मुख्यमंत्री बनने की मृगतृष्णा

महाराष्ट्र में जो कुछ हुआ उसकी किसी को कल्पना नहीं थी। जब भाजपा गठबंधन से शिवसेना ने स्वयं को अलग कर राकांपा एवं कांग्रेस के साथ जाने का निश्चय किया और इन दोनों पार्टियों ने भी मिलीजुली सरकार बनाने की घोषणा कर दी तो फिर बाजी पलटने की कल्पना कोई कर भी नहीं सकता था। भारतीय राजनीति में सरकार बनने और बिगड़ने की अनेक घटनाएं हुई हैं लेकिन महाराष्ट्र ने सबसे अलग अध्याय जोड़ा है। यह भारत के इतिहास की पहली घटना थी जब बहुमत मिलने के बाद गठबंधन की सरकार नहीं बनी। शिवसेना ने यदि भाजपा का परित्याग कर दिया तो भाजपा को भी किसी तरह प्रत्युत्तर देना था। प्रत्युत्तर केवल शब्दों से नहीं दिया जा सकता था। तो यह भाजपा द्वारा शिवसेना को दिया गया प्रत्युत्तर है। जो शिवसेना कुछ घंटे पहले तक अपना मुख्यमंत्री बनाने की तैयारी कर रही थी वह निस्संदेह हतप्रभ है।

शरद पवार और उद्धव ठाकरे की पत्रकार वार्ता में केवल भाजपा और अजीत पवार की आलोचना थी। इसमें ठोस कुछ भी नहीं था। शरद पवार ने केवल इतना कहा कि अजीत पवार से बात करने के बाद उनके बारे में फैसला करुंगा। उनका राकांपा के ज्यादातर विधायकों के साथ रहने के दावे का परीक्षण तो विधानसभा में बहुमत साबित करने के दौरान ही होगा। पत्रकार वार्ता में राकांपा के ज्यादातर विधायक उपस्थित नहीं थे। जिस प्रकार की परिस्थितियां उत्पन्न हो चुकी है उसमें यह दिखाने के लिए कि बहुमत हमारे साथ है सारे विधायकों की उपस्थिति जरुरी थी। आप अगर यह दावा करते हैं कि देवेन्द्र फडणवीस और अजीत पवार की सरकार बहुमत नहीं प्राप्त करेगी तो पत्रकार वार्ता में सारे विधायक उपस्थित होने चाहिए थे। साफ है कि शरद पवार के दावे के अनुसार राकांपा की स्थिति नहीं है।

भविष्य में क्या होगा, देवेंद्र फडणवीस सरकार बहुमत प्राप्त करेगी या नहीं इस बारे में निश्चयात्मक रूप से कुछ कहना कठिन है। लेकिन यह हर निष्पक्ष व्यक्ति स्वीकार करेगा कि जिस तरह का जनादेश मिला था उसमें ऐसा होना नहीं चाहिए था। भाजपा और शिवसेना साथ मिलकर चुनाव लड़ी और उन्हें बहुमत मिला तो सरकार बननी चाहिए थी। परिणाम आने के बाद शिवसेना ने 50-50 प्रतिशत की जिद कर दी। कहने लगे कि ढाई साल मेरा मुख्यमंत्री होगा और ढाई साल भाजपा का इसी तरह आधे – आधे पदों का बंटवारा होगा। यह भी दावा किया कि भाजपा ने चुनाव के पूर्व इस का वायदा किया था। हालांकि इसके कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं थे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृह मंत्री अमित शाह अपनी सभाओं में देवेंद्र फडणवीस के नेतृत्व में भाजपा और शिवसेना की सरकार बनाने के नाम पर वोट मांग रहे थे। इसका अर्थ है कि शिवसेना ने भारतीय जनता पार्टी के साथ एक रणनीति की तरह चुनाव लड़ा था। चुनाव प्रचार के बीच वह खामोश रहे और जैसे ही परिणाम आया उन्होंने अपनी रणनीति के तहत रंग बदलना शुरू किया। शिवसेना ने इस तरह की जिद ना की होती और भारतीय जनता पार्टी की आलोचना और निंदा में इतनी दूर तक नहीं गए होते तो यह परिस्थिति पैदा नहीं होती। मजे की बात देखिए कि शिवसेना के नेता संजय राउत एक और 50-50 का बयान दे रहे थे और दूसरी ओर शरद पवार के साथ भी वार्तालाप कर रहे थे। शरद पवार और उनके बीच क्या बातचीत होती थी। कारण, शरद पवार अपनी ओर से कुछ नहीं बोलते थे। जो कुछ बोलते थे वह संजय रावत ही।

चुनाव परिणाम आने के बाद शरद पवार का पहला वक्तव्य यही था कि हमें विपक्ष में बैठने का जनादेश मिला है, सरकार बनाने का जनादेश भाजपा और शिवसेना को मिला है। इससे यह संदेश गया कि शिवसेना के नेता भले शरद पवार के पास जा रहे हो लेकिन वह विपक्ष में बैठने का मन बना चुके हैं। लगता है कि शरद पवार भी एक रणनीति के साथ अपनी राजनीति कर रहे थे। शिवसेना को उन्होंने आरंभ में स्पष्ट आश्वासन नहीं दिया लेकिन उसको भाजपा से अलग होने के लिए प्रोत्साहित किया। नवाब मलिक ने अपने पत्रकार वार्ता में कई बार कहा कि शिवसेना पहले भारतीय जनता पार्टी का साथ छोड़े, राजग से बाहर आए तभी हमारा साथ हो सकता है। शिवसेना के एकमात्र मंत्री अरविंद सावंत ने नरेंद्र मोदी सरकार से इस्तीफा दे दिया। एक बार इस्तीफा देने के बाद शिवसेना के पास भाजपा के पास लौटने का विकल्प नहीं बचा था। वह राकांपा एवं कांग्रेस के साथ रहने को मजबूर  थी। शरद पवार ने तब भी अपनी मुट्ठी नहीं खोली। उन्होंने कई दिनों तक नहीं कहा कि हम मिलकर सरकार बनाने जा रहे हैं। यद्यपि तीनों पार्टियों के बीच बातचीत होती रही। उसमें से छन – छन कर खबरें भी आतीं रहीं। यह भी बताया गया कि सामान्य न्यूनतम कार्यक्रम पर सहमति बन गई है। तो फिर हुआ क्या ? यह सवाल तो बनता है कि आखिर सरकार बनी क्यों नहीं ?

कांग्रेस को शिवसेना के साथ जाने में हिचक थी यह साफ है। कांग्रेस के अंदर इस पर आम सहमति नहीं थी कि उन्हें एक उग्र हिंदूवादी पार्टी शिवसेना के साथ गठबंधन करना चाहिए। बाद में वे तैयार हुए तो उसके पीछे एक कारण यह था कि उनके कुछ विधायक हर हाल में सरकार में जाना चाहते थे और दूसरे, राकांपा के साथ गठबंधन को बनाए रखने के लिए उन्होंने यह निर्णय किया। लेकिन अब जो घटनाक्रम दिख रहा है उससे साफ है कि शरद पवार भले शिवसेना के साथ बातचीत कर रहे हो लेकिन उनकी पार्टी के अंदर इसको लेकर असंतोष था। ऐसा नहीं होता तो अजीत पवार को विद्रोह करने का आधार नहीं मिलता। अजीत पवार को उस सरकार में भी अच्छी जगह मिलने वाली थी। अब यह कहना कि अजित पवार ने जिन विधायकों के दस्तखत राज्यपाल के सामने पेश किए वे झूठे या फर्जी है इसका पता तो विधानसभा में ही चलेगा। हां, शरद शरद पवार के सामने निश्चित रूप से संकट पैदा हुआ है। उनकी पुत्री सुप्रिया सुले ने कहा कि पार्टी और परिवार दोनों में विभाजन हो गया है। सामान्यतः कोई यह मानने को तैयार नहीं कि बगैर शरद पवार के किसी भी तरह की सहमति के अजित पवार ने सीधे विद्रोह कर दिया। जो खबरें मिल रही है उसके अनुसार अजीत पवार ने शिवसेना के साथ इस लंबी खींचतान पर नाखुशी प्रकट की थी। उन्होंने शरद पवार से अपनी मंशा भी व्यक्त की थी। जाहिर है, अजित पवार भी विधायकों एवं नेताओं से भाजपा के साथ जाने की विकल्प पर चर्चा करते रहे होंगे। राजनीति का उनका भी अपना अनुभव है। वह बिना आधार के इतना बड़ा जोखिम नहीं उठा सकते थे। साथ ही यह भी मानने का कोई कारण नहीं है कि सारा खेल कुछ घंटों में हो गया होगा। ऐसा नहीं हो सकता कि भाजपा और अजित पवार में रात में फोन पर बात हुई और सुबह राज्यपाल के यहां शपथ ग्रहण हो गया। निश्चय ही एक समानांतर बातचीत भाजपा और राकांपा के नेताओं के बीच चल रही थी। उसी की परिणति है देवेंद्र फडणवीस और अजीत पवार का शपथ ग्रहण।

इस पूरे प्रकरण से किस को सबसे ज्यादा क्षति हुई और किसके लिए अपनी साख को साबित करने का प्रश्न खड़ा हुआ इस पर विचार करें तो शिवसेना एवं शरद पवार सामने आते हैं शिवसेना के लिए अपने समर्थकों को यह समझा पाना हमेशा कठिन होगा कि वह कांग्रेस पार्टी के साथ जाने को क्यों तैयार हुई ? शिवसेना के अंदर इस बात को लेकर व्यापक मतभेद था कि हमें भाजपा का साथ छोड़ना चाहिए। लेकिन उद्धव ठाकरे ऐसे चापलूसों और जीहुजूरियों से घिरे हुए हैं जो उनको गलत सलाह और सूचना देते रहे और उसके आधार पर वे अपनी रणनीति बनाकर चलने लगे। आदित्य ठाकरे को मुख्यमंत्री बनाने की मृगतृष्णा पेश की गई जिसमें उद्धव ठाकरे उलझ गए। अब अगर 30 नवंबर को यह सरकार बहुमत पा लेती है तो शिवसेना के पास क्या विकल्प रहेगा ? उसके कुछ नेता यह प्रश्न तो उठाएंगे जब हमें बहुमत मिला था तो हम विपक्ष में क्यों है ? यह मानकर चलना चाहिए अगर बाजी नहीं पलटी जिसकी संभावना कम है तो संजय राउत सबके निशाने पर होंगे। संभव है शिवसेना आगे टूट जाए। इसी तरह पवार के सामने अपनी साख, पार्टी और अपना परिवार तीनों को बचाने की चुनौती पैदा हो गई है। उनको यह साबित करना है कि अजीत पवार के भाजपा के साथ जाने में मेरी कोई भूमिका नहीं है और यह आसान नहीं है। दूसरे, इस समय उनकी पार्टी में स्पष्ट फूट दिख रही है। कितनी संख्या में राकांपा विधायक अजीत पवार के साथ जाएंगे इसका पता 30 नवंबर को चलेगा। शरद पवार के लिए पार्टी को एक रखना इस समय कठिन है। इसी तरह वे जिस परिवार को साथ लेकर चलते रहे उस परिवार में एकता कायम हो इसके लिए भी उनको परिश्रम करना पड़ेगा। हालांकि शिवसेना और शरद पवार दोनों ने मुसीबतें स्वयं मोल लीं हैं। अगर शरद पवार संजय राउत को प्रोत्साहित नहीं करते तो ऐसी कुरुप स्थिति पैदा ही नहीं होती। तो जो कुछ हो रहा है और जो होगा उसके लिए शरद पवार स्वयं दोषी माने जाएंगे। साफ है कि राजनीतिक रूप से शिवसेना को बहुत बड़ी क्षति हो रही है। उसके समर्थकों में कांग्रेस व राकांपा के साथ जाने की सहमति नहीं हो सकती। भारतीय जनता पार्टी के साथ उसकी वैचारिक निकटता थी। अब आगे वह स्वयं को हिंदुत्व का पार्टी कैसे कह पाएगी यह प्रश्न शिवसेना के नेताओं के साथ खड़ा होगा। यह भी सच है कि शिवसेना ने जनादेश का अपमान किया। आप साथ लड़े, आपको बहुमत मिला था। अगर आपको अपने मुख्यमंत्री की शर्त रख दी थी तो चुनाव के पहले रखनी चाहिए थी। कहने की आवश्यकता नहीं कि उसकी विश्वसनीयता, साख और उसका नैतिक बल कमजोर हुआ है। हम भाजपा और राकांपा के एक धड़े के  गठबंधन को भी नैतिक नहीं मान सकते। दोनों पार्टियां अलग – अलग चुनाव लड़ी थी। लेकिन जो परिस्थितियां उत्पन्न हो गई थी और जब राजनीति में हम डाल – डाल तू पात – पात स्थिति हो तो ऐसा ही होगा। भाजपा से शिवसेना को अलग करने की कलाबाजियां जब सफल होतीं दिख रहीं थीं तो भाजपा को भी अपना राजनीतिक कौशल दिखाना था, उसने दिखा दिया। अब महाराष्ट्र के राजनीति आगे क्या मोड़ लेगी इसके लिए हमें प्रतीक्षा करनी चाहिए।

 

Leave a Reply