योग के प्रभाव

 पतंजलि ॠषि योगशास्त्र के  साथ साथ व्याकरण, योग, आरोग्य आदि शास्त्रो में भी पारंगत थे। उन्होंने पहला सूत्र बताया है ‘अथयोगानुशासनम्’। इसका अर्थ है मनुष्य का जो शारीरिक, मानसिक र्हास होता है उससे छुटकारा पाने के लिए हमें बचपन से ही योगाभ्यास करने की आवश्यकता है। दूसरा सूत्र है ‘योगार्थत्तवृत्ती निरोध:’ योग यानी जीवात्मा और परमात्मा इन दोनों का ऐक्य करना। इसलिए जो अष्टांग योग बताया है वह है यम नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि। यह हमें जीवन कैसे स्वस्थ और सुखी रखे इस बारे में जानकारी देता है। यम-नियम नैतिकता में आते है। आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार हठयोग में आते हैं। और ध्यान धारणा, समाधि राजयोग में आते हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि यह सारी बातें प्रत्यक्ष आचरण में लाने से मन-बुद्धि-अंत:करण शुद्ध होता है। जीवात्मा से संयुक्त करके जीव को परमात्मा में विलीन करने का प्रयास करना यही योग साधना है। मनुष्य बुद्धिजीवी प्राणी है। इसलिए वह योगाभ्यास कर सकता है। यह योगाभ्यास गुरू के मार्गदर्शन में करना चाहिए।

योगाभ्यास चमत्कार नहीं है। वह प्रयत्नपूर्वक करने का अभ्यास है। वह साधना है। इसलिए उसके बारे में संशय, आलस्य रखना गलत है। और भी एक बात है अपना आहार, विहार, निद्रा इनके बारे में काफी सजग रहना चाहिए।

हमारे जीवन में मन का भी स्थान बड़ा है। योग्य अयोग्य क्या है यह अंत:करण के कारण निश्चित होता है। यह अंत:करण के चार भाग तज्ञों ने बताए हैं। वे हैं मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार। बुद्धि के आधार पर ही मनुष्य का जीवन, उसके संतानों की उन्नति, देश, कुल, राष्ट्र की भी उन्नति निर्भर होती है। मनुष्य को जन्म भी उसके पाप-पुण्य कर्मों के आधार पर ही मिलता है। गीता बताती है ‘बुद्धिभेदं धृतध्यैव गुणस्त्रिचि धं श्रुगु (१८-२९)। कर्म सिद्धान्त बताता है सात्विक बुद्धि को ही सम्यक् ज्ञान होता है। इस कारण मनुष्य विषयभोग में अनासक्त रहता है। फिर उसके जन्मजन्मांतर के रज तपोबल धीरे धीरे क्षीण होते हैं। इसके लिए सत्संग, सद्ग्रंथ वाचन, श्रवण, अभ्यास, तीर्थयात्रा इत्यादि करना चाहिए। लेकिन तमोगुण के कारण मनुष्य के हाथ से सत्कर्म नहीं होते। फिर वह सज्जन को दुर्जन समझता है। यह उसका अज्ञान है। इसी कारण उसके हाथ से दुष्कृत्य होने लगते हैं। गीता में कहा है

 अधर्म धर्मानीति या मन्यते तमसावृत्ता

 सर्वार्थान् विपरीताश्च बुद्धि: सा पार्थ तामसी।

क्या बुरा, क्या अच्छा यह जानने की शक्ति रजोगुणप्रधान बुद्धि में नहीं होती। इसलिए ऐसा मनुष्य सदा के लिए विषयभोग में फंसा रहता है। लेकिन वह भी यदि सत्कर्म में अपना मन लगाए तो उसकी बुद्धि की जगह शुद्धता निर्माण होगी। ‘लोय: प्रवृत्तिरारंभ:’ (१४-१२ गी) यह गीता बताती है। मनुष्य को उसके पाप-पुण्य कर्म के कारण सुख दु:ख भोगना पड़ता है। यदि हमारे हाथ से अधिक पाप कर्म होंगे तो हमें कुत्ता, गधा, बैल, कौवा जैसी निन्म योनी में जन्म लेने पड़ते हैं। मनुष्य जीवन में अहंकार काफी मात्रा में होता है। इसलिए जीव को मुक्त करने के लिए नियमों का पालन करना आवश्यक है।

मनुष्य को विषय की ओर ले जाने वाली अवामरण वृत्ति १) प्रमाण २) विपर्यय ३) विरुद्ध ४) निद्रा ५) स्मृति ऐसी पांच प्रकार की हैं। ये पांच वृत्तियां जीव को विषय की ओर खींचती हैं। इसलिए योग से हमें हमारी चित्त वृत्तियां बदलनी होगीं। इस बुद्धि के कारण हमें अनुभव आते हैं। अच्छे अनुभव सात्विक बुद्धि से, क्रोधादि अनुभव तामसिक बुद्धि से और इस बीच राजस अनुभव भी आते हैं। इसलिए हमें नियंत्रणपूर्वक ईश्वर कृपा से अंतःकरण को शुद्ध करना आवश्यक है। इससे प्रतिभायुक्त बुद्धि निर्माण होती है। ऐसी बुद्धि को ऋतंभरा बुद्धि या प्रज्ञा कहते हैं। ऐसी बुद्धि वीतराग योगियों के पास होती है। जीवन में हमें जो क्लेश सहन करने पड़ते हैं उसका कारण अविद्या है। हम कभी जरूरत से ज्यादा खाते हैं, दिनभर टी.वी. देखते हैं। यह तो इंद्रियों की बात हो गई लेकिन कुछ लोगों को अच्छी बात भी बुरी लगती है और बुरी बात अच्छी लगती है। उसके कारण मन में द्वेष निर्माण होता है। यह आने ेवाले सब दु:ख गुरु प्रसाद से और ईश्वर कृपा से नष्ट हो सकते हैं। और फिर ‘सत्य ज्ञानं अनंत एतद्रुप सर्व खलु इदम् ब्रह्म नेहनानस्ति’ किंचित ऐसा अनुभव आता है। इसलिए हमारे काम-क्रोध-मोह-मद-मत्सर खत्म करने के लिए यम-नियम, आसन-प्राणायामादि योगाभ्यास करने की जरूरत है। हमारे जीवन में पूर्वकर्मार्जित पाप से शरीर में आदि-व्याधि निर्माण होती है। मानसिक यातना से आदि और इंद्रियों के दुरपयोग से व्याधि निर्माण होती है। इसलिए मन को प्रसन्न रखने का उपाय योगाभ्यास में है। मन:शांति के लिए सद्गुणों का, सदाचार का आश्रय जीवन में लाना चाहिए। मन प्रसन्न रखने के लिए ही रामदास स्वामी कहते है, मन को प्रसन्न रखें, जो सारी सिद्धियों का मूल है। दुखियों का दु:ख दूर करने का प्रयास करो, सब को धन, बांटते चलो, काम में मदद करो। सब के शरीर भगवान के मंदिर यह भाव रखो। मन की ताकत बढ़ेगी। क्योंकि हमारी नि:स्वार्थ बुद्धि जागृत होने से हम दु:ख दर्द भूल जाते हैं।

वैषेयिक विषयों के पीछे भागने से नैतिकता का र्हास होता है। आज तो यह बात पल पल अनुभव में आती है कारण खान-पान और वासनाओं की वृद्धि बडे प्रमाण में हो रहा है इसलिए बलात्कार, अत्याचार, भ्रष्टाचार, दुराचार इनकी गिनती करना मुश्किल है।

योगाभ्यास हमें मन प्रसन्न रखने की कुंजी बताता है। वह श्लोक देखें-

 ‘एकांतवासो लघुभोजनादि मौनं निराशा करणावरोध:

 मनुरसोरसंयमनं षडेते मन: प्रसादं जनयन्ति शीघ्रम्।

इसलिए बाह्य वस्तु अथवा विषय से मन को विचलित न होने देना और अपना जीवन धर्माचरणयुक्त रखना। सुख क्षणभंगुर होता है इसलिए ‘इंद्रियों के घोड़े जो विषय में अडे। जो अडे भी तो संयम के कोडे पडे’ इस तरह मन का संयम रखकर अपना शरीर स्वास्थ और मन स्वास्थ अच्छा रखिए। यही ऋषि-मुनियों का हमें संदेश है। हमारी इंद्रिया साधनस्वरुप हैं। आनेवाले संकटों का सामना धैर्य से करना मन का काम है। इसलिए स्वस्थ मन से स्वस्थ शरीर रहेगा। कठिन परिस्थिति से भाग कर काम नहीं चलेगा धैर्य से संकट का मुकाबला करने की शक्ति योगाभ्यास से आती है। आत्मज्ञान होने के लिए चार पुुरुषार्थ की आवश्यकता होती है। वह पुरुषार्थ धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष है। इसके लिए विवेक और वैराग्य की जरुरत है। कोई भी काम करते समय यह मेरी जिम्मेदारी है ऐसा समझ कर काम करें तो उसका बोझ नहीं लगेगा। यह मेरा प्राप्त कर्तव्य कर्म है ऐसा सोच कर काम करने की मन को आदत डालिए। इससे मन और शरीर अपने आप स्वस्थ रहेगा। सब दुनिया की चीजें मेरे पास चाहिए ऐसा सोच होने से लोभ निर्माण होगा, लोभ से क्रोध आएगा, क्रोध से संमोह निर्माण होगा, संमोह से स्मृति विभ्रम होगा और स्मृति विभ्रम से शांति ढलेगी और स्वास्थ बिगड़ेगा।

परमार्थसाधन में मन की प्रसन्नता आवश्यक है। ‘असो: संयमनम्’। यहां असु याने प्राण। प्राण का संयमन करना याने प्राणायाम। प्राणायाम यह क्रिया अत:करण में रहने वाले रज-तम दोष को दूर करती है। उसके साथ सात्विकता होगी तो मन प्रसन्न रहेगा। यदि रजोगुण तमोगुण बढ़ा तो मन प्रक्षुब्ध होगा। इसलिए ये रज-तमोगुण दूर करना यही मन प्रसन्न रखने का विशेष साधन है। शरीर में भूख और प्यास निर्माण करना यह प्राण का कार्य है। वह भूख प्यास लगने से मनुष्य खाद्य, चोष्य, लोह्य और पेय प्रकार ग्रहण करता है। असफलता आने से तमोगुण बढता है। इसलिए सदाचार पूर्ण जीवन और ईश्वर के प्रति भक्तिभाव रखने से हमारी आत्मशक्ति बढ़ती है। जिसका मन शुद्ध होता है वह किसी बात से विचलित नहीं होता। आनंद की बात से बहुत आनंद भी नहीं और दु:ख की बात से दु:खी भी नहीं यह बात योगाभ्यास से प्राप्त होती है।

प्राणायाम अंत:करण शुद्धि का और आत्मबल बढ़ाने का एक महत्वपूर्ण साधन है। लेकिन उसके लिए शुद्ध आहार, शुद्ध विहार, शुद्ध विचार, परोपकार बुद्धि और सद्सद्विवेक जागृत रखने की अत्यंत आवश्यकता है। प्राणायाम के लिए प्रथम शरीर शुद्ध करना जरूरी है। उसके प्रकार १) नेति २) धौती ३) बस्ति ४) नौली ५) त्राटक ६)कपालभाति इ.। जिन लोगों की शरीर शुद्धि पूर्वजन्म के सत्कर्मों से हुई होगी उन्हें षटक्रिया की खास आवश्यकता नहीं रहती।

प्राणायाम के लिए कुशासन, व्याघ्राजिन या तो हरिणाजीवका उपयोग करें। कुशासन यह अमृताबिंदु से तैयार होते हैं ऐसा शास्त्रकार बताते हैं। इस कारण उसमें विशेष शक्ति होती है। जाड़ो के दिनों में फरसी ठंडी होती है इसलिए कुशासन ठंड खींच लेता है।  प्राणायाम से मनुष्य में जो विद्युत शक्ति निर्माण होती है वह जमीन से खींची न जाय इसलिए आसन आवश्यक है। प्राणायाम करते समय पूर्वाभिमुख या उत्तराभिमुख बैठिए। श्वास लेते समय पेट बाहर आना आवश्यक है। श्वास छोडते समय पेट अंदर आना चाहिए। श्वास मंद गति से लेना और मंद गति से छोड़ना यह अत्यंत जरूरी है। पहले महीने दो महीने ऐसा अभ्यास कीजिए। इसके बाद श्वास रोकिए। इसे ही कुंभक कहते हैं। इसलिए ४ अंक में श्वास लीजिए और ६ अंक में छोड़िए। मतलब यह कि लेना कम देना जादा ऐसा व्यवहार करिए। प्राणायाम की जितनी भी किताबें उपलब्ध हैं उनमें उपनिषद सबसे प्राचीन है। इसके कारण शारीरिक, बौद्धिक, मानसिक प्रगति अच्छी होती है। पूर्वकाल में बाह्य वातावरण काफी शुद्ध था। आज औद्योगिकता के कारण प्रदूषण काफी बढ़ गया है। इसलिए श्वसन क्रिया में काफी रुकावट आती है। बाद में बाये से लेना बाये से छोडना, दाहिने से लेना दाहिने से छोडना, उसके बाद बाये से लेकर दाहिने से छोड़ना, दाहिने से लेकर बाये से छोड़ना यह क्रिया करते रहे तो दोनों नासिका मार्ग स्वच्छ हो जाएंगे।

प्रेमभाव रखना, दु:खियों की मदद करना, अपना आनंद दूसरों को बांटना, कुविचार मन में नहीं आने देना, मन को स्थिर रखना ये सब बातें आवश्यक है। इसके लिए सूत्र है ‘अभ्यास वैराग्याभाव’ (पा. यो. १-१२)। सभी कार्य का अभ्यास और जीवन में वैराग्य रखने की जरूरत होती है। विषयों की आसक्ति कम करना यही वैराग्य है।

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