हिंदी विवेक
  • Login
  • परिचय
  • संपादकीय
  • पूर्वांक
  • ग्रंथ
  • पुस्तक
  • संघ
  • देश-विदेश
  • पर्यावरण
  • संपर्क
  • पंजीकरण
No Result
View All Result
  • परिचय
  • संपादकीय
  • पूर्वांक
  • ग्रंथ
  • पुस्तक
  • संघ
  • देश-विदेश
  • पर्यावरण
  • संपर्क
  • पंजीकरण
No Result
View All Result
हिंदी विवेक
No Result
View All Result
ब्रह्मनिष्ठा की साधना का मार्ग

ब्रह्मनिष्ठा की साधना का मार्ग

by कैलाशचंद्र पंत
in जून २०१५, सामाजिक
0

इस संसार में मनुष्य सर्वाधिक विवेकशील प्राणी है। क्योंकि उसे बुद्धि के साथ ही विवेक भी दिया गया है और वह निरंतर संसार के संबंध में और स्वयं अपने संबंध में भी चिंतन करता है। अन्य प्राणी केवल अपने बारे में, अपनी सुरक्षा, अपने भोजन और अपने विश्राम के बारे में सोचते हैं। हां! वे अपनी संतान की रक्षा के लिए भी तत्पर दिखाई देते हैं। इससे ज्यादा बड़ा दायरा उनका नहीं होता। इसीलिए संसार में मनुष्य की श्रेष्ठता स्थापित हुई।

मनुष्य की श्रेष्ठता इस बात पर निर्भर नहीं है कि वह अपने लिए रोटी, कपड़ा और मकान प्राप्त करने की युक्ति कर लेता है, बल्कि उसकी श्रेष्ठता के पैमाने अलग हैं। मनुष्य ही सोच सका कि यह संसार क्या है? इस सृष्टि का रहस्य क्या है? इस सृष्टि से परे कौन सा तत्व है जो रचना करता है, पालन करता है और अंत करता है। मनुष्य ने ही इस रहस्य को खोजने का प्रयास किया कि मृत्यु के बाद वह कहां जाता है? इसे खोजते हुए उसके सामने प्रश्न खड़ा हुआ कि क्या यह जगत सत्य है या मिथ्या है। इन प्रश्नों को खोजने के लिए जिस प्रणाली का उपयोग किया उसे ही सामान्य रूप से अध्यात्म कहा जाता है। दूसरे शब्दों में यह मनुष्य की अन्तर्यात्रा का विज्ञान है जो भारतीय ॠषियों की अद्भुत और दिव्य खोज है। क्योंकि इसी अन्तर्विज्ञान से ॠषियों ने मन का, चित्त का, इंद्रियों का और उनकी कार्य प्रणालियों का सूक्ष्म अध्ययन किया, विश्लेषण किया और फिर कुछ निष्कर्ष निकाले। योग वासिष्ठ में योग को संसार से पार उतरने की युक्ति बताया गया है। इस आंतरिक यात्रा की तकनीक ही योग है।

आज तो पूरे विश्व में योग की प्रतिष्ठा होती जा रही है। अंतरराष्ट्रीय योग दिवस की स्वीकृति इसका प्रमाण है। कुछ समय पूर्व तक पश्चिमी दुनिया ‘योग’ को शारीरिक व्यायाम के रूप में ही स्वीकार करती थी। यद्यपि वहां ‘मेडिटेशन’ (एकाग्रता) का बाह्य संस्करण काफी पहले से प्रचलन में था। लेकिन भारत की ॠषि परंपरा ने इसे शरीर की साधना तक ही सीमित नहीं रखा, मन की चंचलता और चित्त वृत्तियों के निरोध तक ले जाने का मार्ग माना था। भगवान श्रीकृष्ण ने भी गीता में ज्ञान-योग, कर्म-योग और भक्ति-योग के संबंध में विस्तार से चर्चा की है। अनेक ॠषियों, मुनियों, योगियों, साधुओं ने अनेक प्रकार से योग-साधना की है। हमारे अपने समय में ही महर्षि अरविंद, स्वामी युक्तानंद, स्वामी मुक्तानंद, उड़िया बाबा, नीम करोली बाबा जैसे कई योगियों की साधना के उज्ज्वल पक्ष पूरे समाज को प्रभावित करने वाले थे। परमहंस योगानंद जी की ख्याति तो आज पूरे विश्व में फैल चुकी है। अमेरिका जैसे कई देशों में उनके आश्रम हैं। योगानंद जी ने तो ४- गड़पार रोड़ पर स्थित अटारी कक्ष में साधना से ईश्वर प्राप्ति की थी और कहा था- यह मेरा पवित्र पीठ है, जहां मैंने भगवान को प्राप्त किया। इनके पूर्व स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने मां काली की साधना के द्वारा जो दिव्य शक्ति अर्जित की थी उसी का परिणाम था कि स्वामी विवेकानंद बिना किसी सहायता के अमेरिका पहुंच कर धर्मसभा में भागीदार बन सके। उनके प्रथम भाषण ने ही अमेरिकावासियों को चमत्कृत कर दिया था। पहली बार दुनिया के भौतिकवादी देश अमेरिका को भारत की गहरी आध्यात्मिक उपलब्धियों का ज्ञान हुआ था। इन तथ्यों को उल्लेख इसलिए किया जा रहा है जिससे स्पष्ट हो सके कि योग के संबंध में भारत की निष्ठा एक निरंतर प्रक्रिया है। साधना की कठिन यात्रा से गुजर कर ही भारत की ॠषि परंपरा ने उस क्षेत्र के रहस्यों को उजागर किया जो बाह्य चक्षुओं से बाहरी दुनिया में दिखाई नहीं पड़ते।

चित्त को शांत करने वाली युक्ति दो प्रकार की मानी गई है – आत्म ज्ञान और प्राण-निरोध। यद्यपि दोनो मार्गों के लिए प्रचलित शब्द योग ही है, तदापि प्राण-निरोध की प्रक्रिया के लिए योग ज्यादा प्रयुक्त होता है। गीता में ज्ञान, कर्म और भक्ति तीनों को ही योग शब्द के अंतर्गत लिया गया है और वस्तुत: वह है भी। तभी तो सरल शब्दों में योग को परिभाषित करते हुए कहा गया – ‘योग:कर्मसुकौशलम्।’ इसका अभिप्राय यही है कि किसी भी कार्य को संपन्न करने के लिए कुशलता जरूरी है। यह कुशलता तभी आ सकती है जब मन एकाग्र हो, इधर-उधर भटके नहीं। मन की चंचलता पर नियंत्रण पाने की कला ही तो योग है। महाभारत में धनुर्विद्या की परीक्षा लेने का दृष्टांत है। कौरव और पाण्डवों का प्रशिक्षण पूरा होने पर द्रोणाचार्य उनकी परीक्षा लेते हैं। एक घूमती हुई चिड़िया की आंख की पुतली को वेधने का जटिल प्रश्न हल करने को कहते हैं। सभी शिष्यों को बारी बारी से बुलाते हैं। प्रत्यंचा चढ़ाने पर पूछते हैं- तुम्हें क्या दिखाई दे रहा है? कोई कहता है, मुझे पूरा परिवेश दिखाई पड़ रहा है, कोई पेड़ और उसकी पत्तियों की बात कहता है। कोई चिड़िया की आंख देख रहा होता है। अर्जुन अपनी बारी आने पर कहता है- मुझे केवल चिड़िया के आंख की पुतली दिखाई पड़ रही है। आचार्य उसे उत्तीर्ण घोषित करते हैं। मन में तो अनेक बिम्ब आते जाते हैं। वे चेतना पर छाये रहते हैं। उन सब से परे जाकर लक्ष्य की एकाग्रता प्राप्त करना ही योग है। इसलिए कर्म के साथ योग उतना ही आवश्यक है जितना ज्ञान के साथ। संपुष्ट ज्ञान बिना योग को साधना संभव नहीं होता। भगवान जब अर्जुन को ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन्’ का उपदेश देते हैं तो यही बता रहे होते हैं कि फल की वासना का त्याग कर कर्म करो। गूढ़ार्थ है कि मन में जो वासनाएं पैठ जमाए रहती हैं वे व्यक्ति को एकाग्र नहीं होने देतीं। योग-मार्ग द्वारा चित्त-वृत्तियों के निरोध की कला सीख कर ही किसी कर्म में प्रवृत्त होना सफलता सुनिश्चित करता है। यही बात भक्ति के बारे में भी है। भगवान जब कहते हैं-‘सर्वधर्माणि परित्यज्यं मा मेकं शरणं ब्रज’ तो वे भक्ति के लिए सब से अनिवार्य गुण की ओर ही संकेत करते हैं। मनुष्य भक्ति करता है- लेकिन क्या वह अपने विभिन्न सांसारिक कर्तव्यों से मुक्त होकर ऐसा करता है? क्या वह फलासक्ति छोड़ पाता है? क्या वह अपने आपको पूरी तरह रिक्त कर भगवान के चरणों में समर्पित होता है। शायद इसीलिए भक्ति-मार्ग के संतों ने ‘लय-योग’ की महत्ता प्रतिष्ठापित की थी। अज्ञानी गोपिकाएं जब ज्ञानमार्गी उद्धव के सारे उपदेशों के बाद कहती हैं-

 ऊधो! मन नाहिं दस बीस।

 एक हुतो सो गयो स्याम संग, को आराधै ईस।

जब मन भी शेष नहीं रहता, तभी भगवान भक्त को दर्शन देते हैं। मीरा बाई इस लय योग की श्रेष्ठ उदाहरण हैं जो कहती हैं-

 मेरे तो गिरिधर नागर, दूसरो न कोइ।

 जाके सिर मोर मुकुट, मेरो पति सोई॥

यह अनन्यता ही लय है जब अन्य को ‘स्व’ से पराया नहीं समझा जाता। इसलिए कहा जा सकता है कि भक्ति का उत्कर्ष भी या उसकी परिणति भी योग ही है। योग का सीधा अर्थ है युग्म। पृथकता के भाव का तिरोहित हो जाना।

अनन्यता या एकात्म भाव जिस प्रक्रिया से आता है अर्थात् प्राण-निरोध से, यह ऐसा विज्ञान है जिसे आंतरिक प्रक्रिया की प्रयोगशाला में सिद्ध किया जा सकता है; क्योंकि यह कठिन प्रक्रिया है। इस तंत्र में श्वासों की गति साध कर इड़ा, पिंगला नाड़ियों को साध कर सुषुम्ना के स्पंदन तक पहुंचा जाता है और फिर कुण्डलिनी को जाग्रत कर उसे ब्रह्मरंध्र तक पहुंचाने की साधना करनी होती है। ॠषियों ने सचेत किया है कि बिना गुरू के मार्गदर्शन के योग साधना खतरनाक हो सकता है इसीलिए संत कवियों ने गुरू की महिमा का बार-बार बखान किया है। जब गुरू के मार्गदर्शन में यह साधना पूरी कर ली जाती है तब साधक तूरीयावस्था को प्राप्त करता है। यह जीव की परमात्मा में स्थिति है, जो आनंद और चिति का अनुभव है और परम ज्ञान तथा आनंद है। यही योग का प्राप्य है। यह स्थिति तभी संभव है जब सारी लहरें शांत हो चुकी हैं और मन अस्त हो गया हो। यही कहलाता है ब्रह्मानंद।

योग वासिष्ठकार का ॠषि इस ब्रह्मज्ञान के संबंध में लिखता है- असत्य दृष्टि के क्षीण हो जाने पर और सत्य दृष्टि के दृढ़ हो जाने पर आत्मा निर्विकल्प और शुद्ध चिति का आकार धारण कर लेता है। जगतरूपी भ्रम के, जो कि आकाश के रंग की नाई देखने मात्र को हैं, वास्तविक नहीं है, अत्यंत अभाव के ज्ञान के दृढ़ हो जाने पर ब्रह्म के रूप का ज्ञान होता है, अन्य प्रकार से नहीं। दृश्य जगत के अत्यंत अभाव की भावना के बिना दूसरी और कोई शुभ गति नहीं है। दृश्य के असंभव होने के ज्ञान का ही नाम ज्ञान है। यह जानने योग्य भी है। इसलिए अभ्यास जरूरी चीज है।

कैलाशचंद्र पंत

Next Post
योग के प्रभाव

योग के प्रभाव

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

हिंदी विवेक पंजीयन : यहां आप हिंदी विवेक पत्रिका का पंजीयन शुल्क ऑनलाइन अदा कर सकते हैं..

Facebook Youtube Instagram

समाचार

  • मुख्य खबरे
  • मुख्य खबरे
  • राष्ट्रीय
  • राष्ट्रीय
  • क्राइम
  • क्राइम

लोकसभा चुनाव

  • मुख्य खबरे
  • मुख्य खबरे
  • राष्ट्रीय
  • राष्ट्रीय
  • क्राइम
  • क्राइम

लाइफ स्टाइल

  • मुख्य खबरे
  • मुख्य खबरे
  • राष्ट्रीय
  • राष्ट्रीय
  • क्राइम
  • क्राइम

ज्योतिष

  • मुख्य खबरे
  • मुख्य खबरे
  • राष्ट्रीय
  • राष्ट्रीय
  • क्राइम
  • क्राइम

Copyright 2024, hindivivek.com

Facebook X-twitter Instagram Youtube Whatsapp
  • परिचय
  • संपादकीय
  • पूर्वाक
  • देश-विदेश
  • पर्यावरण
  • संपर्क
  • पंजीकरण
  • Privacy Policy
  • Terms and Conditions
  • Disclaimer
  • Shipping Policy
  • Refund and Cancellation Policy

copyright @ hindivivek.org by Hindustan Prakashan Sanstha

Welcome Back!

Login to your account below

Forgotten Password?

Retrieve your password

Please enter your username or email address to reset your password.

Log In

Add New Playlist

No Result
View All Result
  • परिचय
  • संपादकीय
  • पूर्वांक
  • ग्रंथ
  • पुस्तक
  • संघ
  • देश-विदेश
  • पर्यावरण
  • संपर्क
  • पंजीकरण

© 2024, Vivek Samuh - All Rights Reserved

0