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योग : आत्म परिवर्तन का विज्ञान

योग : आत्म परिवर्तन का विज्ञान

by अमोल पेडणेकर
in जून २०१५, सामाजिक
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सुख-सुविधाओं तथा भागदौड़ भरी आज की जिंदगी में हम अपनी मानसिक शक्ति और शारीरिक शक्ति से लगभग ३ गुना अधिक परिश्रम करके खुद को निचोड़ रहे हैं। आधुनिकता और प्रतियोगिता के युग में हम स्वयं को अधिक स्वतंत्रता देने का दावा जरूर कर रहे हैं, परंतु स्वतंत्र होने के बजाय अधिक तनावग्रस्त हो रहे हैं। ऐसे अनेक लोग हैं जिन्हें जिंदगी में हर तरह के ऐशोआराम मिल रहे हैं परंतु फिर भी वे असंतुष्ट हैं। ऐसा क्यों? धन, पद, ऐश्वर्य इत्यादि जीवन में आनंद क्यों नहीं दे पाते? कहीं ऐसा तो नहीं कि हम जीवन में आनंद की स्थिति को ही समझ नहीं पा रहे हैं।

प्रकृति का एक नियम है। जब मन में गुस्सा, द्वेष, बुरी भावना होती है तो उसका पहला शिकार हम खुद ही होते हैं। हम पहले खुद की हानि करते हैं फिर दूसरे की हानि करते हैं। तनावग्रस्त, द्वेषपूर्ण व्यक्ति व्याकुल होता है। वह व्यक्ति अपनी व्याकुलता केवल अपने आप तक ही सीमित नहीं रखता वरन उसे दूसरों तक भी पहुंचाता है। हमारे मन के आनंदित और प्रसन्न रहने पर भी प्रकृति का यही नियम लागू होता है। पहले स्वयं व्यक्ति और फिर सारा समाज शांति का अनुभव करने लगता है।

पुरातन भारत ने विश्व की सम्पूर्ण मानव जाति को शांति और सामंजस्य का संदेश दिया है। केवल संदेश ही नहीं उस शांति और सामंजस्य को जीवन में उतारने का मार्ग भी बताया है, उसकी विधि भी बताई है। उस विधि को ही ‘योग’ कहते हैं। मानव समाज में अगर सचमुच शांति की स्थापना करनी है तो व्यक्ति को महत्व देना होगा। अगर व्यक्ति के मन में शांति नहीं है तो विश्व में शांति कैसे होगी?अगर व्यक्ति का मन व्याकुल है, हमेशा गुस्से और द्वेष से भरा रहता है तो वह व्यक्ति दुनिया को शांति कैसे प्रदान कर सकेगा? अशांत व्यक्ति ऐसा कर ही नहीं सकता; क्योंकि वह भी विश्व का एक भाग है। इसलिए ही संत महात्माओं ने कहा है, ‘शांति अपने भीतर ढूंढिए’। हमें अपने अंतर्मन का निरीक्षण करने की आवश्यकता है कि क्या हम सचमुच शांत हैं? सारी दुनिया के संतों महात्माओं ने यही कहा है कि ‘स्वयं को पहचानो’ अर्थात ‘योग’ करो।

कुछ समस्याएं बहुत दूर की होती हैं। कुछ लोग इन समस्याओं पर अपना समय बर्बाद करते रहते हैं। वे मनुष्य की क्षमता से परे होती हैं। अत: हम जहां हैं वहीं से शुरू करना अधिक अच्छा होता है। ‘योग’ यही सिखाता है कि दूर की समस्याओं के बजाय अपने अंतर्मन की समस्याओं की ओर देखो। जीवन के संदर्भ में योग का दृष्टिकोण यही है। योग दूर की समस्याओं की चिंता करना नहीं सिखाता। पिछला जन्म, पुनर्जन्म, स्वर्ग-नर्क इत्यादि बातों को ‘योग में स्थान नहीं है। योग का संबंध व्यक्ति के नजदीक के प्रश्नों से हैं अत: ‘स्वकेन्द्र’ सेे है। अगर व्यक्ति अपने आसपास की समस्याओं को समझ सका तो उनके हल भी ढूंढ सकेगा। व्यक्ति के द्वारा इन प्रश्नों का हल ढूंढना संतोष प्राप्ति की दिशा में उसका पहला कदम होगा। फिर दूर की समस्याओं को सुलझाना भी आसान होगा। दूर देखने से पहले अपने अंतर्मन में झांक कर देखें। वर्तमान के प्रति जागरूक रहें। अंतर्मन में प्रश्न निर्माण करके स्वत: के करीब जाए। हमारे अंतर्मन के प्रश्न ही हमें दूर के प्रश्नों के उत्तरों तक ले जाएंगे। यही योग प्रक्रिया है।

‘योग’ अनुभवों पर आधारित एक विज्ञान है। योग कहता है कि ‘जब तक आप उस तत्व को नहीं समझते जो आपके अंदर निहित है, आपके बिलकुल नजदीक है, तब तक आप उससे उत्पन्न समस्याओं को भी नहीं समझ सकते।’ अगर व्यक्ति खुद को नहीं समझ सकता तो अन्य बातों को समझना केवल भ्रम होगा।

‘योग’ का संबंध जागृति और चेतना से है। ‘योग’ के माध्यम से मन को जागृत और चैतन्य किया जा सकता है। मन को जागृत करके चैतन्य से जोड़ने की कला ही योग सिखाता है। जो हम अभी नहीं है परंतु हो सकते हैं इनके बीच का अंतर समझने का विज्ञान ही योग है। सीधी सरल भाषा में कहें तो स्वयं को समझने का विज्ञान ही योग है। जब मानव को ‘मैं कौन हूं’ इसका उत्तर मिल जाता है तो उसके जीवन में परिवर्तन आने लगता है। वह संसार में रहता है, परंतु संसार उसको भ्रमित नहीं करता; क्योंकि उसे अपने स्वभाव की झलक मिल चुकी होती है।

सामान्यत: मानव के मन में विचारों का आना-जाना लगा ही रहता है। अनेक विचारों की उत्तेजित भीड़ के बीच वह फंसा होता है। जितने अधिक विचार होते हैं उतनी दिशाओं में मानव का मन भागता रहता है। हर विचार उसे अपनी खींचता है। जब मन बेचैन होता है उसमें दुख, पीड़ा और नाराजगी के अलावा और कुछ नहीं होता। ऐसे में ‘मैं कौन हूं’ इसकी अनुभूति नहीं होती। मानव मन के द्वारा कई बार विक्षिप्तता की सीमा भी लांघ दी जाती है। इस अशांत मन के व्यक्ति का जब किसी पागल से सामना होता है तो उसे ऐसा लगता है कि वह भी इसी की तरह है।

मनष्यों की इसी विक्षिप्तता के कारण बाहर ढूंढे जाते हैं। यह पूरी तरह से गलत है; क्योंकि जो कारण बाहर ढूंढे जा रहे हैं वे आंतरिक हैं। मनुष्य के अंतरमन में हैं। इसका मुख्य कारण यह है कि मानव विचारों की भीड़ के प्रति जागृत नहीं है। मानव उन विचारों से एकरूप हो जाता है। वह विचारों को अलग-अलग नहीं करता। वह विचारों को दूर से तटस्थ भाव से, किसी गवाह के रूप में जागृत होकर नहीं देख सकता। जब इस अवस्था का कारण गलत दिशा में ढूंढा जाता है तो उसका कोई परिणाम नहीं निकलता। इन सभी का कारण अंतर्मन में है। मानव उदास है; क्योंकि वह उदासी के प्रति सचेत नहीं है। मानव अप्रसन्न है; क्योंकि वह अप्रसन्नता के संदर्भ में जागृत नहीं है। मानव दुःखी है; क्योंकि वह नहीं जानता कि ‘मैं कौन हूं’। अंतर्मन में झांकने पर यह पता चलता है कि इंसान दुःखी है; क्योंकि वह स्वयं से कभी मिलता ही नहीं है। वह स्वयं को टालने का प्रयत्न करता रहता है। मन में कई बातें समा चुकी हैं। हमारा मन किसी भीड़ वाली जगह की तरह हो गया है। इन सभी बातों को एक-एक करके अलग करना, उसे अपने पास लाना और किसी एक विचार पर स्थिर करना ही योग है। एकाग्रता साधना ही योग है।

एकाग्रता का अर्थ है हमारे मन को किसी एक जगह पर केंद्रित करना। मान लीजिये हम किसी गुलाब के फूल पर ध्यान केंद्रित करते हैं तो वह गुलाब का फूल ही हमारे लिए पूरा विश्व बन जाता है। मन के सारे विचार उस फूल पर केंद्रित हो जाते हैं। वह गुलाब का फूल ही हमारे लिए ‘सब कुछ’ हो जाता है। फिर हमें उस गुलाब के विभिन्न गुणों का परिचय होने लगता है। उसमें अनेक रंग दिखाई देने लगते हैं जो हमने पहले कभी नहीं देखे होते हैं। उसमें से ऐसी खुशबू आती है जिसका अनुभव हमने पहले नहीं किया है। मन की चेतना जागृत होने पर सब कुछ बदल जाता है। सारा विश्व परे रह जाता है और वह गुलाब ही विश्व बन जाता है।

 

मन की यह एकाग्रता हमारे सामने उन बातों को प्रस्तुत करती है, जो हमें साधारणत: दिखाई नहीं देती। मनुष्य सामान्यत: अधूरा जीवन जीता है। ऐसे जीते हैं मानो सोये हुए हों। दृष्टि होती है पर देखते नहीं। सुनाई देता है पर सुनते नहीं। परंतु एकाग्रता ऊर्जा का संचार करती है। अपने मन से एकाग्र होने की यह प्रक्रिया ही योग है। योग आत्मप्रयास है। योग में व्यक्ति को स्वयं ही स्वयं पर कार्य करना होता है। कोई पंडित पुजारी यह काम नहीं कर सकता। योग में पंडित पुजारी हैं भी नहीं। योग के पास ऐसे महात्मा हैं जिन्होंने स्वयं के प्रयत्नों से योग को साधा है। स्वयं के प्रयासों से बुद्धत्व को प्राप्त किया है। यही योग का चमत्कार है। योग विचार नहीं व्यवहार है। जीवन में नित्य आचरण में आनेवाला व्यवहार है। अभ्यास है, अनुशासन है। योग आंतरिक परिवर्तन का विज्ञान है।

अमोल पेडणेकर

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