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श्रीमद्भगवद्गीता का योगशास्त्र

श्रीमद्भगवद्गीता का योगशास्त्र

by वंदना वर्णेकर
in जून २०१५, स्वास्थ्य
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संयुक्त राष्ट्रसंघ (यूनो) की ओर से इस वर्ष से २१ जून अंतरराष्ट्रीय ‘योगदिन’ के रूप में मनाने का अभूतपूर्व निर्णय घोषित हुआ। इसी उपलक्ष्य में भगवान के मुखारविंद से प्रवाहित श्रीमद्भगवद्गीता रूपी योगशास्त्र में आए ‘योग’शब्द का मंथन करने का यह प्रयास है।

यद्यपि ‘‘श्रीमद्भगवद्गीता’’ में जो योगशास्त्र आया है उसकी गहराई को समझना अत्यंत कठिन है, फिर भी इस ‘योग’को जानने के लिए एक महत्वपूर्ण प्रसंग को ध्यान में लाना होगा। महाभारत के अश्वमेधिक पर्व में एक प्रसंग आया है- युद्ध के बाद अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण से प्रार्थना की, कि युद्ध के समय गीता के माध्यम से उन्होंने जो उपदेश किया था उसकी उन्हें अब विस्मृति हुई है। अत: वे फिर से दुबारा सुनना चाहते हैं। इस पर श्रीकृष्ण ने असमर्थता व्यक्त करते हुए कहा –

 ‘‘न शक्यं तन्मया भूयस्तथा वक्तु मषेशत:।

 परं हि ब्रह्म कथितं योग युक्तेन तन्मया ॥

(महा/अश्वमेधिकपर्व/अनुगीता/अध्याय १६)

अर्थात वह उपदेश, उसी रूप में दोहराना मेरे वश में नहीं; क्योंकि उस समय, योगयुक्त होकर मैंने उस ब्रह्मविद्या का वर्णन किया था। ‘योग’ इस शब्द का सरल अर्थ है जुड़ना। गीता के वक्ता ‘श्रीकृष्ण’ जो परमात्मा के पूर्णावतार हैं, वह भी उस दिव्य उपदेश को ‘गीता’ के रूप में तभी कह सके, जब वे स्वयं, अंतरंग से, सृष्टि के नियामक परमात्मा के साथ एकाकार हुए। यानी योग शब्द का व्यावहारिक अर्थ हुआ – एकाकारिता, एकाग्रता, लयबद्धता, तालबद्धता, तन्मयता।

तो वास्तविक रूप से इस शब्द की ओर देखें तो यह ‘योग’हमारे जीवन में बाल्यकाल से ही प्रविष्ट है।

एक बालक एकाग्रता के साथ खेल खेलता है; नृत्यांगना अपनी भूमिका से एकरूप होकर नृत्य करती है, गायक तन्मयता से संगीत की आराधना करता है; एक शास्त्रज्ञ एकाकार होकर तत्वों को खोजता है; देशप्रेमी मातृभूमि के साथ लयबद्ध होकर देश सेवा करता है। यानी जीवन के किसी भी लक्ष्य को पाना है, ध्येय की ओर अग्रसर होना है या अंतिम गंतव्य को प्राप्त करना है तो उसके साथ ‘योगयुक्त’ होना पड़ता है।

यह ‘योग’ अर्थात जुड़ने की कला हमारे अंदर भगवान की देेन ही है। इस योग के बिना जीवन के अनुपम तत्वों की, कलाओं की, प्रेम की, शास्त्र संशोधन की, सौंदर्य की अनुभूति पाना, और माध्यम बन उन्हें प्रकट करना असंभव है। ‘योग’ के कारण ही मनुष्य के द्वारा सृष्टि के अद्भुत कार्य सम्पन्न हो रहे हैं।

अर्थात बाल्यकाल से हर व्यक्ति अपनी क्षमता के अनुसार योग कला प्रकट करता है। क्षमता को विकसित करना योग का अभ्यास है। यह योग-युक्तता कर्म से तादात्म्य या अनुसंधान की प्रक्रिया है।

गीता में भगवान इस योग के अनेक रंग प्रकट करते हैं। जैसे- भक्तियोग, ज्ञानयोग, ध्यानयोग, संन्यासयोग, कर्मयोग आदि। यह प्रत्येक योग एक दूसरे से जुड़ी पुष्प की पंखुड़ियों के समान है। एक पंखुड़ी को दूसरी से विलग किया तो पुष्प का सौंदर्य ही नष्ट हो जाएगा।

जिस प्रकार एक कलाकार या वैज्ञानिक का, अपने विषय से भावना के साथ जुड़ना यानी भक्ति-योग हुआ, उस विषय का ज्ञान पाना ‘ज्ञानयोग’, संसार के बाकी विषय छोड़ उसी का चिंतन करना ‘ध्यानयोग’, उसके लिए संसारिक मोह का त्याग हुआ संन्यास योग, और निरंतर उसके लिए प्रयास, अभ्यास या कृति करना कर्मयोग है। यानी ध्येय या लक्ष्य के साथ जुड़ने के लिए की गई हर प्रक्रिया योग ही है।

यह प्रक्रिया ठीक तरह से सम्पन्न हो इसके लिए प्रकृति ने मनुष्य को जो उपकरण दिए हैं उनका नाम है मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, ज्ञानेंद्रिय और कर्मेंद्रिय।

शरीर-कर्म, मन-भावना, बुद्धि-निर्णय, इस प्रकार एक दूसरे पर निर्भर-शरीर-मन और बुद्धि में तादात्म्य लाने की सारी क्रिया ‘योगासन’ कहलाती है।

गीता को जिस योग की अपेक्षा है उसके लिए इन तीनों का लयबद्ध होना अत्यावश्यक है। यानी सारी योग प्रक्रिया में योगासन अत्यंत महत्वपूर्ण अंग है। किंतु गीता का योग सिर्फ योगासन, प्राणायाम तक सीमित नहीं है। गीता को उससे भी दिव्य योग की अपेक्षा है।

जीवन पथ पर चलते-चलते, अपनी प्रकृति के अनुसार विहित कर्मों का चयन करके, उच्च लक्ष्य को पाने के लिए, ये सारे योग अपनाते हुए चलते रहना, किन्तु अपने अंतिम गंतव्य यानी स्वरूप को जानने के लिए उस सृष्टि के नियंता के साथ जुड़ते रहना, उसके अनुसंधान में, उसके साथ योगमय होकर सारे व्यवहार करना, यही परम योग गीता को अपेक्षित है।

 सर्व कर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्व्यपाश्र्रय:।

 मत्प्रसादादवाप्नेति शाश्वतं पदमव्ययम् ॥गी १८.५६॥

(मेरे आश्रय से रहनेवाला कर्मयोगी सारे कर्म करते हुए भी मेरी कृपा से शाश्वत परम पद प्राप्त करता है)

अंतरराष्ट्रीय योगदिन मनाते समय गीता के इस उपदेश को ध्यान में रखते हुए, सिर्फ आसन-प्राणायाम तक ही योग को सीमित न करते हुए, उस दिन, हर व्यवहार परमात्मा के आलोक में, सृष्टि के कल्याण के लिए करने की चेष्टा करनी होगी। कल्पना कीजिएगा, उस दिन दुनिया के अनेक देशों की योग प्रेमी सज्जन शक्ति, उस ईशतत्व के साथ एकाकार हो जाए, तो कितने हृदय, मन, बुद्धि एकसाथ स्पंदित होंगे। कितने मन के सद्विचार, विवेक युक्त बुद्धि के तत्व, हृदय की सद्भावनाएं समत्व में प्रस्थापित होगी। सारी सृष्टि अपूर्व योग में स्थित विश्वचालक से तालबद्ध होगी।

इस योग से, जुड़ने की प्रक्रिया के निरंतर अभ्यास से, विभिन्न देशों में खड़ी संकुचितता की दीवारें ध्वस्त होकर, ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ की अनुपम कल्पना का साकार होना ही योगदिन की अनुपम उपलब्धि होग़ी।

 

वंदना वर्णेकर

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