मीडिया को चटपटी व नकारात्मक खबरों कीइतनी आदत लग चुकी है; किसी सकारात्मक घटना में भी मीन मेख निकाली जाती है और इस मीन मेख पर ही कितने तो दिनों तक विशेषज्ञ कहे जाने वाले वही-वही चेहरे न जाने कहॉं से दूर की कौड़ी खोज लाते हैं। कभी-कभी तो मूल मुद्दा ही छितर जाता है। मैं इसे एक बहुत बड़ी वैश्विक घटना के संदर्भ में कह रहा हूँ। यह घटना है, यमन की युद्धभूमि में फंसे भारतीयों व कुछ विदेशियों तक को वहॉं से सुरक्षित बाहर निकालने वाले भारत सरकार के “ऑपरेशन राहत” की! यह दुनिया का अब तक का सब से बड़ा और सफल राहत अभियान माना जाता है। इतने लोगों को सीधे युद्ध भूमि से बचाकर लाना अपने आप में एक मिसाल है।
छोटी-मोटी घटनाओं की खाल खींचकर तूल देने वाले हमारे चैनलों और प्रिंट मीडिया को आखिर क्या हो गया कि इस वैश्विक कीर्तिमान की ओर ध्यान देने की बात तक उनके ध्यान में नहीं आई? यहीं नहीं, मानवाधिकार की जब तक चिल्लपो करने वाले ये मोमबत्ती छाप पेज-३ लोग कहॉं नदारद हो गए कि किसी ने सरकार के इस काम की सराहना में एकाध शब्द भी नहीं कहा। क्या यह मानवीय कार्य नहीं था? हमारे स्वयंसेवी संगठन कहॉं गुम हो गए कि किसी ने भी एक पासपोर्ट व दो खाली हाथ लेकर लौटे इन लोगों की कहीं भी सुध नहीं ली? पक्ष तो पक्ष विपक्ष भी मौन रहा। अँग्रेजी के कुछ अखबारों में थोड़ी-बहुत सामग्री छपी है, लेकिन भाषाई अखबार तो लगभग मौन दिखते हैं, हिंदी अखबारों को तो शायद यमन का पता ही नहीं। केवल दक्षिण के मलयालम अखबारों ने इन बातों को तवज्जो दी; क्योंकि उन इलाकों का बहुत बड़ा वर्ग अरब देशों में काम करता है।
“आपरेशन राहत” का नेतृत्व मोदी सरकार में विदेश राज्य मंत्री निवृत्त सेना प्रमुख वी.के.सिंह ने किया। नौसेना के युद्धपोत आईएनएस सुमित्रा, आईएनएस मुंबई, वायु सेना के युद्धक विमान व एयर इंडिया के यात्री विमान इस काम में लगाए गए थे। चूँकि एक सफल वरिष्ठ सेनाधिकारी के नेतृत्व में यह अभियान चला, इसलिए सामरिक रणनीति बहुत बारीकी से बनी और वह सफल हुई। किंतु, इसके पीछे विदेश मंत्रालय की कूटनीति को भी इसका श्रेय देना होगा। प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी की देखरेख में यह होता रहा है। मैदान में रणनीति वी.के.सिंह की चली, पृष्ठभूमि में भारत सरकार की कूटनीति काम आई। इसे बहुत बड़ी कूटनीतिक सफलता माना जाना चाहिए। इसका कारण यह कि इस युद्ध में हम तटस्थ रह सके, और पाकिस्तान की तरह सऊदी अरब की कार्रवाई में शामिल नहीं हुए। जिन शिया हौथियों ने वहॉं बगावत की है, वे सऊदी समेत अन्य सुन्नी अरव देशों की बात नहीं मानते और चूंकि सऊदी अमेरिका के पश्चिमी ब्लॉक का हिस्सा है इसलिए पश्चिमी देशों की भी बात नहीं मानते। ऐसी स्थिति में भारत ने हौथियों को समझाया और भारतीय नागरिकों की रिहाई का अवसर देने का अनुरोध किया। हौथियों ने इसे मंजूर किया और किसी भी भारतीय को यमन की राजधानी सना के हवाई अड्डे पर जाने से नहीं रोेका; बल्कि मदद की। उधर, सऊदी अरब ने नागरिकों को निकाले जाने के समय हवाई बमबारी रोक देना स्वीकार किया। इस तरह दो युद्धरत एक दूसरे के दुश्मन देशों से यह राहत प्राप्त कराना भारत सरकार की एक बड़ी कूटनीतिक सफलता है।
भारत ने ३१ मार्च से अगले दस दिनों में ५,६०० भारतीयों एवं अन्य ४१ देशों के ९६० नागरिकों को बचाया। यमन हमेशा अशांत रहा है और इसलिए वहां भारतीयों की संख्या मात्र ६,००० के आसपास है। इन आंकड़ों से पता चलता है कि अभी भी हजार के आसपास लोग वहां रह गए हैं। ये वे लोग हैं, जिन्होंने स्थानीय लोगों से विवाह कर लिए हैं और वे अब लौटना नहीं चाहते। अन्य देशों में से चीन व पाकिस्तान ने भी अपने नागरिकों को राहत दी है। पाकिस्तान ने १५ भारतीयों को सुरक्षित बचाया और उन्हें भारत लौटा दिया। युद्धभूमि में परंपरागत विरोधी भी कैसे दोस्त बन जाते हैं, इसका यह उदाहरण है।
भारत को इस तरह के बचाव अभियान में महारत हासिल है। इसके पूर्व १९९० के दशक में पहले खाड़ी युद्ध (ईरान-इराक), २००६ में लेबनान, २०११ में लीबिया और २००३ व २०१४ में इराक युद्ध में भारतीय सेना ने बचाव अभियान किया था और इनमें कुल मिलाकर अब तक १ लाख १० हजार से ज्यादा भारतीयों को सुरक्षित स्थान पर लाया जा सका है। विमानों ने ही ५०० से अधिक उड़ानें भरीं। इन अभियानों के दौरान किसी भी तरह की जनहानि नहीं हुई है। राहत अभियान का किसी भी देश का इस तरह का रिकार्ड नहीं है, अमेरिका का भी नहीं। यहीं क्यों, यमन युद्धभूमि से अमेरिकियों को सुरक्षित निकालने का अनुरोध अमेरिका ने भारत से किया है। इन अभियानों की खासियत यह भी है कि भारत पहुंचे लोगों के भोजन-पानी व उन्हें उनके घर तक पहुंचाने की निशुल्क व्यवस्था रेलवे ने की। इससे इस अभियान के बेहतर संयोजन का पता चलता है। लिहाजा, किसी मीडिया वाले को भारतीयों के यहां पहुंचने पर उनकी खोज-खबर लेने की फुर्सत तक नहीं मिली!
लौटने वालों के एक से बढ़कर एक रोमांचक व रोंगटे खड़े कर देने वाले किस्से हैं। इनमें से केवल एक मानवीय उदाहरण ही काफी है। वह है तीन दिन की नन्हीं पार्वती का। उसकी मां कोच्चि की है और यमन में नर्स का काम करती है। यह समय पूर्व प्रसव था। युद्धभूमि में ऐसी घटनाएं अवश्य होती हैं और माताएं आघात से प्रसवित हो जाती हैं। उसका जन्म होते ही उसे पीलिया हो गया व सांस लेने में बेहद दिक्कतें आने लगीं। उसे किसी तरह इनक्यूबेटर में डालकर राजधानी सना से जिबौती बंदरगाह पर लाया गया। वहां भारतीय डॉक्टरों ने उसका इलाज किया और उसे तुरंत विमान से कोच्चि रवाना कर दिया गया। साथ में जिबौती से डॉ. उमा नांबियर भी आई, ताकि विमान में बच्ची के स्वास्थ्य पर नजर रखी जा सके। लेकिन वह सकुशल कोच्चि पहुंची। इस घटना की केवल कल्पना करके भी रोएँ खड़े हो जाते हैं। डॉक्टरों का तो कहना है कि उसका बचना एक चमत्कार ही है!
इस मौके पर यमन की स्थिति का अवलोकन करना भी जरूरी है। भारतीय मीडिया में बहुत कम जानकारी आने से वहां क्या और क्यों हो रहा है, इसका किसी को ठीक से पता नहीं चलता। मोटे तौर पर देखें तो वहां मुस्लिमों के दो सम्प्रदायों- शिया और सुन्नी- के बीच यह वांशिक संघर्ष दिखाई देता है। यमन की बगावत में जिन हौथियों का बार-बार जिक्र आता है, वे जैदी पंथ के शिया हैं। जैदियों में भी कई छोटे-छोटे विभाजन हैं, लेकिन वे सब शिया सम्प्रदाय को मानते हैं। यमन की जनसंख्या २४ मिलियन है, जिनमें एक तिहाई हौथी हैं। इस तरह वे अल्पसंख्यक हैं। बहुसंख्यक सुन्नियों द्वारा उन पर सांस्कृतिक अत्याचारों के कारण संघर्ष चिंगारी पड़ी है। ईरान शिया है और इसलिए हौथियों के साथ है, जबकि इराक से लेकर सऊदी व उसके साथी देश सुन्नियों के हाथों में हैं। इसलिए एक तरफ हौथी और ईरान व दूसरी तरफ सऊदी के नेतृत्व वाले अरब देश और परोक्ष रूप से अमेरिका व पश्चिमी देश हैं।
सऊदी अधिक कट्टर किस्म के वहाबी पंथ का समर्थक हैं और वह यह कतई पसंद नहीं करेगा कि उसकी बगल में यमन में शियाओं की सत्ता आए। पश्चिमी देश तेल व अन्य सामरिक कारणों से सऊदी जैसे अन्य सुन्नी देशों का समर्थक रहा है। अमेरिका जिस तरह अपने दोस्तों को नाराज नहीं कर सकता, उसी तरह यमन की सामरिक स्थिति से भी हाथ धोना नहीं चाहता। यमन लाल समुद्र को एडन की खाड़ी से जोड़ने वाले सँकरे मार्ग पर स्थित बाब-अल मंडप जलडमरुमध्य पर स्थित है। इस मार्ग से तेल की आवाजाही यूरोप व अन्य पश्चिमी देशों को होती है। यदि यह क्षेत्र हौथियों के हाथ चला गया तो ईरान वहां हावी हो जाएगा और पश्चिमी देशों के व्यापारिक हितों को नुकसान पहुंचेगा। अमेरिकी व पश्चिमी देशों के इस युद्ध में अप्रत्यक्ष शामिल होने का यही कारण है।
हौथियों का इतिहास हजार साल पुराना है। उत्तर यमन में उनका राज था और दक्षिण यमन में सुन्नी हावी थे। १९६२ तक यही स्थिति थी। बाद में आपस में समझौता होकर १९९० में यमन का एकीकरण हुआ। लेकिन यह दोनों पक्षों को रास नहीं आया। १९९४ में फिर वहां गृहयुद्ध भड़क उठा। तब से लगातार अशांत स्थिति है। फिर एकीकरण के प्रयास हुए और अब्दुल्ला सालेह राष्ट्रपति बना। वह भी जैदी हौथी ही था, और ईरान के समर्थन से राष्ट्रपति बना था। लेकिन दो दशकों में ही उसका रुतबा कम हो गया और हौथी फिर संघर्ष पर उतर आए। इस संघर्ष का नेतृत्व हुसैन बद्र-अल-दिन अल-हौथी ने किया। २००४ में सेना ने उसकी हत्या कर दी। आंदोलन का नेतृत्व उसके परिजनों ने हाथ में ले लिया। सालेह ने नए राष्ट्रपति हादी को सत्ता सौंप दी, लेकिन हादी को सत्ता से खिंचने की साजिश अपने हौथी साथियों के साथ उसने जारी रखी। यमनी सेना भी दो भागों में बंट गई, हौथियों ने हथियारों पर कब्जा कर लिया और सुन्नी भागकर दक्षिण में चले गए। हादी को कैद कर लिया गया, लेकिन वह भागकर दक्षिण में एडन में पहुंच गया और वहीं उसने अपने को फिर राष्ट्रपति घोषित कर दिया। सऊदी व अन्य सुन्नी देश उसकी मदद करने लगे, लेकिन तब तक हौथियों ने एडन व दक्षिण के अटक समेत कुछ बडे शहरों को काबिज कर लिया। हादी फिर भाग खड़ा हुआ है।
हौथियों का जैदी पंथ को बचाने के लिए जिहादी ग्रुप है- अंसार अल्लाह (खुदा के साथी)। सुन्नियों ने भी अपने ऐसे गुट बना लिए हैं। एक का नाम है अल-कायदा इन अरब पेनीनसुला (एक्यूएपी)। उनका दक्षिण व दक्षिण पूर्व क्षेत्र में दबदबा है। एक्यूएपी मूल अल-कायदा की एक शाखा ही है, जो खतरनाक मानी जाती है। दोनों जिहादी गुट एक दूसरे के सामने खड़े हैं। अल-कायदा हौथियों को कभी हावी नहीं होने देगा। शिया-सुन्नी संघर्ष का एक पहलू यह भी है। विडम्बना देखिए कि एक तरफ सऊदी अरब अल-कायदा के विरोध में खड़ा है और दूसरी तरफ यमन में हौथियों को परास्त करने के लिए उसकी चुपके से मदद कर रहा है। इस तरह अल-कायदा से लड़ने वाला अमेरिका भी यमन में अल-कायदा की एक शाखा को अप्रत्यक्ष रूप से मदद दे रहा है। मैदान में यह मदद इसलिए अप्रत्यक्ष रूप से पहुंचाई जा रही है कि महज सऊदी अरब के हवाई हमलों से हौथियों को जीतना संभव नहीं है। सच है कि युद्ध में कोई किसी का स्थायी दुश्मन नहीं होता!
आज की स्थिति में युद्ध से कोई समाधान नहीं निकलने वाला है, किसी राजनीतिक समझौते की पहल करनी होगी। लिहाजा, इस युद्धभूमि से अपने व कुछ विदेशी नागरिकों को बचाने का भारत ने जो अभियान चलाया उसका कोई सानी नहीं है। इसलिए नौसेना, वायु सेना तो सराहना की पात्र हैं ही, विदेश मंत्रालय और कुल मिलाकर मोदी सरकार साधुवाद की हकदार है।
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