारण व्यवसाय में पैसा कम हो जाने पर दिक्कतें आएंगी। व्यवसाय का पैसा अन्यत्र उपयोग करने से ऋण खाते पर उसका विपरीत परिणाम होता है और खाता अनियमित होता है।

ऐसी परिस्थिति निर्माण होना जो कर्जदार के नियंत्रण में न हो: कई बार कर्जदार का जिस पर नियंत्रण नहीं होता ऐसी स्थिति बन जाती है और कर्ज खाता अनियमित हो जाता है। रास्ते केचौड़ीकरण में दुकान नष्ट होना, पॉलिथीन की थैलियों पर पाबंदी लगना, किसी परियोजना के कारण गांव का स्थलांतर होना इत्यादि। ऐसे मामलों में कर्जदार बेबस हो जाता है। उदाहरण के लिए कर्जदार का मानो स्वेटर्स, छतरियों, रेनकोट, गमबूट, बरसाती टोपियों आदि का व्यवसाय है लेकिन ठण्ड ही न पड़ने, बारिश न होने आदि पर कर्जदार का कोई नियंत्रण नहीं होता। लेकिन इन कारणों से खाता एनपीए हो सकता है।

कर्जदार की मृत्यु: जिस कर्जदार को कर्ज दिया गया उसकी अचानक मृत्यु होने पर खाता अनुत्पादक हो जाता है। मृत्यु दुर्घटना, आत्महत्या, अचानक हुई बीमारी के कारण हो सकती है। कर्जदार की अकाल मृत्यु के कारण उसका परिवार अड़चन में आता है। इससे व्यवसाय बंद होने की संभावना निर्माण होती है और परिणामस्वरूप खाता अनुत्पादक श्रेणी में चला जाता है।

इस प्रकार के अनेक कारणों से कर्ज खाते अनुत्पादक हो सकते हैं। सहकारी तत्वों के आधार पर शुरू की गई संस्थाओं को भी इन तत्वों का विस्मरण हो जाता है। इन तत्वों का पूरा-पूरा पालन किया गया तो चाहे कोई भी नया कानून आ जाए फिर भी ये संस्थाएं नहीं डूबेंगी। संक्षेप में सहकारिता के सिद्धांतों को संस्थाएं भूल गई हैं। पदाधिकारी एवं कर्मचारी ये गुण, संस्कार अंगीकृत करें इसलिए समय-समय पर उन्हें प्रशिक्षण देने की आवश्यकता है। सहकारिता बोर्ड इसके लिए काम करता रहता है; परंतु उनके प्रयत्न अत्यंत कम हैं। पहले सहकारी संस्थाओं का काम सामाजिक काम के रूप में किया जाता था। परंतु अब सामाजिक भावना कम होकर सहकार का स्वाहाकार हो गया है। अब पहले की भावना जगाने का समय आ गया है। यह भावना जागृत करने से ग्रामीण सहकारिता जीवित रहेगी एवं एनपीए की समस्या नहीं रहेगी। परंतु यह काम कौन करेगा? यह जिम्मेदारी कौन लेगा? यदि हम योग्य विचार करें तो इसका उत्तर ”बिना सहकार नहीं उद्धार, बिना संस्कार नहीं सहकार” इस  सूत्र पर काम करने वाले सहकार भारती के कार्यकर्ताओं के माध्यम से मिल सकता है। और वह हम अवश्य कर पाएंगे, ऐसी आशा है।

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