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मोदी सरकार का एक वर्ष भरोसा और उम्मीद अभी बाकी है

मोदी सरकार का एक वर्ष भरोसा और उम्मीद अभी बाकी है

by जगदीश उपासने
in जून २०१५, सामाजिक
0

   क्या अच्छे दिन आ गए?

अगर अर्थशास्त्रियों से पूछें तो उनका उत्तर होगा, हां, अर्थव्यवस्था के अच्छे दिनों की शुरूआत हो गई है और देश विकास के सही रास्ते पर है।

विदेश नीति के विशेषज्ञ बताएंगे कि इस एक बरस में भारत ने प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में विश्व पटल पर अपना खोया स्थान कैसे हासिल किया और कैसे विश्व उसे शाश्वत याचक की बजाए दुनिया को कुछ देने वाला मानने के लिए विवश हो गया है। वे कुछ अचंभे के साथ आपको बताएंगे कि मात्र दो वर्ष पहले गुजरात के मुख्यमंत्री पद से उठकर देश की राष्ट्रीय राजनीति के राजमार्ग पर कदम रखने वाले मोदी ने इस एक वर्ष में ही स्वयं को दृढ़निश्चयी और मित्रवत विश्व नेता के रूप में किस तरह प्रस्थापित कर लिया है।

प्रशासन के उस्ताद बताएंगे कि गुणवत्तापूर्ण, नतीजे देने वाले और भ्रष्टाचारमुक्त सरकारी कामकाज से कम-से-कम केंद्र सरकार के प्रशासन के लिए अच्छे दिन कितने ठोस ढंग से आ गए हैं। खास तौर पर तब जबकि मोदी की अगुआई वाली भाजपाप्रणीत राजग सरकार को यूपीए के १० साल के लकवाग्रस्त तथा भ्रष्टाचार से पोर-पोर सने शासन की विरासत मिली।

‘समावेशी विकास’ (इन्क्लूसिव डेवलपमेंट) के पैरोकार बताएंगे कि जनधन योजना जिसमें १२.५४ करोड़ खाते खुल चुके हैं १०,४९,९६२.६२ लाख रु. जमा किए जा चुके हैं, गरीबों के लिए दुर्घटना बीमा, आम भारतीय के लिए पेंशन, मनरेगा, गरीबों के खातों में सब्सिडी का सीधा हस्तांतरण, किसानों को उनकी फसल के नुक्सान की ५० फीसदी तक भरपाई करने, बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ, स्वच्छता अभियान जैसी योजनाएं और राज्यों को राजस्व में अधिक हिस्सा देने, नीति-निर्माण में उनकी भागीदारी बढ़ाने और सहकारी संघवाद जैसे नवाचारों से किस तरह मोदी सरकार सामाजिक सुरक्षा तथा केंद्र-राज्य संबंधों में नई इबारत लिख रही है।

लेकिन देश के गांवों में रहने वालों, किसानों, शहरी और ग्रामीण मध्यम वर्ग तथा उद्योपतियों-उद्यमियों-व्यवसायियों से पूछिए तो जवाब में कुछ निराशा झलकेगी। किसान हताशा में हाथ लहराएंगे, आत्महत्याओं की दारूण गाथाएं सुनाएंगे, अपनी जमीन ‘‘छीन लिए जाने’’ के अंदेशे दोहराएंगे, मौसम की मार से फसलें चौपट होने और नाममात्र का मुआवजा मिलने का दर्द साझा करेंगे और उपज का निर्यात घटने की शिकायत करेंगे। मध्यम वर्ग खानेे-पीने की चीजों की महंगाई का रोना रोएगा। उद्योगपति अपने उद्योगों के लिए अनुकूल वातावरण नहीं बनने, ‘दमनकारी टैक्स राज’ का पूरी तरह खात्मा न होने और नीतिगत घोषणाओं को अमली जामा पहनाने के लिए जरूरी सपोर्ट सिस्टम तैयार न होने की शिकायत करेंगे। भवन-सडक़-पुल निर्माण जैसे बुनियादी ढांचागत क्षेत्र में कार्यरत उद्यमी मंदी का ब्यौरा देंगे। पढ़े-लिखे युवा नौकरियों और स्वयं का उद्यम लगाने का माहौल तैयार न होने की बात कहेंगे। और शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में अब तक कुछ न किए जाने की बात होगी।

लेकिन क्या ये सब लोग अब भी मानते हैं कि प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी उनके लिए अच्छे दिन ला सकते हैं? मोदी के नेतृत्व पर उनका भरोसा क्या अब भी वैसा ही है जैसा लोकसभा चुनाव के दौरान था? उत्तर सकारात्मक से लेकर ‘हां भी ना भी’ के बीच का होगा। अधिकतर लोग कहेंगे कि मोदी पर उनकी उम्मीद अभी बाकी हैै।

यह विरोधाभास इसलिए है कि २०१४ के लोकसभा चुनाव में ३१ प्रतिशत वोट और २८२ सीटों के साथ स्पष्ट बहुमत प्राप्त कर २६ मई, २०१४ को प्रधान मंत्री के रूप में शपथ लेने वाले मोदी ने असंख्य उम्मीदों के बोझ तले पदभार ग्रहण किया था। चुनाव अभियान के दौरान १० वर्ष के यूपीए के भ्रष्टाचारी कुशासन ने उन्हें कांग्रेस और उसके सहयोगियों पर हमले के अनेक मुद्दे मुहैया कराए थे जिन्हें हल करने के लिए उन्होंने देश से ‘६० महीने’ मांगे थे। ‘अच्छे दिन आएंगे’ भरोसा और आशाएं जगाने वाला नारा था। लेकिन यूपीए कुशासन की विरासत एक वर्ष में न खत्म हो सकती थी और न हुई। लेकिन उसके अंत की शुरूआत जरूर हो गई और ठोस ढंग से हुई। मोदी सरकार की सब से बड़ी उपलब्धि भ्रष्टाचारमुक्त और प्रभावी सुशासन की नींव रखना है। आर्थिक मोर्चे पर सभी संकेतक अनुकूल हैं। अर्थव्यवस्था पटरी पर है और आधारभूत ढांचागत क्षेत्र के विकास की राह खुली है। देश के विकास और उन्नति की प्रतीक सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की दर जो यूपीए के शासन के अंतिम वर्ष में लगातार ३.५ प्रतिशत से बमुश्किल बढ़कर दो गुनी हो पाई थी, ७.४ प्रतिशत पर पहुंच चुकी है। महंगाई दर (मुद्रास्फीति) मार्च २०१५ में ५.१७ फीसदी पर थी जबकि यूपीए राज में यह ८.३१ प्रतिशत थी। महंगाई दर कम होने के बावजूद खाने-पीने की चीजों की बढ़ी हुई कीमतें मौसमी बरसात, ओलावृष्टि से फसलें खराब या कम होने से पनप रही जमाखोरी तथा अपर्याप्त आयात की ओर इशारा करती है। वित्तीय घाटा जो खर्च के मामले में सरकार के हाथ बांध देता है, ३.९ प्रतिशत पर आया है। देश में विदेशी मुद्रा भंडार ३४३.९ अरब डॉलर पर पहुंच चुका है और भारत पूंजी निवेश के मामले में विदेशी निवेशकों, संस्थागत निवेशकों, उद्यम-आधारित पूंजी लगाने वालों का सब से पसंदीदा ठिकाना बना है। और ऐसा १९९१-९२ के बाद पहली बार हुआ है। रूपया डॉलर के मुकाबले कमोबेश स्थिर रहा है। अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की घटी हुई कीमत से भी राजग सरकार को मदद मिली।

ऊर्जा के क्षेत्र में भारत २२,५०० मेगावाट अधिक बिजली पैदा करने में सफल रहा है। हालत यह है कि सरकारी और निजी बिजली संयंत्रों में पैदा होने वाली बिजली की खरीद करने में राज्यों के बिजली बोर्ड फिसड्डी साबित हो रहे हैं। बिजली खरीद से बिजली बोर्डों का घाटा बढऩे के डर से लोडशेडिंग कर उपभोक्ताओं को उनके हाल पर छोड़ा जा रहा है। बिजली है पर खरीदार नहीं हैं।

हालांकि अर्थशास्त्री मानते हैं कि भारत की अर्थव्यवस्था ने अभी भी पूरी क्षमता हासिल नहीं की है और मोदी सरकार को विकास तथा आधारभूत ढांचागत क्षेत्र में तुरत-फुरत ठोस उपाय शुरू करने होंगे तथा सुधारों के बड़े कदम उठाने होंगे। ‘मेक इन इंडिया’, राजमार्गों तथा रेल नेटवर्क का विकास और आधुनिकीकरण, देश भर में व्यापारिक कॉरिडोर, विशेष औद्योगिक क्षेत्र, स्किल डेवलपमेंट में तेजी लानी होगी। रुके हुए प्रकल्पों को फिर से शुरू करने और उनमें तेजी लाने की जरूरत है। निवेशक टैक्स नियमों की सख्ती और मैट जैसे कराधान को उद्योगों के लिए प्रतिकूल मानते हैं। लेकिन गुड्स एंड सर्विसेज टैक्स (जीएसटी) जैसे महत्वपूर्ण विधेयक के लोकसभा में पारित होने को टैक्स के क्षेत्र में अब तक का सब से अहम सुधार भी माना जा रहा है। कई विश्लेषक मानते हैं कि निवेश बढ़ाने के लिए प्रधान मंत्री को खुद पहल करनी होगी। कृषि उपज और औद्योगिक निर्यात में खासी कमी आई है जिससे किसानों पर दोहरी मार पड़ी है और मैन्युफैक्चरिग क्षेत्र में मंदी आ गई है। हालांकि मोदी की विदेश यात्राओं के प्रमुख उद्देश्यों में निवेश आमंत्रित करना एक प्रमुख लक्ष्य है लेकिन पूरी तरह अनुकूल वातावरण के बगैर इसमें वृद्धि संभव नहीं। एक भावना यह भी है कि अधिकतर सरकारी कार्यक्रम अभी घोषणाओं के स्तर पर ही हैं, उनके क्रियान्वयन के लिए ठोस मशीनरी का अभाव है। लेकिन तमाम विशेषज्ञ गत वर्ष को आर्थिक मोर्चे पर ‘सकारात्मक वर्ष’ मानते हैं। एक अमेरिकी विशेषज्ञ रिक रोसो का तो कहना है कि मोदी सरकार ने एक वर्ष में जितने आर्थिक सुधार किए हैं उतने अटल बिहारी वाजपेयी की अगुआई वाली राजग सरकार और यूपीए सरकार भी अपने पहले वर्ष में नहीं कर पाई। अंतरराष्ट्रीय क्रेडिट एंजेसियों ने भी भारत की रेटिंग बढ़ाई है।

विदेश नीति के मामले में मोदी सरकार का प्रदर्शन निश्चय ही चमत्कारी है। मोदी अब तक ३० से अधिक देशों की यात्राएं कर चुके हैं और यूपीए शासन में हुए अमेरिका-भारत परमाणु करार को गति देने, ऑस्ट्रेलिया तथा कनाडा से परमाणु संयंत्रों के लिए संवर्धित यूरेनियम प्राप्त करने, जर्मनी से मेक इन इंडिया में सहयोग, जापान से बड़े पैमाने पर निवेश, शहरों के विकास में सहयोग तथा बुलेट ट्रेन जैसी महत्वाकांक्षी योजनाओं में साझेदारी के अतिरिक्त चीन के साथ व्यापारिक घाटा कम करने, चीन में भारत का निवेश और निर्यात बढ़ाने, दोनों देशों की राज्य सरकारों में व्यापारिक संबंध कायम करने, सीमा विवाद हल करने की दिशा में आगे बढ़ने के साथ ही इन देशों के निवेशकों को भारत में निवेश के लिए आमंत्रित करने में सफल रहे हैं। उम्दा माने जाने वाले युद्धक विमान रफेल की सरकार के स्तर पर फ्रांस से खरीदारी से मोदी ने रक्षा सौदों से घूसखोरी का दाग ही मिटा दिया है। दरअसल मोदी ने अंतरराष्ट्रीय मंच पर भारत की कूटनीति का रंग-ढंग बदल कर रख दिया है। अमेरिका से लेकर चीन तक उनके प्रति वहां के लोगों की उत्सुकता भारत के लिए हितकारी रही है। ‘टाइम’ पत्रिका में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा का मोदी के बारे में लिखना अंतरराष्ट्रीय जगत में पैर जमाते भारत के मजबूत नेता के रूप में उनकी अहमियत दर्शाता है।

अफगानिस्तान में तालिबानी चंगुल से भारतीयों की मुक्ति के बाद कट्टरवादियों के जुल्म से कराह रहे इराक से केरल की नर्सों तथा छोटे भारतीय कारीगरों को वापस लाने तथा युद्धरत यमन से भारतीयों समेत २६ देशों के नागरिकों को आननफानन निकाल लाने के हैरतअंगेज कारनामे ’ऑपरेशन राहत’ के बाद और नेपाल की भयावह त्रासदी में सबसे पहले मदद-राहत का हाथ बढ़ाने से विश्व में भारत की एक समर्थ राष्ट्र की छवि बनी है।

भ्रष्टाचार-मुक्त प्रशासन मोदी सरकार की एक और विशेषता साबित हुई है। यूपीए राज में भ्रष्टाचार का प्रतीक रही कोयला खदानों की सार्वजनिक नीलामी और स्पेक्ट्रम की नीलामी की कामयाबी को अगर मोदी विदेशी धरती पर सुनाते हैं तो कोई बेजा बात नहीं करते। राष्ट्रीय संसाधनों का उचित और न्यायपूर्ण वितरण सरकार की जिम्मेदारी है और उनकी सरकार ने उसे बखूबी निभाया। इसी तरह रक्षा क्षेत्र को निजी उद्यमियों के लिए खोलने जैसे कदमों और रक्षा उपकरणों-हथियारों की निर्विवाद खरीद से नए मानदंड कायम हुए हैं। केंद्र सरकार से विभिन्न स्वीकृतियों के लिए उद्योगपतियों के, मंत्रालयों के बाबुओं के चक्कर लगाने पर रोक लगी है और प्रधान मंत्री समेत विदेश मंत्री सुषमा स्वराज, वित्त मंत्री अरूण जेटली, गृह मंत्री राजनाथ सिंह, रेल मंत्री सुरेश प्रभु, रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर जैसे कई मंत्री और कैबिनेट सचिव, प्रधान मंत्री के सलाहकार नृपेन मिश्र, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोवाल, विदेश सचिव एस. जयशंकर समेत कई बड़े सरकारी अधिकारी भी बगैर छुट्टी लिए काम करते हैं, यहां तक कि रविवार को भी इनमें से कई अपने कार्यालयों में होते हैं। इससे प्रशासन में तेजी आई है। लेकिन प्रधान मंत्री कार्यालय के सर्वशक्तिमान प्राधिकार के रूप में स्थापित किए जाने से दूसरे मंत्रालयों में निर्णय प्रक्रिया प्रभावित हुई है। विश्लेषक मानते हैं कि अगर मोदी ६० महीने में ‘सबका साथ, सबका विकास’ चरितार्थ करना चाहते हैं तो उन्हें मंत्रालयों को अधिक सक्रिय भूमिका निभाने के अवसर देने होंगे तथा गुणवत्तापूर्ण निर्णयों के लिए प्रशासन के बाहर से विशेषज्ञों का साथ लेना होगा।

राजनैतिक स्तर पर मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह के नेतृत्व में भाजपा ने २०१४ में लगातार चुनाव जीतने का रिकॉर्ड बनाया। महाराष्ट्र, झारखंड और हरियाणा विधान सभा चुनाव में जीत के बाद जम्मू-कश्मीर विधनसभा चुनाव में जम्मू क्षेत्र में बहुमत सीटें जीत कर राज्य सरकार में भाजपा की प्रमुख हिस्सेदारी की इससे पहले किसी ने कल्पना नहीं की थी। लेकिन २०१५ के शुरू में दिल्ली विधान सभा में पार्टी की करारी हार से मोदी-शाह जोड़ी का चुनावी चमत्कार दागदार हो गया। इससे असहाय हुई कांग्रेस और हाशिये पर जा चुके उत्तर भारतीय क्षेत्रीय दलों को संजीवनी मिल गई। कांग्रेस ने यूपीए सरकार के बनाए भूमि अधिग्रहण कानून में किए गए विकास-मूलक संशोधनों को उद्योगपतियों के हित में साबित करने में एडी-चोटी का जोर लगा दिया। और तमाम उपलब्धियों तथा अच्छी नीयत के बावजूद भाजपा सरकार कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों के झूठे प्रचार का तोड़ नहीं खोज पाई। इससे किसानों में संभ्रम पैदा हुआ। राजनीति में कई बार धारणा वास्तविकता पर हावी हो जाती है। जमीन किसान के लिए सबसे संवेदनशील मसला है और विकास तथा रक्षा जरूरतों के लिए भूमि अधिग्रहण को लगभग असंभव बना देने वाले यूपीए सरकार के कानून में संशोधन करते समय शायद इस तथ्य को उतना महत्व नहीं दिया गया। बेमौसम बारिश और ओलावृष्टि ने किसानों की कठिनाई और बढ़ा दी है। आत्महत्याओं में तेजी आई है। हालांकि केंद्र सरकार ने राज्य सरकारों को केंद्रीय निधि से मदद उठाने की छूट दी है और कहा है कि वे राज्य आपदा कोष से १ अरब रूपए तक खर्च कर सकते हैं, लेकिन राज्यों में निचले स्तर प्रशासन की असंवेदनशीलता और भ्रष्टाचार से यह मदद प्रभावितों तक अब भी नहीं पहुंची है। जाहिर है, मोदी सरकार को किसानों के आंसू पोंछने और उन्हें दिलासा देने के लिए जल्दी और ठोस कदम उठाने होंगे। हकीकत तो यह है कि राजग सरकार को कृषि क्षेत्र की उन्नति के लिए भी उसी प्राथमिकता के साथ योजनाएं बनानी होंगी, जैसी उद्योगों के लिए बननी हैं। भारत की लगभग २ खरब डॉलर की अर्थव्यवस्था में कृषि का हिस्सा सिर्फ १५ फीसदी ही है लेकिन यह सवा सौ करोड़ लोगों के देश में ६० प्रतिशत से अधिक लोगों के जीवन-यापन का माध्यम है। गांवों में यह धारणा बन रही है कि मोदी सरकार ने उनके लिए कुछ नहीं किया। इससे आक्रोश फैलते देर नहीं लगेगी।

दरअसल मोदी सरकार की बड़ी योजनाएं ठोस विकास की नींव रखने वाली दीर्घकालीन योजनाएं हैं। लेकिन वे जिन आशाओं-आंकांक्षाओं पर सवार होकर सत्ता में आए, वे इतनी अधिक हैं और तुरत-फुरत पूरी किए जाने को आतुर हैं कि उम्मीदों और सरकार के प्रदर्शन में अंतर दिखता है। मोदी सरकार के सामने अगले वर्ष इस अंतर को पाटने की चुनौती होगी।

 

जगदीश उपासने

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