प्राणाया प्रयोग, उपयोग और सावधानियां

 

वन का राजा सिंह अत्यंत ही बलशाली, क्षिप्र और    भयानक होता है। वन का विशालतम प्राणी हाथी भी अतुल बलशाली होता है। किंतु हम आश्चर्य से अवाक् होकर देखते हैं, यही दोनों प्राणी सर्कस में रिंगमास्टर के इशारों पर नाचते हैं, जबकि रिंगमास्टर एक मनुष्य होने के नाते शक्ति के संदर्भ में इनकी तुलना में नगण्य होता है।

प्राणायाम की उपयोगिता को समझने के लिए हमें उपरोक्त संदर्भ को ध्यान में रखना चाहिए। सिंह और हाथी जैसी दो महाशक्तियों एवं अबाध्य और हिंसक प्राणियों को रिंगमास्टर जिस कौशल-विशेष से अपने वश में करके अपने इशारों पर नचाता है, योग के संदर्भ में कहा जा सकता है कि अपने शरीर, मन एवं मस्तिष्क की अबाध्य और चंचल प्रवृत्तियों को अपने वश में करके अपने संकेतों और इच्छाओं के पूर्ण नियंत्रण में लाने के यौगिक कौशल को ही प्राणायाम कहा जा सकता है।

इसे और भी स्पष्टता से समझने के लिए मान लें कि सिंह और हाथी जैसे महाशक्तिशाली, अबाध्य और चंचल पशुओं की ही तरह मनुष्य का ‘प्राण’ होता है, जो जीवन की आधारभूत शक्ति है। प्राण के बिना जीवन संभव नहीं। किंतु मुश्किल यह है कि प्राण मात्र एक संकल्पना ही है। प्राण ऑक्सीजन नहीं है, किंतु मजा यह है कि उसे निरंतर ऑक्सीजन की जरूरत पड़ती है। निष्प्राण शरीर को यदि भारी मात्रा में ऑक्सीजन दी जाए, तो भी उसमें प्राण नहीं लौटते। जब तक शरीर में होता है, प्राण को ऑक्सीजन की निरंतर जरूरत पड़ती है, किंतु एक बार शरीर से बाहर निकल जाए तो लाख ऑक्सीजन देने पर भी प्राण लौटता नहीं। यही प्राण की अद्भुत शक्ति है। फिर मुश्किल यह भी है कि यह शक्तिशाली प्राण मस्तिष्क सहित शरीर के समस्त अंगों के साथ ही एक और सांकल्पनिक तथा अमूर्त तत्व ‘मन’ पर अपना शक्तिशाली नियंत्रण रखता है। प्राण और मन दोनों ही अकूत शक्तिशाली हैं और दोनों ही चंचल हैं। इन दोनों शक्तियों पर यदि नियंत्रण पा लिया जाए, तो चमत्कार हो सकता है। प्राण पर नियंत्रण हो, तो मन पर भी नियंत्रण हो जाता है। प्राण की इस भारी क्षमता के कारण ही शायद प्रकृति ने इसे दुरुपयोग से बचाने के लिए श्वसन-प्रक्रिया अविवेकी मनुष्य को न सौंप कर उसके स्वायत्त नाड़ी-तंत्र को सौंपी है। योगियों ने मन की चंचलता पर विजय पाने और मन में किसी प्रकार का विकार नहीं होने देने के लिए मन के मालिक ‘प्राण’ को अपने नियंत्रण में लाने के उपाय के तौर पर यौगिक विज्ञान के सर्वाधिक महत्वपूर्ण अंग के रूप में ‘प्राणायाम’ का निरूपण किया है। प्राणायाम का कार्य शरीर में स्थित जीवन-शक्ति को उत्प्रेरित, नियंत्रित तथा संतुलित करना है। व्यासभाष्य के अनुसार प्राणायाम से बड़ा कोई तप नहीं है। यह शरीर को शुद्ध और ज्ञान को विशाल बनाता है।

 मनु के अनुसार-

 ‘दध्यंते ध्यायमानानां धातुनां हि यथा मला:

 तथेंद्रियाणां दध्यंते दोषा: प्राणस्य निग्रहात।’

अर्थात् जैसे सोना या अन्य कोई धातु अग्नि में तप कर शुद्ध हो जाते हैं, वैसे ही प्राणायाम शरीर के ज्ञानेंद्रियों की शुद्धि करता है।

आयाम का अर्थ नई-नई दिशाओं को विस्तार देना होता है। इस तरह प्राणायाम का अर्थ प्राणों की क्षमताओं को जहां एक ओर अकूत विस्तार देना होता है, वहीं दूसरी ओर प्राणों को नियंत्रित करके अपने निर्देशन में लाने का स्वतंत्र प्रयास भी होता है। प्राणायाम एक ओर जहां श्वसन-प्रक्रिया को नियंत्रित करता है, वहीं तंत्रिका-तंत्र और चेतना को भी उद्बुद्ध करता है। प्राण का अर्थ जैविक चेतना, मानसिक-ऊर्जा और तंत्र तथा नाड़ियों की शक्ति है। आयाम का अर्थ विस्तार, व्याप्ति के साथ ही नियंत्रण भी है। आयुर्वेद के अनुसार श्वसन-तंत्र पर नियंत्रण ही प्राणायाम है। निश्वसन तथा उच्छ्वसन का सचेतन अवस्था में विस्तार करना ही प्राणायाम है।

 प्राणायाम के तीन अंग हैं-

 १. पूरक : (निश्वसन यानी श्वास को भीतर लेना)

 २. कुंभक : (श्वास रोकना)

 ३. रेचक : (उच्छ्वसन यानी श्वास को बाहर छोड़ना)

अभ्यास के माध्यम से इन तीनों ही प्रक्रियाओं को धीरे-धीरे अधिक समय तक बढ़ाने की कोशिश करनी चाहिए, यानी लंबे समय तक सांस खींचना, लंबे समय तक सांस को भीतर रोके रखना और लंबे समय तक, जब तक फेफड़े पूरी तरह खाली न हो जाएं, सांस छोड़ना।

यदि हम दिन में पांच मिनट भी प्राणायाम के द्वारा सांसों को प्रलंबित करते हैं, तो अपने जीवन की अवधि बढ़ा लेते हैं। प्रकृति ने जगत के सभी प्राणियों को समान संख्या में सांसें दी हैं। जो जितनी लंबी अर्थात् धीमी गति से सांस लेगा, वह दिनभर में उतनी ही कम संख्या में सांस लेगा। यानी सांसों के अपने खजाने को उतना ही कम खर्च करेगा और उतना ही लंबा तथा स्वस्थ जीवन जी पाएगा। इसके कुछ प्रत्यक्ष उदाहरण हमारे सामने हैं। खरगोश एक मिनट में ३० से ६० बार सांस लेता है और मात्र ७ से १२ वर्ष तक ही जी पाता है। मनुष्य एक मिनट में १२ से १६ बार सांस लेता है और साधारणत: ८० से ९० वर्ष तक ही जी पाता है। हाथी एक मिनट में ८ से १२ बार सांस लेता है और १०० से १२० वर्ष तक जी लेता है। वहीं कछुआ एक मिनट में सिर्फ १ से ३ बार ही सांस लेता है, फलत: उसकी आयु १९३ वर्ष की होती है। कोलकाता के चिड़ियाघर का विराट कछुआ तो २२० वर्ष की लंबी आयु जीया।

दीर्घ आयु का कारण लंबी सांस की वजह से जहां सांसों का कम खर्च होना है, वहीं ज्यादा समय तक ज्यादा मात्रा में शरीर के भीतर ऑक्सीजन का पहुंचना और रुके रहना भी है। ज्यादा समय तक ज्यादा ऑक्सीजन यानी रक्त का समुचित संचार और परिष्करण। रक्त की शुद्धता। अधिक ऊर्जा।

 सावधानियां

प्राणायाम कोई खेल नहीं है। यह सहज नहीं। इसे अत्यंत ही गंभीरतापूर्वक लेना चाहिए। विद्वानों ने कहा है कि योग्य गुरु के पास सही तरीके से सीखे बिना प्राणायाम नहीं करना चाहिए। गलत तरीके से प्राणायाम करने पर लाभ तो होगा ही नहीं, बल्कि नुकसान होने का ही डर रहता है।

 आग से खेलने के समान

नाड़ी-तंत्र के स्वैच्छिक, अर्द्धस्वैच्छिक और अस्वैच्छिक भाग हमारी श्वसन-प्रक्रिया को नियंत्रित करते हैं। अत: श्वसन-प्रक्रिया चेतन-मन को उसके अवचेतन, अर्द्धचेतन और अचेतन को जोड़ने वाला सेतु है। यह प्रक्रिया हमारी सजग जानकारी या नियंत्रण के बिना भी सतत चलती रहती है। यहां तक कि शरीर की आवश्यकताओं के अनुसार श्वसन-प्रक्रिया में होते रहने वाले परिवर्तन भी हमारी जानकारी के ही होते हैं। सांस लेने में कोई कठिनाई नहीं होते तक हमारा ध्यान इस जीवनदायिनी प्रक्रिया की ओर नहीं जाता। किंतु हठयोग में प्राणायाम के अभ्यास द्वारा सांसों को नियंत्रित करने का सोचा-समझा प्रयास किया जाता है। प्राणायाम के माध्यम से सासों पर नियंत्रण पाना एक सूक्ष्म प्रक्रिया है। प्राणायाम के अभ्यास से साधक को सम्यक स्वास्थ्य का लाभ होता है और वह किसी भी रोग से मुक्त हो सकता है। किंतु प्राणायाम के अनुचित और गलत अभ्यास से साधक अनेक प्रकार के रोगों का शिकार भी हो सकता है।

प्राणायाम जहां अत्यधिक लाभप्रद है, वहीं उचित तरीके से उसका अभ्यास न किए जाने से वह खतरनाक भी सिद्ध हो सकता है। चूंकि प्राणायाम मस्तिष्क में स्थित श्वसन-केंद्र अर्थात स्वायत नाड़ी-तंत्र से गहराई से जुड़ा है, अत: प्राणायाम का अभ्यास आग से खेलने के समान है। इसे करने में मामूली-सी भी चूक घातक हो सकती है।

प्राणायाम में कुंभक को अत्यधिक महत्व दिया गया है। उत्तरकालीन यौगिक साहित्य में तो प्राणायाम को कुंभक ही कहा गया है। ‘हठप्रदीपिका’ में भी कुंभक को ही प्राणायाम माना गया है। कुछ उपनिषदों में कुंभक को प्राणायाम का पर्यायवाची माना गया है।

प्राणायाम का अभ्यास आरंभ करने के पश्चात कम से कम तीन महीनों तक कुंभक का प्रयोग नहीं करना चाहिए, क्योंकि अचानक कुंभक करने से शरीर के निष्क्रिय पड़े वायुकोष्ठकों पर अनावश्यक दबाव का निर्माण हो सकता है। चूंकि ये वायुकोष्ठक वर्षों से निष्क्रिय पड़े होते हैं, इसलिए इनका लचीलापन कम हो जाता है। अत: दीर्घ निश्वसन द्वारा अधिक मात्रा में फेफड़ों में पहुंची वायु यदि अधिक समय तक रुकी रहे, तो वायुकोष्ठक फट भी सकते हैं। इसलिए तीन महीनों तक सिर्फ पूरक और रेचक प्राणायाम का ही अभ्यास करके वायुकोष्ठकों को विस्फारण और आकुंचन के माध्यम से लचीला और सुदृढ़ बनाने के बाद ही कुंभक की ओर बढ़ना चाहिए। योग की प्रामाणिक पुस्तकों में पूरक, कुंभक और रेचक का समयानुपात १:४:२ दिया गया है। शुरु में १:१:२, फिर कुछ दिनों बाद १:२:२ और क्रमश: १:४:२ तक पहुंचना ही श्रेयस्कर है। इस अनुपात को सही रखने के लिए गिनती का सहारा लिया जा सकता है। पूरक को १६ तक बढ़ाया जा सकता है। अच्छे और लंबे अभ्यास के बाद १६:६४:३२ के अनुपात में प्राणायाम किया जा सकता है।

 मृत्युंजयी

हठयोगियों के अनुसार यदि कोई व्यक्ति कुंभक के समय को १०० दिनों तक बढ़ा पाए तो वह मृत्युंजयी हो सकता है। अमरत्व को प्राप्त कर सकता है। पॉल ब्रॉन्टन ने अपनी पुस्तक में इसका उल्लेख करते हुए लिखा है कि इस संदर्भ में हठयोगी जो तर्क देते हैं, वे अकाट्य हैं। हठयोगी कहते हैं कि जब ध्रुवीय भालू, मेंढक और चमगादड़ बिना भोजन, पानी के और बिना सांस लिए भी छह-छह महीनों के लिए शीतनिद्रा में जाकर पुन: जाग कर जीवन बिताने में सक्षम हैं, तो मानव भी हठयोग द्वारा कुंंभक को बढ़ाकर श्वास-प्रश्वास रोक कर शरीर पर पूर्ण नियंत्रण प्राप्त करके चिरंजीवी हो सकता है। कारण यह है कि प्राणायाम के माध्यम से मनोवैज्ञानिक एवं मनोशारीरिक विश्रांति पाकर उस विश्रांति का विकास भी बहुत अधिक अवधि तक के लिए किया जा सकता है।

योग के अनुसार मानव शरीर में ७२,००० नाड़ियां हैं। इनमें से ७२ नाड़ियां महत्वपूर्ण हैं, इनमें भी दस नाड़ियां विशेष महत्व की हैं और इन दसों में भी तीन नाड़ियां सर्वाधिक महत्व की हैं। ये हैं- इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना। इड़ा बायें नासाछिद्र से आरंभ होती है, जबकि पिंगला दायें नासाछिद्र से, और सुषुम्ना नाड़ी दोनों नासाछिद्र जहां मिलते हैं, वहां से प्रारंभ होती है। प्राणायाम के माध्यम से हम इन तीनों नाड़ियों पर नियंत्रण पाकर श्वास और रक्त की गति को अपने वश में कर सकते हैं, और दोनों की गति को इच्छानुसार प्रलंबित यानी धीमी करके दीर्घायु प्राप्त कर सकते हैं।

प्राणायाम के गहन अभ्यास से राजयोग अर्थात् अंतरंग योग की प्राप्ति हो सकती है। प्राणायाम के आठ प्रकार होते हैं : १. सूर्यभेदन, २. उज्जायी, ३. सीतकारी, ४. शीतली, ५. भस्रिका, ६. भ्रामरी, ७. मूर्च्छा और ८. प्लाविनी। इनके अलावा उज्जयी प्राणायम (१. लेटकर, २. खडे होकर) के अंतर्गत एकपादासन, तारासन, उष्ट्रासन, ताड़ासन, सिंहासन, मत्स्यासन और सर्वांगासन के साथ कुछ विशिष्ट योगमुद्राएं भी हैं।

प्राणायाम के साथ मूलबंध, जालंधरबंध, जिह्वाबंध और उड्डियानबंध आदि बंध करना भी अनिवार्य है।

 

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