- लॉक डाउन ने बढ़ाई मजदूरों की मुसीबत
- चिलचिलाती धूप और गर्म सड़कों पर पैदल चल रहा मजदूर
- बैग और बच्चे को कंधे पर लेकर हजारों किमी चल रहे पैदल
- सरकार से मदद ना मिलने को लेकर निराश हैं मजदूर
चीन से शुरू हुए कोरोना वायरस ने पूरी दुनिया में तबाही मचा रखी है इस वायरस की वजह से पूरी दुनिया में मरने वालों की संख्या लाखों में पहुंच चुकी है। भारत भी इस महामारी से नहीं बच सका और यहां भी संक्रमित और मृतकों की संख्या पिछले 2 महीने में तेजी से बढ़ी है लेकिन इन सब के अलावा अगर कोई बुरी तरह से परेशान हुआ है तो वह है मजदूर वर्ग, क्योंकि यह वह लोग होते हैं जिनके पास कोई जमा पैसा नहीं होता यह पूरा दिन कमाते हैं और अपने परिवार का पेट पालते हैं अब यह इनकी मजबूरी है या इनका नसीब, लेकिन लॉक लाडन ने मजदूरों के नसीब और भी बदत्तर कर दिया है किसी ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि कभी ऐसा भी दिन आएगा कि हजारों किलोमीटर की यात्रा पैदल करनी होगी। 20वीं सदी में दुनिया आसमान में उड़ रही है यहां तक कि वैज्ञानिकों ने अब खुद मानव को भी उड़ाने की खोज कर ली है लेकिन मजदूरों की हालत के आगे सारे विज्ञान और विकास धरे के धरे रह गए।
भारत सरकार ने जिन बड़े बड़े हाईवे को गाड़ियों के सरपट दौड़ने के लिए बनाया था आज उस पर मजदूरों की पैदल चलने वाली लाइन नजर आ रही है ऊपर से चिलचिलाती धूप और नीचे से गर्म सड़कें भी मजदूरों को रोकने में नाकाम हो रही है। पूरे परिवार का बोझ लिए वह हजारों किलोमीटर की यात्रा करने को विवश हैं इनकी हालत अगर देखो तो दिल कांप जाता है ऐसा लगता है कि भगवान ऐसी मजबूरी किसी को ना दे। मजदूरों के एक कंधे पर बैग और दूसरे पर बच्चा देखकर उनकी मजबूरी और जिम्मेदारी का आकलन आसानी से लगाया जा सकता है। इस दौरान कुछ ऐसी महिलाओं को भी देखा गया जिनके गोद में दूध पीता बच्चा भी था उनसे जब बात की गई तो उनकी दर्दनाक कहानी ने भी झकझोर दिया, उन्होंने बताया कि उनके पास ना तो रहने के लिए मकान है और ना ही खाने के लिए पैसे, जहां काम करते थे उस मालिक ने भी उनकी कोई मदद नहीं की और इन्हें इनके हाल पर छोड़ दिया। कुछ महीने के बच्चे को गोद में लेकर हजारो किमी की यात्रा की सोच से ही रूह कांप जायेगी।
सरकार की तरफ से अचानक से लॉक डाउन का ऐलान किया गया किसी को कुछ नहीं समझा कि आखिर यह क्या हो रहा है? समझता भी तो आखिर कैसे? किसी ने इससे पहले ऐसा नजारा नहीं देखा था और ना सुना था। लॉक डाउन का ऐलान होते ही एक के बाद एक फैक्ट्रियां और काम धंधे बंद होने लगे, बीच में फंसे मजदूर को कुछ भी समझ नहीं आ रहा था कि उसे अब क्या करना है क्योंकि फैक्ट्रियों के बंद होने से उसकी हर महीने होने वाली कमाई अब रुक गई जो कुछ भी उसके पास था उससे कुछ दिन गुजारे गए लेकिन अब फैसले की घड़ी आ गई थी या तो घर में भूखे ही मरना होगा या फिर पैदल गांव जाना होगा लेकिन सभी को गांव की यात्रा का फैसला सही लगा और एक-एक कर सभी मजदूर सपरिवार पैदल ही निकलने लगे क्योंकि उन्हें उम्मीद थी जैसे तैसे वह अपने घर तक पहुंच ही जाएंगे। हालांकि घर पहुंचने का हर मजदूर का सपना पूरा नहीं हुआ और कुछ को रास्ते में ही अपनी जांन गवानी पड़ी।
लॉक डाउन के बाद महाराष्ट्र, दिल्ली, पंजाब और तेलंगाना से मजदूरों का पलायन देखने को मिल रहा है और यह मजदूर उत्तर प्रदेश और बिहार जाने वाले ज्यादा है। इन सभी राज्यों से यूपी और बिहार की दूरी करीब 1 हजार किलोमीटर से ज्यादा की है नतीजा इन्हें कम से कम 15 दिन पैदल चलना जरूरी है। वहीं बेबस मजदूर अपनी आखरी सांस तक पैदल चलता हैं और जब थकता हैं तब कहीं पर भी कुछ खा कर सो जाता हैं इनके लिए अब ना खाने में कोई दिलचस्पी रह गई और ना ही सोने की जगह में, जो मिला वह खा लिया जहां गिरे वही सो गए। लेकिन आंखों में उम्मीद लिए यह लोग जिंदगी का यह इम्तहान भी किसी ना किसी तरह पास कर ही लेंगे।
देश में तीसरी बार लॉक डाउन लगाया गया है जिसके चंद दिन और शेष हैं। सरकार की तरफ से यह कहा गया है की लॉक डाउन 4.0 के नियमों में ढील दी जाएगी और मजदूरों के लिए घर जाने की व्यवस्था की जाएगी लेकिन मजदूरों की लंबी लाइनों को देखकर ऐसा लगता है कि इन्हें अब सरकार की किसी भी बात का भरोसा नहीं रहा इसलिए यह अपना समय गवाएं बिना पैदल चलने को तैयार हैं या यूं समझें कि इन लोगों ने पैदल चलने को ही अपनी किस्मत मान लिया है इसलिए लाखो की संख्या में मजदूर झुंड के झुंड पैदल चलते हुए बड़ी बड़ी सड़कों पर नजर आ रहे है लेकिन इससे भी बुरा तब लगता है जब इनकी मदद करने के बजाय पुलिस द्वारा इन पर डंडे बरसाए जाते हैं। ऐसे तमाम वीडियो सोशल मीडिया पर भी उपलब्ध है जिसमें मजदूरों को डंडे मारे जा रहे है।
पूरी दुनिया में बहुत पहले से ही मजदूरों को निचले वर्ग में गिना जाता है लेकिन यह वही वर्ग है जो हजारों साल पहले भी देश को आगे बढ़ाने में मदद करता था और आज भी अर्थव्यवस्था में इनका सबसे बड़ा योगदान है। आने वाले समय में अगर मजदूरों ने फिर से शहरों का रुख नहीं किया तो ना जाने कितने उद्योग धंधे बंद होने की कगार पर पहुंच जाएंगे क्योंकि जिस तरह से मजदूरों की उपेक्षा की जा रही है इससे यह उम्मीद लगाई जा सकती है कि मजदूरों का एक बड़ा प्रतिशत अब शहर की तरफ वापसी नहीं करेगा। शहर में लगातार बढ़ती महंगाई की वजह से अब शहर में मजदूर वर्ग का जीवन निर्वाह करना कठिन होता जा रहा है ऐसे में मजदूर वर्ग फिर से गांव की तरफ रुख कर सकता है।
देश में मजदूरों की कुल संख्या कितनी है इसका सरकार के पास भी कोई आंकड़ा नहीं है क्योंकि ज्यादातर मजदूरों के पास कोई कागजात नहीं है उनकी जिंदगी सिर्फ हर दिन कमाने और परिवार का पेट पालने में खत्म हो जाती है। 16 मार्च 2020 को श्रम राज्य मंत्री संतोष सिंह गंगवार ने एक आंकड़ा पेश करते हुए बताया था कि 2011 में देश में मजदूरों की संख्या करीब 48 करोड़ के आसपास थी लेकिन अब 9 साल और बीत चुके हैं यानी मजदूरों की संख्या में बड़ा इजाफा हुआ होगा लेकिन मजदूरों का सड़कों पर पैदल चलना यह साबित करता है की सरकार अभी भी इनके लिए कुछ नहीं कर पा रही है और इन्हें इनके ही हाल पर छोड़ दिया गया है।