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पातंजल योग से मन:शांति

पातंजल योग से मन:शांति

by पूर्णिमा मांडलिक
in जून २०१५, सामाजिक
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मन की निर्विचार अवस्था साध्य कर पूर्ण निरोध और उससे कैवल्यावस्था साध्य करना मन:शांति की अंतिम अवस्था है। आधुनिक समय में आम आदमी जिस मन:शांति को चाहता है उसका सुयोग्य वर्णन पतंजलि ॠषि ने प्रस्तुत किया है।

हाथ, पैर, सिर ये मानवीय शरीर के हिस्से हैं। इनके सिवा         कई अन्य हिस्से भी हैं। उसी प्रकार मानवीय बुद्धि के भी कई हिस्से हैं, जो अलग-अलग स्तरों पर कार्य करते हैं। (जिसे मेधा, धृती, प्रज्ञा इत्यादि) “पातंजल योग” में पतंजलि ऋषि ने मन के हिस्सों का वर्णन बड़ी गहराई से किया है। विचारों की गहनता और व्याप्ति विस्तृत होने के कारण पतंजलि की सोच को या वर्णन को दर्शन माना गया। आइए, अब हम इसके बारे में जानें। आम आदमी के मन को नियंत्रित कर, उसकी प्रवृत्ति को विशिष्ट आकार देकर सही दिशा में रखने का कार्य पतंजलि ने सिखाया है।

 पतंजलि के अनुसार मन के हिस्से निम्नलिखित हैं-

१) प्रवृत्ति २) नौ बाधाएं या अवरोध ३) विघ्न ४) क्लेश ५) यम ६) नियम

पतंजलि द्वारा बताए क्रियायोग, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि और प्रक्रिया ये मन को नियंत्रित करने वाले उपाय हैं। ये मन का ध्येय या गंतव्य स्पष्ट करते हैं।

पतंजलि ने “योग” शब्द से तात्पर्य न बताते हुए योगशास्त्र से प्राप्त ध्येय को आरंभ में स्पष्ट किया है। वह है-

“योगश्चतवृत्ति निरोध:। अर्थात, “चित्त, मन और उसकी प्रवृत्तियां यानी मन का बर्ताव और उन्हें नियंत्रित करना योग है। इस प्रकार योग दर्शन प्रारंभ हुआ। प्रथम चरण के चौथे चरण तक “मनुष्य का मन” यही योग दर्शन का प्रमुख विषय है। श्री कृ. के. कोल्हटकर जी ने उनकी किताब का नाम “भारतीय मानसशास्त्र” अथवा “सार्थ और साविवरण पातंजल योगदर्शन” रखा है।

शरीर को जीत कर, मन नियंत्रित कर, प्रज्ञा और विवेक बुद्धि जागृत करने से मनुष्य मोक्ष तक पहुंचे यह पतंजलि की चर्चा का विषय है। पातंजल योगसूत्र का प्रमुख वर्णनात्मक विषय है- १) पुरुष (आत्मा) कैवल्य अवस्था में ही रहता है। २) फिर जन्म लेकर वह (आत्मा) प्रकृति की विशालता में रमता है। ३) उसे वापस मोक्ष की अवस्था यानी कैवल्यावस्था तक ले जाना यही योग है। इस वापसी की सीढ़ी है बहिरंग, अंतरंग, विवेक ज्ञान, सत्वशुद्धि, विशुद्ध चित्त, वासना क्षय, आत्मज्ञान और कैवल्य प्राप्ति (मोक्ष प्राप्ति) इत्यादि।

पातंजल योग दर्शन चित्त वर्णन से भरा हुआ है। प्रगत अवस्था का योगी और सामान्य मनुष्य इन दोनों के मन का विचार पतंजलि ने अत्यंत कुशलता से किया है। पतंजलि द्वारा वर्णित योग की प्रगति में आनेवाले अवरोधों में से पांच अवरोध आम आदमी के रोजाना योगाभ्यास में आते हैं। शेष चार अवरोध योग साधना की प्रगत अवस्था में पहुंचे हुए योगियों के लिए हैं।

पतंजलि ने मन के अच्छे-बुरे भागों का वर्णन तो किया ही, उनके नियंत्रण या नाश के योग्य और सहज उपाय भी बताए। यह पातंजल योग दर्शन की बहुत बड़ी विशेषता है। ये उपाय बताते हुए उन्होंने समाज के हर पहलू पर विचार किया है।

प्रथम चरण में प्रवृत्ति का विषय यानी मानवीय मन की विचार-पद्धति। पांच प्रकृतियों में प्रथम प्रमाणित प्रवृत्ति है-किसी घटना को मन मानता है। घटना प्रत्यक्ष हो, या तर्क से या अंदाज लगाकर। उसी प्रकार “आगम” यानी किसी के कहने पर मान लेना। “विपर्यय” यह दूसरी प्रवृत्ति विपर्यास करने की (अर्थात बात का बतंगड बनाने की) वह मन की आदत स्पष्ट करती है। तीसरी प्रवृत्ति “विकल्प” यानी शब्दज्ञान से कल्पना करना और उसमें खो जाना। “निद्रा” इस चौथी प्रवृत्ति में मन के नकारात्मक विषयों की आदत स्पष्ट होती है। अनुभव अच्छा या बुरा जैसा भी हो, सतत उन्हीं विचारों में खो जाना यह “स्मृति” नामक पांचवीं प्रवृत्ति है। इस प्रकार मन प्रवृत्ति में रम जाता है और मन:शांति खो देता है। पतंजलि ने प्रवृत्तियों के नियंत्रण के बारे में बताया है। प्रवृत्ति-नियंत्रण के उपाय भी बताए हैं। प्रथम चरण के ग्यारह सूत्रों में प्रवृत्तियों का वर्णन कर बारह से सोलह सूत्रों तक अभ्यास और वैराग्य धारण कर प्रवृत्तियों का नियंत्रण किया जा सकता है, यह स्पष्ट किया है।

मन की पांच प्रवृत्तियों का वर्णन करने के उपरांत प्रथम चरण में सूत्र संख्या ३० में योगाभ्यास में आनेवाली नौ बाधाओं का वर्णन है। ये नौ बाधाएं हैं व्याधि, स्त्यान, संशय (शक), प्रमाद, आलस, अविरती, भ्रांतिदर्शन, अलब्धभूमिकत्व, अनवस्थितत्व ये नौ अवरोध है। अभी इन नौ अवरोधों पर विस्तार से विचार करें।

“व्याधि” शारीरिक और मानसिक स्तर पर मनुष्य को नुकसान पहुंचाती है। यह सब जानते हैं कि मन अगर दृढ़ है, शांत है तो सेहत भी तंदुरुस्त रहेगी। आजकल डॉक्टरों को बीमारी का पता न चलने पर वे रोगियों को मनोरुग्ण घोषित करते हैं। “स्त्यान” यानी चित्त का अकर्मण्य बने रहना अर्थात कुछ न करना। मन से कुछ भी करने की चाह न रखना। कुछ करने से फायदा नहीं फिर क्यों करें? इससे अच्छा है कि कुछ भी न करें। इस प्रकार कर्म से पलायन करना अर्थात कर्म न करना।

“प्रमाद” यानी मन की न सुनना। किसी काम के बुरे परिणामों की जानकारी होते हुए भी वह गलती करना। उदाहरणार्थ ठंड लगने पर जुकाम होगा यह पता होते हुए भी गरम कपड़ा न पहनना, ठंड में बैठना और बाद में दर्द सहते रहना इत्यादि।

“आलस” यानी शरीर की आलसी वृत्ति, मन भी उसे साथ देता है। इससे शरीर, मन दोनों से कुछ कर्म नहीं होता।

“अविरती” यानी विरक्त (अलग) न होना। हमारा मन हमेशा आकर्षक और पीड़ादायक बातों की ओर खिंचता है। अच्छी या बुरी दोनों बातों की ओर न जाने के लिए मन पर अंकुश रखना यानी विरक्त रहना जरूरी है। ऐसा विरक्त मन योगाभ्यास के कारण तैयार होता है। हर चीज में आसक्ति रखना शारीरिक, मानसिक दृष्टि से अनेकों रोगों को आमंत्रण देता है। व्यावहारिक दृष्टि से मुसीबतों को बुलावा देता है।

“भ्रांतिदर्शन” यानी भ्रम। (संभ्रमावस्था)। मन में कोई कल्पना या मान्यता रहती है। उस कल्पना से मिलती-जुलती कोई घटना घटने पर उसका गलत अर्थ लगाया जाता है, मनुष्य उसी भ्रम में रहता है। उदा. ध्यानस्थ बैठने पर प्रकाश दिखाई पड़ना और यही ईश्वर का दर्शन है, ऐसा विचार मन में स्थिर हो जाना। किसी समय ध्यानावस्था में बैठने पर किसी के द्वारा दिया जलाया गया तो आंखों के सामने प्रकाश दिखता है। ऐसा लगता है कि अब अपना ध्यान लगा है, मनुष्य अपने आप पर खुश हो जाता है। इसलिए मन की यह संभ्रभावस्था टालनी चाहिए।

“अलब्धभूमिकत्व” यानी योगाभ्यास से हमें कुछ मिले यह विचार मन में पालें और वह चीज़ न मिले तो मन नाराज होता है और योगाभ्यास छोड़ देता है। उदाहरणार्थ, वजन घटे इस उम्मीद से योगाभ्यास करना और परहेज न रखना। इससे वजन पर कुछ परिणाम न दिखने पर दोष योगशास्त्र को दिया जाता है।

“अनवस्थितत्व” यानी योगाभ्यास में प्रगति करने पर, अगली अवस्था तक पहुंचने पर भी मन स्थिर न रहना। इससे समाधि अथवा कैवल्ययोग तक (मोक्ष प्राप्ति तक) न पहुंच पाना।

सूत्र ३१ में पांच विघ्नों का वर्णन किया है। दु:ख, दौर्मनस्य, अंगमेजमत्व, श्वास, प्रश्वास जैसे पांच विघ्न योग साधक के सामने आ सकते हैं। इन विघ्नों के पीछे मूल कारण निश्चित रूप से मन ही है।

यह ध्यान में रखना जरूरी है कि दु:ख या पीड़ा शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, आत्मिक अथवा भौतिक, आधिभौतिक, आध्यात्मिक किसी भी स्तर की हो, उसका संबंध और परिणाम यह मन की अवस्था है।

दौर्मनस्य यानी मन की निराशा। आशा की एक किरण भी दिखाई न पड़ना यह निराशा की अवस्था है।

अंगमेजयत्व यानी शरीर में कंपन होना, अस्थिरता निर्माण होना, शरीर की, मन की अस्वस्थता के कारण इस अवस्था का अनुभव होता है।

श्वास और प्रश्वास यानी सांसों पर नियंत्रण न रहना। शारीरिक रोग उसी प्रकार काम, क्रोध आदि मन के षड्रिपु श्वास को अनियंत्रित बनाते हैं।

उपरोक्त नौ बाधाएं और पांच विघ्न इन में ९० प्रतिशत भाग मन से संबंधित है यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है। उस पर नियंत्रण पाने के लिए ॐ कार जय-सूत्र संख्या २७-२८ और किसी भी एक तत्व का अभ्यास करने का उपाय पतंजलि ने सूत्र ३२ से ३९ में स्पष्ट किया है। पतंजलि के मतानुसार ॐकार से मन अत्यंत शांत और प्रसन्न होता है, इससे वह परम संतोषी और प्रसन्न रह सकता है। मन की इस विशेष अवस्था से शारीरिक, मानसिक बीमारियों को दूर रखा जा सकता है। ३२ से ३९ सूत्र में किसी भी एक तत्व का उपाय बताते हुए पतंजलि ने कुछ मार्ग बताए हैं। दूसरों के सुख के साथ मित्रता बनाना, दूसरों के दु:ख से दु:खी होना, दूसरों के पुण्य से आनंद की निर्मिति होना, दूसरों के पापों को अनदेखा करना, ध्यान न देना, जोर से सांस छोड़ना, विशिष्ट प्रकार से सांस लेना, मनपसंद विषयों में रुचि रखना, मन को दु:ख रहित अवस्था में रखना, तेज की उपासना, श्रेष्ठ शक्ति, व्यक्तियों का, गुरु का ही विचार करना इत्यादि पद्धतियों के द्वारा मन को प्रशिक्षित करने पर उपरोक्त नौ बाधाएं और पांच विघ्न नष्ट हो जाते हैं।

दूसरे चरण में सूत्र संख्या ३ से ९ के बीच पांच क्लेशों का वर्णन हैं। क्लेश अर्थात अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष, अभिनिवेश यानी देहाभिमान। ऐसी मानसिकता और उससे निर्माण होनेवाले शारीरिक कष्ट को जड़ से मिटाकर मन शांत करना पतंजलि के मतानुसार बेहद जरूरी है।

सूत्र संख्या १, १०, ११, १५, १६, २८ में क्लेश को जड़ से मिटाने का मार्ग दर्शाया है। क्लेश नष्ट करने के लिए तप, स्वाध्याय, ईश्वरप्रणिधान जैसा क्रियायोग करें। ध्यान के अभ्यास से क्लेश न बढ़ाते हुए उलटी दिशा में ले जाकर उन्हें सूक्ष्म करें। विवेक बुद्धि को जाग्रत कर भविष्य में आने वाले दु:खों को आने से पहले ही नष्ट करें। अष्टांग योग की सहायता से विवेक बुद्धि जाग्रत करके क्लेश नष्ट करने का मार्ग पतंजलि ने बताया है।

दूसरे चरण में योग साधक का व्यवहार समाज के साथ कैसा हो, इस संबंध में यम-नियम यानी मन की पद्धति और उस के परिणामों का सविस्तर वर्णन है। सूत्र २८ से ४५ में साधक को मार्गदर्शन किया है। यम-नियमों का पालन कर मन पर नियंत्रण रखने के कारण स्पष्ट किए हैं। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह जैसे पांच यम और शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वर प्रणिधान जैसे नियमों का आचरण मन की प्रक्रिया है यह ध्यान में रखें।

पतंजलि के मतानुसार आसनों से होने वाली शारीरिक हलचल के द्वारा मन की संघर्षावस्था या द्वंद्वावस्था समाप्त हो जाती है। यम-नियमों का पालन करने के लिए मन तैयार हो जाता है।

प्राणायाम के अभ्यास से मन:शांति की दिशा में होने वाला साधक का सफर सहज हो जाता है। शुद्ध चित्त पर होने वाले बुरे आवरणों को नष्ट कर मन धारणा करने अर्थात एकाग्रता साध्य करने हेतु तैयार हो जाता है।

प्रत्याहार के अभ्यास के कारण इंद्रिय जय अर्थात इंद्रियों पर नियंत्रण प्राप्त होता है। इससे धारणा के अभ्यास में मन की एकाग्रता सहज साध्य होती है। समाधि में साधक की आलंबन से एकरूपता स्थापित हो जाती है।

तीसरे चरण में पतंजलि ने पहले आठ चरणों में धारणा ध्यान तथा समाधि अवस्था में साध्य मन के निरोध का विचार प्रस्तुत किया है। ९ से १५ तक के सूत्रों में मन निरोध की संकल्पना विस्तृत रूप से स्पष्ट कर साधक को मार्गदर्शन किया है। उसके बाद मन के निरोध से शत प्रतिशत साध्य हुए प्रज्ञा लोक जागृति के परिणाम से साध्य सिद्धि का १६ से ३४ और ३८ से ४७ सूत्र तक वर्णन किया है।

नियंत्रण प्राप्त और निरोधी की अवस्था का मन सिद्धि में न अटके इसलिए उसे ३७ वें सूत्र में कैवल्य (मोक्ष) प्राप्ति में बाधा माना है। विवेक ज्ञान के आधार पर सत्वशुद्धि कर विशुद्ध चित्तावस्था तक साधक के पहुंचने की बात कही है।

चौथे चरण में मन का बहिरंग, अंतरंग, विवेक ज्ञान, सत्वशुद्धि, विशुद्ध चित्त, वासनाक्षय, आत्मज्ञान और कैवल्य प्राप्ति तक का सफर स्वरूप प्रतिष्ठा तक किया है।

मन की निर्विचार (विचाररहित) अवस्था साध्य कर पूर्ण निरोध और उससे मोक्ष प्राप्ति (कैवल्यावस्था) साध्य करना मन:शांति की अंतिम अवस्था है।

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