विपश्यना, योग और मेरा अनुभव

सन १९९५ मैं अपने जीवन के अत्यंत कठिन दौर से गुजर रहा था। मेरी इंजनियरिंग की डिग्री, पारिवारिक पृष्ठभूमि, २० वर्ष की भ्रष्टाचारमुक्त नौकरी इत्यादि कुछ भी मेरे काम का नहीं था। इस निराशा और अंधकारयुक्त जीवन के बीच मुझे मेरी बहिन ने आशा की किरण दिखाई। उसने मुझे इगतपुरी स्थित विपश्यना केन्द्र में जाने का सुझाव दिया। उसने वहां के कुछ लोगों के अनुभव बताये, जिन्हें सुनकर मैंने वहां जाने का निश्चय किया।

इगतपुरी के विपश्यना केन्द्र में पहुंचने पर मेरा जो आदरातिथ्य हुआ, जो जानकारी प्रदान की गयी उससे मेरा मन थोडा प्रसन्न हुआ। मैंने उन्हें विपश्यना शिविर में शामिल करने का आग्रह किया। उन्होंने मुझसे कहा कि शिविर चार दिन बाद शुरू होनेवाला है, आप तभी पधारें। अपनी परिस्थिति से मैं इतना त्रस्त था कि मैं चार दिन के लिये भी कहीं और जाना नहीं चाहता था। अत: मैंने उनसे निवेदन किया कि मुझे चार दिन यहीं रहने दिया जाये। यहां रहने के लिये मैं कुछ भी करने को तैयार हूं। यहां तक कि शौचालय की सफाई भी। उन्होंने मुझसे कहा कि आपके पास लौकिक जीवन की चाहे कितनी भी बडी डिग्रियां हों परंतु आप यहां शौचालय साफ करने के लिये भी अयोग्य हैं। यहां का प्रत्येक सेवक भी दस दिन के विपश्यना शिविर को पूर्ण करके ही अपनी सेवायें देना प्रारंभ करता है। निराश होकर मैं वापिस लौटा और चार दिन के बाद फिर से केन्द्र में पहुंचा।

सभी शिविरार्थियों को वहां के नियम, रहने की व्यवस्था तथा अन्य निर्देश दिये गये। नीरव शांतता वहां की सबसे बडी विशेषता थी। सारे क्रियाकलाप बिना बोले होते थे। सुबह चार बजे से वहां की दिनचर्या शुरू होती थी। साधकों को पहले ही बैठने हेतु आसन इत्यादि वितरित किये जा चुके थे। जिसका उपयोग ध्यान के समय करना होता था। प्रत्येक एक घंटे के बाद शिक्षकों द्वारा या गोयंका गुरुजी की सीडी के द्वारा मार्गदर्शन दिया जाता था।

मैंने अभी तक विपश्यना के १० दिन के ४ शिविरों, ३ दिन के एक और १ दिन के एक शिविर में भाग लिया है। शिविर में साधना के दौरान मुझे मौन रहना उतना कठिन नहीं लगा, जितना जमीन पर घंटों तक पालथी मारकर बैठना लगा। ध्यान के कारण मिला अनुभव जितना उच्च था उतनी ही उच्च पैरों की वेदना भी थी। घर वापिस आते समय यह वेदना और अनुभव दोनों ही मेरे साथ था। मेरी नींद मर्यादित हो गयी थी। सकारात्मक ऊर्जा का संचार हो रहा था और दैनंदिन जीवन में भी अचंभित करनेवाले अनुभव सामने आ रहे थे। इन अनुभवों को लोगों के साथ बांटने और स्मरण करने में २-३ साल गुजर गये।

सन १९९८ में मैंने पुन: १० दिन के शिविर में भाग लिया। इस शिविर के बाद यह तय कर लिया था कि शिविर में कभी नहीं आऊंगा क्योंकि पैरों की वेदना असहनीय थी। ऐसा लगता था मानों कोई हथौडे से आघात कर रहा हो। परंतु फादर पीटर डिसूजा और निखिल मेहता जैसे विपश्यना शिक्षकों के संपर्क और आग्रह के कारण मैं फिर एक बार पुणे के विपश्यना शिविर में सहभागी हुआ। इस तीसरे शिविर ने मुझे मेरे अंदर के अहंकार के दर्शन कराये साथ ही इस बात का भी संज्ञान कराया कि पैसे के प्रति मेरे मन में कितनी आसक्ति है। मैं जितने अधिक शिविर कर रहा था, शिक्षकों के उतने ही करीब पहुंच रहा था। परंतु पैरों का दर्द मेरा पीछा नहीं छोड रहा था। शिक्षकों ने मुझे समझाया कि यह दर्द भी आपके अहंकार का ही एक भाग है। धीरे-धीरे मुझे जीवन की पहेलियों का अर्थ समझने लगा।

एक ओर शारीरिक वेदना मुझे विपश्यना शिविर में जाने से रोकती थी और दूसरी ओर वहां मिला ज्ञान और अनुभव सदैव मुझे बुलाता था। इस तरह से विपश्यना से मेरा प्रेम और तिरस्कार का संबंध बन रहा था। मैं वेदनामुक्त ज्ञान की तलाश में भटक रहा था। तब सन २०१२ में मुझे ‘योग विद्या निकेतन’ की जानकारी मिली। मैंने वहां २ साल तक योग शिक्षक तथा योग थेरेपिस्ट का डिप्लोमा किया। एक साल तक योग शिक्षक के रूप में कार्य भी किया। मेरे जीवन के अधिकांश प्रश्नों के उत्तर मुझे यहां मिल गये।

अनेक वर्षों तक विपश्यना की साधना करके, उसके साथ प्रेम-तिरस्कार का संबंध निर्माण हो चुका था। प्रेम का इसलिये क्योंकि उसमें आत्मशोधन की ताकत थी और तिरस्कार क्योंकि असहनीय शारीरिक वेदना थी। इस भूमिका के साथ जब मैं खोज शुरू की तो योग में मुझे सारे उत्तर प्राप्त हुए। जब तक साधक यम, नियम, आसन, प्राणायाम आदि प्रक्रिया से नहीं गुजरता तब तक प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधी में स्वयं को धकेलना साधक के लिए कष्टप्रद होगा। यही योग की सीख है और मेरा अनुभव भी।

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