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 ईर्ष्या

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by राजेन्द्र परदेसी
in जुलाई -२०१५, सामाजिक
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रोज की तरह खेत से लौटते समय शाम को मंगरुवा ठाकुर भूला सिंह की हवेली की ओर चला गया। दालान में पैर रखते ही ‘पांव लागी’ बोला और चिलम की आग सुलगाने लगा जो अब बुझने लगी थी। फिर धीमी आवाज में बोला-सरकार! आपने कुछ सुना?’
‘क्या बात है?’ ठाकुर शायद अर्द्धनिद्रा में थे, गांधी साहित्य सिरहाने से उठाकर टेबुल पर रख दिया और आंख मलने लगे।
मंगरुवा ने तुरन्त पांव पकड़ लिया और दबाते हुए पहुंचा पकड़ने की कोशिश की।
‘रतनवा बीस हजार की जोड़ी ले आया है सरकार’ मंगरुवा ने बात शुरू की।
‘कहां से लाया है?’ ठाकुर ने करवट बदली।
‘सुन्दरवा कमाने लगा है न्।’
‘कहां?’

‘सुना है, कोलकाता में कहीं काम करता है। हर महीने बाप के पास पांच हजार भेजता है।
ठाकुर की आंख फैल गई। फिर इत्मीनान के मुद्रा में बोले-रतनवा ने बड़ी तकलीफ से बेटे को पढ़ाया। चलो, अच्छा हुआ। कम से कम बाप का सहारा तो हुआ।

रतनवा के बेटे की प्रशंसा मंगरुवा को अच्छी न लगी। किसी का पट्टीदार आगे बढ जाए और उसे यह अच्छा लगे असंभव। बोला-सरकार। यह तो आपकी कृपा थी जो आपने गाहे-बेगाहे उसकी मदद की; नहीं तो गांव में कितने लड़के पड़े हैं, कहां कौन पढ़कर साहब हो गया?’
‘सो तो है’ ठाकुर ने मात्र हुंकारी भरी।

‘लेकिन सरकार, एहसान मानने के कौन कहे, रतनवा तो उल्टे आपकी पगड़ी उछालते चल रहा है।’
मंगरुवा की बात सुनकर ठाकुर चौक पड़े बोले-‘क्यों रे क्या बात है?’
निशाना ठीक जानकर मंगरुवा बोला-सरकार! क्या करियेगा जानकर? अच्छी बात हो तो बताऊं भी’,
ठाकुर की जिज्ञासा सच्चाई जानने के लिए बढ़ गई जोर देकर बोले-बोलता क्यों नहीं?

‘सरकार! आप कह रहे हैं, तो बताता हूं-‘रतनवा एक दिन कह रहा था कि ठाकुर साहब की टाड़ी वाली जमीन लेने की सोच रहा हूं। उसमें एक पक्का मकान बनवा लूं। झोपड़ी गिर गई है। ठीक कराने से अच्छा है कहीं दो पक्के कमरे बना लिए जाए…उसकी बातों से बहुत गुस्सा आया कि चार पैसे क्या हो गए सबकी जमीन ही खरीदेने लगा। भूल गया सरकार जब आपके यहां चरवाही करता था।

ठाकुर को याद आया-चार दिन पहले ही तो रतनवा बेटे के साथ उनके पास आया था। बेटे को कैसे डांट रहा था- चार अक्षर पढ़ क्या लिया बड़े-बूढ़ों की इज्जत करना भूल गया…जल्दी चल बाबा के पैर छूकर प्रणाम कर। लड़के ने पैर छूकर प्रणाम किया और संकोच से एक किनारे खड़ा हो गया था। उन्होंने मंगरुवा को कहते सुना-सरकार, रतनवा की बात सोच रहे हैं क्या? जाने दीजिए। दूसरा कोई होता तो उसकी जबान ही खिंचवा लेता…आप तो देवता हैं जो सुनकर भी टाल देते हैं।

‘नहीं ऐसी बात नहीं, मैं सोंच रहा हूं कि क्यों न कल शहर जाकर टाड़ी वाली जमीन रतनवा के नाम रजिस्ट्री कर दूं। बेचारा बाप-बेटा चार दिन पहले आकर कितना अनुरोध कर रहे थे….ऐसा कर कि तू ही जाकर उसे बता दे। कल सबेरे तैयार होकर मेरे पास आए।
ठाकुर की बात सुनकर मंगरुवा को लगा जैसे उस पर घड़ों पानी पड़ गया है। अपने को छुपाने के लिए अंधेरे में खो गया है।
प

राजेन्द्र परदेसी

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