हुनर ही तारेगा भारत को

कोविड-19 के लिए आज सारी दुनिया चीन को दोषी मान रही है। आर्थिक महाशक्ति बनने के लिए उसने तीसरा विश्वयुद्ध छेड़ दिया है। इस विश्वयुद्ध की न तो जमीन निश्चित है और न इसके कोई नियम कानून हैं। इसमें पारंपरिक हथियार भी प्रयोग नहीं हो रहे हैं। केवल एक वायरस के बलबूते चीन ने पूरी दुनिया को घुटने टेकने को मजबूर कर दिया और अब अमेरिका जैसे विकसित देश बौखलाए खडे हैं। कहा जा रहा है कि इसी बौखलाहट के चलते विकसित देश चीन से अपने व्यावसायिक सम्बंध घटा लेंगे। यही भारत के लिए सुनहरा अवसर होगा। चीन जो कि विश्व के लिए देश नहीं बल्कि फैक्टरी की तरह काम करता है, वहां से विदेशी कम्पनियां अपना व्यवसाय हटा लेंगी और फिर उनको ऐसे देश की जरूरत होगी जहां व्यवसाय के हर क्षेत्र की लागत कम हो और वह देश होगा भारत।

बात है तो बहुत अच्छी है परंतु वास्तविकता के धरातल पर कितनी उतरेगी यह तो भविष्य ही बताएगा; क्योंकि अव्वल तो व्यवसाय शुद्ध नफे-नुकसान को देखकर किया जाता है। उसमें भावनाओं को कोई स्थान नहीं होता और दूसरा अगर भारत को यह मौका मिल भी गया तो भारत उसके लिए कितना तैयार है? यह सुनहरा सपना कहीं मुंगेरीलाल का हसीन सपना बनकर न रह जाए इसलिए हमें अपने गिरेबान में झांकना होगा।

चीन से जो व्यापार बाहर निकलने वाला है वह मुख्यत: मैनुफैक्चरिंग इंडस्ट्री हैं। जो कम्पनियां चीन से बाहर निकलेंगी वे निश्चित ही अन्य देशों में वही गुणवत्ता चाहेंगी जो चीन देता है। क्या भारत इसके लिए तैयार है? आज की तारीख में भारत में अगर किसी सेक्टर ने सबसे ज्यादा उन्नति की है तो वह है सॉफ्टवेयर इंडस्ट्री। कम्प्यूटर के सामने बैठकर कोडिंग-डिकोडिंग करने वालों की तादाद बढ़ती चली जा रही है। यह शायद इसलिए क्योंकि भारत हमेशा से ही चिंतन करने वालों का देश रहा है। दिमागी काम करने वालों की बढ़ती मांग ने हर किसी के हाथ में माउस पकड़ा दिया। अब ये हाथ रंधा, छेनी, हथौड़ी पकड़ने या खेत में ट्रैक्टर चलाने को तैयार नहीं हैं। समाज में भी अभी तक दिमाग से काम करने वालों (व्हाइट कॉलर और ब्लू कॉलर)को ऊंची निगाहों और हाथ से काम करने वालों को नीची निगाहों से देखा जाता है। सबसे पहले तो इस खाई को पाटने की जरूरत है।
इसके लिए शुरुआत करनी होगी उन शिक्षा संस्थानों से जो छात्रों को ‘सोचने’ के साथ-साथ ‘करना’ भी सिखाए। हमारे यहां क्षमता या हुनर की कोई कमी नहीं है, परंतु उन्हें मेनस्ट्रीम बिजनेस से केवल इसलिए दूर कर दिया जाता है क्योंकि वे अंग्रेजी नहीं जानते और बड़े भारी शब्दों में प्रेजेन्टेशन नहीं दे सकते। हमारे लघु और कुटीर उद्योग इसी वजह से धीरे-धीरे सिमटते चले जा रहे हैं। इन उद्योंगों को भी अन्य उद्योगों की भांति यदि हर प्रकार की सहायता मिले, नई पीढ़ी यहां आने को तैयार हो तो ही आने वाले समय में भारत उस चीन की बराबरी कर सकता है जहां के बच्चे भी शारीरिक मेहनत करने से नहीं कतराते।
हमारे यहां की नई पीढ़ी अभी जिस शिक्षा व्यवस्था से गुजर रही है, वहां केवल उन्हें बनी हुई चीजों को विकसित करना या उसमें अगर कुछ कमियां रह गई हों तो उसे ठीक करना ही सिखाया जा रहा है। नया कुछ आविष्कार करने की सोच को मार दिया जाता है। इसका परिणाम यह हो रहा है कि बाजार की मांग के अनुसार आपूर्ति करने में हम पीछे रह जाते हैं। निर्यात का तो छोड़िए हमारे अपने ही देश में कितने ही ऐसे आविष्कारों की आवश्यकता है। ये आविष्कारक समाज से ही निकलेंगे, सरकार के द्वारा केवल कौशल विकास और स्टार्टअप के कार्यक्रम बनाने से बात नहीं बनेगी। ‘जुगाड़ करने में हम भारतीय अव्वल हैं’ कहकर हम ही हमारा मजाक बनाते हैं, जबकि उसका दूसरा पहलू नहीं देखते कि जुगाड़ ही उस आविष्कार की पहली सीढ़ी है जो आवश्यकता के कारण उत्पन्न हुआ है। यह जुगाड़ कोई आईटी प्रोफेशनल नहीं करता, कभी-कभी तो पांचवीं फेल कोई आदमी भी कर लेता है क्योंकि उससे उसकी आवश्यकता की पूर्ति हो जाती है।

कौशल विकास कार्यक्रम ऐसे ही ‘जुगाडू’ लोगों के लिए होना चाहिए; क्योंकि कौशल अगर होगा तो ही उसका विकास होगा। कौशल किसी में उत्पन्न नहीं किया जा सकता। चार महीने का कोर्स करके फर्राटेदार अंग्रेजी बोली जा सकती है, छ: महीने का कोर्स करके प्रेजेन्टेशन बनाए जा सकते हैं परंतु अगर वह अंग्रेजी आवश्यकता, उत्पादन और आपूर्ति के बीच का पुल नहीं बन सकी तो कोई मायने नहीं रखेगी।

अगर हम चाहते हैं कि चीन से निकलने वाली कम्पनियां भारत की ओर रुख करें और यहां टिक जाएं तो वर्तमान समाज को अपने सोचने की दिशा में परिवर्तन लाना होगा। यह सोच बदलनी होगी कि केवल कम्प्यूटर में कोडिंग करना ही उच्च शिक्षा की निशानी है। मां-बाप को अपनी पुश्तैनी कला बच्चों को सिखाकर उस कला को जीवित रखना होगा। जिन लोगों में हुनर है, कुछ नया करने का माद्दा है, उन्हें उपयुक्त सुविधाएं देनी होंगी। सरकार को मैनुफैक्चरिंग इंडस्ट्री को सहायता और बढ़ावा देने वाले नियम कानून बनाने होंगे। मजदूर यूनियनों को अपने निहित स्वार्थ से ऊपर उठकर देश के हितों में कार्य करना होगा। शिक्षा संस्थाओं पर मोटी फीस लेकर जो केवल डॉक्टर, इंजीनियर, मैनेजर और वकील बनाने का भूत सवार है उसे उतारकर ऐसे व्यवसायी तैयार करने होंगे जो जरूरत पड़ने पर खुद टूलबॉक्स उठाने से न कतराएं।

सौ बात की एक बात यह है कि कोरोना काल में अगर कुछ अच्छा हुआ है तो वह यह है दुनिया हमारी तरफ आशापूर्ण द़ृष्टि से देख रही है। उसकी आशा की पूर्ति करना हमारी आज की सोच और भविष्य के दृढ संकल्पों और योजनाबद्ध कार्यप्रणाली पर निर्भर होगा।

This Post Has 2 Comments

  1. Anonymous

    एकदम सटिक… शासन, प्रशासन और नागरीक ये तीनो हाथो
    में हाथ मिला कर चले तो जरूर हम जैसा चाहे वैसा हो सकता है

  2. अविनाश फाटक, बीकानेर. (राजस्थान)

    समयानुकूल लेख हेतु साधुवाद.
    आज की सबसे बडी आवश्यकता यही है.इस अवसर को सुअवसर में बदलने हेतु यह लेख, बहुत उपयोगी एवं प्रेरक सिद्ध होगा l

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