सावन कि यह कैसी सरगम

सावन-भादो की बारिश का संगीत और उसमें जुड़ते वैज्ञानिक आधार के स्वर इस नाटिका को इंद्रधुनुषी रंगों से भर देते हैं। साहित्य और विज्ञान दोनों एक धरातल पर आ जाते हैं। यह एक अद्भुत संयोग है।

इद्रंधनुष्य के झूले में झूलें सब मिल जन
फिर-फिर आए जीवन में, सावन मन भावन,

सावन का महिना आध्यात्मिक, धार्मिक, राष्ट्रीय और सामाजिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है।
प्राचीन भारत में श्रावण मास की पूर्णिमा से ऋषि गण अपनी- अपनी वैदिक शाखा का अध्ययन आरंभ करते थे।
मास में आश्रम में रहकर स्वाध्याय तथा यज्ञ होता था और यज्ञ की पूर्णाहुति होती थी श्रावण पूर्णिमा को।
सामाजिक दृष्टि से भाई-बहन के पवित्र त्यौहार रक्षाबंधन  का महीना है यह। सावन में ससुराल से मायके आने की चाहो भला किसी विवाहिता को नहीं होती है।
राष्ट्रीय स्तर पर स्वाधीनता उत्सव, रिमझिम फुहारों के बीच संपन्न होता है।
वर्षा की यह फुहारें देश की पावन धरती को सहल आने लगती हैं। इन फुहारों से धरती का तन भीगता है और भीगता है हमारा मन। तन मन की पुलकित होने से भाव सतरंगी होने लगते हैं। आकाश में धूप और मैं मिलकर इंद्रधनुष बनाते हैं और..
इधर धरती पर, भाऊ कुमार के इंद्रधनुषी रंग कागज पर उतरने लगते हैं।

छाए सघन घन सावन के                                 
मन मन के मन भावन के
मेघा सजल फिरते अंबर में
झर झर झर, निर्झर गिरिसर में
हरयाली वन उपवन उर में
गुंजा गगन घन प्लावन के।
छाए सघन घन-
बहता कल कल, नित निर तरल
ठहरा सा कहीं तीव्र चपल
दे(कर) वसुधा को तृप्ति विमल
कमल भरे सर सावन के।
छाए सघन घन-
खिलती कलियां हंसती हिलकर
हुआ मुदित मन प्रिय से मिलकर,
कभी मुक्त कर, कभी पकड़कर
गाते स्वर भर पावन के।
छाए सघन घन सावन के
मन मन के मनभावन के।

वर्षा होते ही नदियों में जल भरने लगता है, वन उपवन में हरियाली हाशिए बनाती है, धरा का श्रंगार होने लगता है।
छोटे बड़े ताल और नाले जो अब तक जल के अभाव में शांत पड़े थे, उन में हलचल होने लगती है। नदी नालों के जलस्तर के बढ़ने को वैज्ञानिक खतरे का संकेत मानते हैं।
तो दूसरी और कवि कल्पना में इतना भरना वैसा ही है जैसे सज्जन के पास सदगुण भरते जाते हैं।

समिति समिति जल भराहिं तलावा,
जिमी सद्गुणी सज्जन पहिंआवा।

क्योंकि प्रकृति और मनुष्य का संबंध अटूट है, इसीलिए प्रकृति के परिवर्तन मनुष्य के जीवन और स्वभाव में भी दिखाई देने लगते हैं।

प्रकृति को पढ़ना उसे जानना, यह मनुष्य के स्वभाव में हैं और वर्षा या बारिश के आने का अंदाजा उसका अध्ययन तो लोग हजारों वर्षों से कर रहे हैं।

क्योंकि इसी बारिश पर हजारों लाखों लोगों की रोजी-रोटी निर्भर करती है।
किसान तो हजारों वर्षों से मौसम के खास व्यवहार को देखते रहे हैं, लेकिन पहले जमाने में मौसम पर आज की तरह वैज्ञानिक अध्ययन नहीं हुआ था।

मानसून आने का सबसे जाना पहचाना संकेत था पपीहे की पुकार और मोर का नाच।
इसी तरह केंचुए का जमीन से निकलना, गौरैया का चहचहाना, कुत्ते बिल्ली का घास खाना और मेंढक की टर्र टर्र, बारिश की सूचना समझी जाती थी।

आज बारिश या मानसून की भविष्यवाणी करना मौसम विज्ञान विभाग की जिम्मेदारी है, यह संस्था बारिश की भविष्यवाणी कैसे करती है आइए जाने, मौसम वैज्ञानिक डॉ मिलिंद मजूमदार से…

मानसून के मौसम में वर्षा लगातार नहीं होती, बल्कि आंख मिचोली खेलती है। अब इसका प्रमुख कारण कहा जा सकता है कि भारत की विषम भौगोलिक स्थिति। उसके साथी क्षेत्रीय और वैिेशक जो घटक है- वायुमंडलीय और समुद्री घटक-उनका जो परस्पर संबंध है, व मानसून की जटिलता के प्रमुख कारण होते हैं।

हमारे देश में मानसूनी वर्षा का जो विेशस्तरीय पूर्वानुमान लगाया जाता है, वह आज भी एक महत्वपूर्ण चुनौती है। 19वीं सदी में भारतीय मौसम विभाग की जब स्थापना हुई तो उसके साथ ही वैज्ञानिक दृष्टिकोण से मानसून वर्षा का पूर्वानुमान लगाया जाने लगा। अब इसमें जो क्रांति हुई, वह 1970 के दशक में सेटेलाइट के साथ हुई। 1980 के दशक में एक प्रारूप बनाया गया सर्वसम्मति से, जिसमें कई मौसमी घटकों को सम्मिलित किया गया। उसके बाद 1990 के दशक में गतिक विज्ञान के आधार पर कंप्यूटर मॉडल के प्रयोगों द्वारा मानसून के पूर्वानुमान को अटैम्टूट किया गया।

मानसून की सटीक जानकारी के लिए मौसम के पूर्वानुमानों को भौगोलिक आधार पर भी विभाजित किया जाता है-
डॉ. मजूमदार कहते हैं-

मानसून की सटीक जानकारी के लिए मौसम के पूर्वानुमान को भौगोलिक आधार पर भी विभाजित किया जाता है। डॉ. मजूमदार कहते हैं-आजकल इस पूर्वानुमान को क्षेत्रीय और समय अंतराल की दृष्टि से मुख्यत: चार भागों में बांटा गया है, जैसे- उत्तर-पश्चिम, मध्य उत्तर-पूर्व एवं दक्षिणी क्षेत्रों के दैनिक, साप्ताहिक पाक्षिक, माटी के साथ-साथ ऋतु के अनुकूल पूर्वानुमान।

अब एक और बात आती है कि प्रशांत महासागर तथा हिंदी महासागर में विषुवत रेखा के मध्य और पूर्वी क्षेत्रों में तापमान की गड़बड़ जिसे क्रमशः एल नीनो, इलिनो तथा आयोडी कहा जाता है। यह जो घटक है, यह मानसून के पूर्वानुमान के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है।

वर्तमान में हमारा मुख्य ध्येय यह है कि समर्पित वैज्ञानिक समूह उन्नत तो एवं आधुनिक तकनीक पर सुपर कंप्यूटर एवं पर्याप्त संसाधनों द्वारा मानसूनी वर्षा के पूर्वानुमान के सार्थक आंकड़े प्रस्तुत करें। हम कर पाएं, ताकि हमारा देश आज कृषि उपज तथा संबंधित क्षेत्रों में समृद्ध हो।

आज भी मौसम की पड़ताल लोक-ज्ञान और वैज्ञानिक आधार पर की जा रही है। स्वयं शोधकर्ताओं का मानना है कि पेड़ पौधों और पशु पक्षियों को बदलते मौसम की खबर जल्दी लगती है।

कहा जाता है कि भूकंप की जमीनी तरंगों से सुनामी का एहसास सबसे पहले हाथियों को हुआ था।
कारण यह है कि पशु पक्षी, प्रकाश, ध्वनि तरंगों, हवा केतापमान और दबाव और सांद्रता की प्रति अधिक संवेदनशील होते हैं।
सच तो यह है कि एक मौसम खुद दूसरे मौसम की भविष्यवाणी भी करता है-

जुलाई अगस्त यानी सावन भादो में खूब हवाएं चलने का मतलब है, अक्टूबर-नवंबर में बारिश का होना।
यदि बारिश अच्छी होगी, तो खेती फलेगी। अनाज महंगा नहीं होगा। वातावरण शांत होगा और जलवायु भी पवित्र होगी।
वर्षा प्रकृति की देन है और बरखा की इस सावन की यह चाहत है कि सबको खुशहाली मिले।

लेकिन उसकी इस सोच को क्या हम ही बाधा नहीं पहुंचाते? पर्वत के सीने पर लेटी डूब और झाड़ियां मुस्काती है, लेकिन हम पर्वत को ही उखाड़ देना चाहते हैं, तब सावन की चाहत का क्या होगा-

सावन की चाहत है सबको
मिले खुशहाली और हरियाली
कौन सुखा देता है सरिता
ज्ञात नहीं होता बादल को।
पर्वत के सीने पर लेटी, दूबी और झाड़ी इठलाती
गले लिपट ऊंचे पेड़ों संग, बेले भी मन-मन मुस्कातीं
फिर बहता पानी थम जाता, मेघना मिलने को नित आता
कौन नजर लगा जाता है, ज्ञात नहीं होता परबत को।
सावन की चाहत-
अंधियारी की कहां है हिम्मत, टिक पाए सूरज के आगे
पर बादल का साहस देखो, बढ़ आता ढंकने को आगे
पढ़ना होनी जीत कभी है, सबका जा ना सकते यही है
कौन बरगला देता उसको, ज्ञात नहीं होता सूरज को-
सावन की चाहत-
तितली के आने की सुनकर, फूलों ने मुस्कान बिछा दी
भौरों ने मधुगान सुनाकर, कलियों में ही लाज बढ़ा दी
यह सारा सुख अपनी आंखों, बैठा देखा करता माली
कौन तोड़ जाता है डाली, ज्ञात नहीं होता उपवन को। सावन की चाहत-

सावन के महीने में वर्षा आंख -मिचोली खेला करती है, इस ऋतु में कभी-कभी दिन में घोर अंधकार छा जाता है।
तो कभी सूर्य तेज चमकने लगता है, इसके आवागमन के पूर्वानुमान में वैज्ञानिक भी असमंजस में पड़ जाते हैं।
मौसम की भविष्यवाणी करने में, महासागरों में ठंडे और गरम प्रवाहों की दिशाएं, एल नीनों, हवा का दबाव, महाद्वीपों क ा सतही तापमान आदि को आधार बनाया जाता है-
इसके अलावा भी मानसून को कारक प्रभावित करते हैं।
बता रहे हैं वरिष्ठ मौसम विज्ञानी डॉ. नित्यानंद सिंह-
1813 से लेकर 2007 तक के आंकड़े हमारे पास हैं। करीब 150 से 195 साल के ऐसे आंकड़े बहुत कम जगह हैं वर्ल्ड में। काफी साफ – सुथरा कार्य है। काफी डिटेल में अध्ययन किया गया है। इस बूते पर हम पहुंचे हैं कि भारत में करीब 75 एरिया में बरसात कब हो रही है। मौसमी बरसात, जो मानसून की बरसात है, वह कम हो रही है और इसकी ज्यादा कमी जुलाई, अगस्त और सितंबर महीने में देखी गई है।

इसके पीछे जाकर देखा कि ऐसा क्यों हो रहा है। तो हम लोगों ने समुद्र के ऊपर काफी अध्ययन किया और जमीन के ऊपर भी अध्ययन किया। इक्वेटर में भी अध्ययन किया, पोलर क्षेत्र में भी अध्ययन किया। तब जाकर हमें पता लगा कि तिब्बत के ऊपर- ‘ओवर ट्रोवोल्स’ जिसे हम बोलते हैं- ठंडा पड़ रहा है। पिछले करीब 1964 के बाद से। 1964 के बाद से अगर देखें तो हिंदुस्तान के ऊपर 2006 तक करीब 4 से 5 प्रतिशत तक बरसात कम हो गई है औसतन, जो कि बहुत बड़ी मात्रा है। अभी हम यह ढूंढ नहीं पाए हैं कि ओपन ट्रोवोल्स की तिब्बत के ऊपर या अफगानिस्तान-पाकिस्तान मेडिटेरियन के ऊपर, टर्की के ऊपर क्यों ठंडा पड़ रहा है। जबकि उसी क्षेत्र में उसके अगल बगल के क्षेत्र में, अगर समुद्री इलाकों में देखा जाए तो तापमान बढ़ रहा है। तो उस एरिया में जो हम-ट्रस्ट- बोलते हैं, वह फ्रिक्वेंटली कामकर रही है। इसलिए पूरे नॉर्थ इंडिया में ज्यादातर, अभी उसका जो प्रभाव पड़ा हुआ है। साउथ में तो ज्यादा नहीं है, लेकिन नॉर्थ इंडिया में करीब 20 डिग्री और उसके ऊपर ज्यादा प्रभाव पड़ा है। करीब-करीब हर जगह बरसात कम होती जा रही है।

लेकिन महाराष्ट्र अभी तक इतना प्रभावित नहीं हुआ है और उत्तर का जो तटीय इलाका है, वह भी प्रभावित नहीं हुआ है। बाकी करीब-करीब मोटे तौर पर बोले तो हर जगह बरसात कम हुई है।अभी हम दो- तीन सेक्युलेशन में लगे हुए हैं कि अपर ट्रोवोल्स परिया तिब्बत के ऊपर क्यों ठंडा पड़ रहा है।

उसके दो तीन कारण हैं- हो सकता है कि वहां पर ओजोन की मात्रा होती है जिससे वह एरिया गर्म होता है, वह कम हो गया हो। दूसरा, मॉइश्चर ग्रीन हाउस की तरह काम करते हैं। पानी की मात्रा वह कम पड़ गई या हो सकता है कि वहां पर धूल की मात्रा बढ़ गई हो, जिससे कि वहां आने वाला सोलर रेडिएशन कट – ऑफ हो जाए। ताज्जुब की बात यह है कि नीचे अगर1 से 4 किलोमीटर तक हम देखें, तो वहां तापमान गर्म हो रहा है, लेकिन 4 से6 किलोमीटर का तापमान करीब-करीब बराबर है। कोई परिवर्तन नहीं है। लेकिन 6 से 12 किलोमीटर ऊपर देखें तो तापमान काफी कम हो गया है। तो यह हमारी बीच अध्ययन का विषय है। यह लग रहा है कि नीचे की- जो हम ग्लोबल वार्मिंग बोलते हैं- वे चीजें सिर्फ हमारी सतह तक ही सीमित है। क्षेत्र इसके विपरीत ठंडा पड़ रहा है जिसकी वजह से हम मौसमी बदलाव देखते हैं। कोई कंसिसटेन्सी दिख रही है आजकल। यही इसका मुख्य कारण है।

भारत में वर्षा के तीन रूप है, अतिवृष्टि, अनावृष्टि और औसत वृष्टि।
कभी तो बारिश अच्छी यानी आवश्यकता के मुताबिक होती है तो कभी इतनी अधिक हो जाती है कि इससे जन-जीवन अस्त- व्यस्त हो जाता है

तो कभी इतनी कम कि अकाल पड़ जाता है। 1930के बंगाल के अकाल को कौन भूल सकता है।
आज भी बारिश की कमी किसानों के जीवन-मरण का प्रश्न है। किसानों की आत्महत्या के पीछे एक कारण पानी का ना होना भी है।

बारिश कम, अधिक किया अनुकूल होने तक ही इसकी कहानी नहीं है।
बारिश कब- कब, कैसी-कैसी और कहां-कहां हुई है, इसकी भी अपनी विचित्र अता है (ध्वनि प्रभाग बारिश का)
सावन के महीने में सन 2001 घर में लाल बारिश होने की खबर छपी थी।

वैज्ञानिकों का अनुमान था कि लाल बारिश का कारण उल्का तारा हो सकता है, पर पानी की जांच करने पर उसमें लाल रंग के कई सूक्ष्म जीवाणु दिखे।
इसी तरह जून 2005 में सर्बिया के ओडजाजी और में तेज हवाओं ने हजारों छोटे-छोटे मेंढक बरसाए।

चिड़ियों की बरसात का एक विचित्र किस्सा हांडूरस का भी है। वहां के योरो शहर में मछलियों की बारिश का त्यौहार भी मनाया जाता है। (संगीत प्रभाव)
बारिश के मौसम में बिजली का चमकना, हवाओं का तेज हो जाना, बादलों का गर्जना, घटाओं का उमड़ना घुमड़ना और नदी नालों का उफनना प्रकृति का उल्लास है।

यह उसकी सरगम है, जो हमारे कानों में एक गुनगुन आहट भर्ती है। इस किले में खेत खलिहान हरियाने लगते हैं, बूंदों के बाण चलते हैं, जीन्हेे धरती आंख मूंदकर सहती है।

पावस ऋतु नारी है तो नर सावन है, उसके रस रिमझिम में सुहाना संगीत है, उसका रूप अनोखा है, पर रोज बदलता है, वह पानी की फुलझड़ियां लाता हैं।
सावन की इस सरगम से मन कभी रिझता है तो कभी खीझता है, लेकिन यह सावन हमें भाता है, लुभाता है।

सावन की यह कैसी सरगम
बिका करता जिससे तन मन
कभी पुलक तो कभी कसक बन
बरसा करती मन के आंगन
सावन की यह कैसी सरगम।
बादल के यह रूप अनोखे
चलते सर्द हवा के झोंके
माटी की है गंध सुहावन
करती मन को शीतल हरदम
सावन की यह कैसी सरगम।
टप टप बूंदों की यह लड़ियां
जैसे पानी की फुलझड़ियां
गाती हिलमिल सारी गलियां
अब ना बाकी कोई अनुबन
सावन की यह कैसी सरगम।
नहीं ठिकाना शांत सवेरे
इनके रोज बदलते चेहरे
पर इनके सर हर दम सेहरे
ताका करता सूखा उपवन
सावन की यह कैसी सरगम
भीगा करता जिससे तन मन।

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