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मीडिया के उन ‘लिबरलों’ से रहें सतर्क

मीडिया के उन ‘लिबरलों’ से रहें सतर्क

by अरुण आनंद
in जुलाई - सप्ताह तिसरा
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कोरोना महामारी के दौरान मीडिया में तथ्यात्मक, सकारात्मक व नकारात्मक तीन स्वरूप उभरे हैं। इसमें से नकारात्मक खबरें बोने वाले वे वामपंथी हैं, जो अपने को ‘लिबरल’ कहलवाते हैं, लेकिन हैं प्रतिक्रियावादी। उनके चेहरों को समझना जरूरी है।

अन्य सभी क्षेत्रों के साथ ही भारतीय मीडिया भी कोविड-19 के प्रकोप से बुरी तरहं प्रभावित हुआ है। विमर्श के परिप्रेक्ष्य से देखें, जिसे आम भाषा में आजकल ’नैरेटिव’ भी कहा जाता है, तो कोविड-19 का जिस प्रकार का कवरेज भारतीय मीडिया ने किया उसे तीन श्रेणियों में रखा जा सकता है।

पहली श्रेणी में तथ्यात्मक कवरेज है, दूसरी में सकारात्मक तथा तीसरी में नकारात्मक कवरेज है। तथ्यात्मक कवरेज के अंतर्गत वे आलेख व समाचार आते हैं जो विशुद्ध रूप से तथ्यों के आधार लिखे गए। इनमें न तो किसी की प्रशंसा का प्रयास किया गया न ही किसी की आलोचना का। दूसरी श्रेणी में वह कवरेज है, जिसने चिंता के माहौल में समाज को संबल देने का प्रयास किया। इस श्रेणी में वे समाचार व आलेख आते हैं जिनमें समाज व प्रशासन द्वारा किए गए प्रयासों के सकरात्मक परिणामों पर ज्यादा बल दिया गया। तीसरी श्रेणी में वह नकारात्मक कवरेज है जिसने समाज को बांटने का प्रयास किया।
एक उदाहरण से हम इसे समझ सकते हैं। प्रवासी कामगारों ने जब लॉकडाउन के दौरान अपने घरों की ओर लौटने का प्रयास आरंभ किया उस समय कुछ समाचार माध्यमों में यह जानकारी आई कि उनकी कितनी संख्या है, उनके लिए सरकारों या प्रशासन ने क्या प्रबंध किए हैं और उनके सामने क्या समस्याएं आ रही हैं जिनके निदान की आवश्यकता है। यह पहली श्रेणी के अंतर्गत आने वाली कवरेज है। कुछ समाचार माध्यमों ने इस प्रकार की खबरें और आलेख दिए कि किस प्रकार समाज आगे बढ़कर प्रवासी बंधुओं के भोजन, निवास, दवा, यात्रा आदि का स्वयं प्रबंध कर रहा है और किस प्रकार कई जगह प्रशासनिक अधिकारियों ने अपनी कर्तव्यपरायणता का उत्कृष्ट नमूना दिखते हुए मानवीय आधार पर प्रवासियों को नियम कायदों के दायरे को लांघकर भी अतिरिक्त सहायता उपलब्ध करवाई ताकि उन्हें कोई दिक्कत न हो- यह दूसरी श्रेणी वाली कवरेज है। तीसरी श्रेणी में वे समाचार और आलेख थे जो बार-बार केवल प्रवासियों को हो रही दिक्कतों को इस प्रकार दिखा रहे थे मानो समाज और प्रशासन की ओर से उनके लिए कुछ नहीं किया गया, बल्कि उन्हें अपने हाल पर ही छोड़ दिया गया।

पिछले कुछ समय से देश में तथाकथित पत्रकारों व समाचार माध्यमों का एक विशिष्ट समूह उभरा है जिसका काम केवल सरकार और समाज की आलोचना है। वे अपने आप को ’लिबरल’ याने ’उदारवादी’ कहते हैं। पर उनसे ज्यादा अनुदारवादी शायद ही कोई आपको मिले। वे अपने विमर्श के अलावा किसी और के विमर्श पर चर्चा करने को तैयार नहीं होते हैं। वे तथ्यों को संदर्भों से अलग कर प्रस्तुत करते हैं तथा समाज में अराजकता को बढ़ाने के प्रयासों में सहर्ष ही सहभागी बनते हैं। उनका गुस्सा इस देश में हो रहे व्यवस्था परिवर्तन से है, जिसके कारण वे अप्रासंगिक होते जा रहे हैं और मीडिया जगत में भी हाशिए पर पहुंच गए हैं। अब वे न सरकारें बना सकते हैं न ही उन्हें पर्दे के पीदे से चलाकर उनसे सभी तरह के लाभ उठा सकते हैं।

मीडिया जगत में इन्हें हम प्रतिक्रियावादी के नाम से जानते हैं, इसलिए उन्हें ’लिबरल’ नहीं ’रिएक्शनरी’ कहा जाना चाहिए।
यह तो बात हुई कंटेंट की। अब बात करते हैं भारतीय मीडिया के बदलते स्वरूप की। लॉकडाउन के दौरान प्रिंट मीडिया को बड़ा झटका लगा है क्योंकि समाचार-पत्रों और पत्रिकाओं के प्रसार में भारी कमी आई। लोगों ने बड़ी संख्या में समाचार-पत्र लेना बंद कर दिया। वे टीवी और इंटरनेट के माध्यम से नवीनतम जानकारियां प्राप्त करते रहे।

विज्ञापन, जो समाचार-पत्रों की आय का मुख्य स्त्रोत है, लगभग बंद हो गए। केवल सरकारी विज्ञापन ही छपते रहे वह भी बहुत कम। चूंकि उनसे मिलने वाला राजस्व व्यावसायिक विज्ञापनों से बहुत कम है, इसलिए इन समाचार-पत्रों की वित्तीय स्थिति गड़बड़ा गई है। टीवी चैनलों पर भी विज्ञापन की कमी की मार पड़ी। परिणाम यह हुआ है कि लगभग सभी प्रमुख समाचार पत्रों ने अपने कई संस्करण बंद कर दिए। टीवी और प्रिंट मीडिया में नौकरियों पर गाज गिरी। बड़ी संख्या में मीडियाकर्मी रातों-रात बेरोजगार हो गए। इससे प्रिंट और टीवी मीडिया में मालिकों के अलावा सभी के लिए डर और आशंका का माहौल है। फिलहाल आगे की राह अभी स्पष्ट नहीं दिख रही है। ऐसा भी अनुमान है कि लोगों को इंटरनेट पर समाचार व जानकारियां निशुल्क तथा जल्दी मिल जाती हैं, इसलिए कोविड-19 समाप्त होने के बाद इंटरनेट पर समाचार वेबसाइट के लिए अच्छे दिन आने वाले हैं। कुल मिलकार ऐसा लगता है कि मीडिया जगत अब आपके मोबाइल हैंडसेट पर सिमट जाएगा। इस नए मीडिया जगत का वित्तीय मॉडल क्या होगा, यह अभी स्पष्ट नहीं है।

साथ ही इंटरनेट पर मीडिया की जवाबदेही को लेकर भी चुनौतियां हैं। अभी तक इंटरनेट पत्रकारिता का नियमन नहीं हो पाया है। ’फेक न्यूज़’ अब हमारे सामने एक बड़ी चुनौती के रूप में उभर रहा है। कई समाचार वेबसाइट ऐसी हैं जिन्होंने इस पूरे संकट के दौरान माहौल बिगाड़ने का प्रयास किया। इनमें से अधिकतर में प्रतिबद्ध वामपंथी पत्रकार काम करते हैं। वे अपने आपको निष्पक्ष पत्रकार के रूप में पेश कर वैचारिक जामा पहना कर खबरों को एक विशेष दृष्टिकोण से पेश करते हैं तथा फिर ’पेड सोशल मीडिया’ के माध्यम से उन्हें वायरल करवा कर अपनी वेबसाइट पर ट्रैफिक बटोरते हैं। विचारों की स्वतंत्रता को बनाए रखते हुए ऐसे प्रयासों के लिए कारगर नियमन प्रणाली बनाने की आवश्यकता है।
                                                                                                                                             -लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं-

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अरुण आनंद

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