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कांवरिया और गंगा जल

कांवरिया और गंगा जल

by राजेन्द्र
in अगस्त-२०१५, सामाजिक
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भगवान विष्णु के चरणों मे गंगाजी के निवास करने के कारण भगवान भोलेनाथ को गंगा जल अति प्रिय है। इसी कारण वे गंगाजी को अपने मस्तक पर धारण किए हुए हैं। भगवान विष्णु के अवतार कहे जाने वाले भगवान श्रीराम ने स्वयं कहा है कि –

‘‘संकर प्रिय मम द्रोही सिव द्रोही मम दास,
ते नर करहिं कलप भर घोर नरक महुं बास।’’

माता सती द्वारा राम की परीक्षा लेने के लिए माता सीता का रूप धारण करने के कारण भगवान शिव जी ने भी अपनी अर्धागिनी सती जी त्याग कर सिद्ध कर दिया कि –

‘‘जाके प्रिय न राम वैदेही तजिये ताहि कोटि बैरी सम यद्यपि परम सनेही।’’
त्रेतायुग मे जब भगवान श्रीराम ने समुद्र पर पुल का निर्माण कर लंका में प्रवेश किया तो समुद्र तट पर शिव लिंग की स्थापना कर उसका विधिवत पूजन किया। आज वह स्थान रामेश्वरम् के नाम से जाना जाता है। श्रीरामेश्वरम् द्वादश ज्योतिर्लिंगो में से एक है। भगवान श्रीराम ने रामेश्वरम् की स्थापना कर कहा-

जे रामेश्वर दर्शन करिहहिं ते तनु तजि मम लोक सिधरिहहिं्।
जो गंगाजल आनि चढ़ाइहिं सो साजुज्म मुक्ति नर पाइहिं्।

मान्यता है कि तभी से लोग रामेश्वरम् का दर्शन करने जाते हैं और गंगा जल चढाते हैं।
पौराणिक मान्यता के अनुसार श्रावण मास में सभी देवी देवता विश्राम पर चले जाते हैं। इसे चातुर्यमास भी कहते हैं। परन्तु भगवान शंकर इस समय सभी भक्तों को सरलता से उपलब्ध रहते हैं। इसी कारण शिव भक्त इस मास में शिव की पूर्जा अर्चना करते हैं और शिवलिंगों पर जलाभिषेक करते हैं।

यह भी मान्यता है कि भगवान श्रीराम ने झारखंड प्रदेश में स्थित बाबा बैद्यनाथ धाम में भगवान शंकर की पूजा अर्चना की और लगभग ११०किमी. दूर सुल्तानगंज के पास से से जा रही गंगा से जल लेकर बाबा बैद्यनाथ पर चढ़ाया था। आज उसी परम्परा को लोग निर्वहन करते हुए प्रति वर्ष सावन मास में जल चढ़ाने के लिए यहां आते हैं। यह शिव लिंग द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक है। जो गंगा जल बाबा पर चढ़ाने के लिए ले जाते हेैं वह जमीन से स्पर्श नहीं होना चाहिए। इसलिए शिव भक्त कांवर का उपयोग करते हैं। कांवर में यह सुविधा होती है कि इसे किसी स्थान पर जमीन से ऊपर टिका कर रखा जा सकता है। कांवर में जल ले जाने वालों को कांवरिया कहा जाने लगा। आज बहुत बड़ी मात्रा में लोग कांवरियों के रूप में जल चढ़ाने के लिए विभिन्न शिवालयों में भी जाते हैं। लोग गेरूये वस्त्र धारण कर तथा कांवर, जिसे बंहगी भी कहते हैं, को सजा कर हर हर महादेव की गर्जना के साथ बाबा धाम कोे जाते हैं। साथ ही कांवर को विविध प्रकार से सजाने के कारण लोगों का सहज ही मन मोहित कर लेते हैं।

यदि हम पौरणिक संदर्भो को देखें तो ज्ञात होता है कि यह कांवड़ यात्रा आर्य और अनार्य संस्कृतियों को जोड़ने के लिए सेतु का काम भी करती है तथा आपस में मेल व संगम कराती हैं। मां गंगा आर्यों की देवी हैं और अनार्यो के देवता भगवान शंकर हैं जिस समय गंगा जल से भगवान शिव का जलाभिषेक किया जाता है उस समय दोनों संस्कृतियां एकरूप हो जाती हैं जो भारत की एकता और अखंडता को आज तक जीवित एवं अक्षुण्ण रखे हुए हैं। हमारे महापुरुषों ने समय समय पर भारत ही नहीं अपितु संपूर्ण विश्व को एक सूत्र में बांधने का प्रयास किया और वसुधैव कुटुंबकम् का नारा दिया। साथ ही सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया के लिए अनेक जीवन जीने की पद्धति का निर्माण कर ज्ञान, विज्ञान, योग तथा औषधियों से मानव जगत को अवगत कराकर सम्पूर्ण विश्व को सुखी रहने का मार्ग दिखाया। कांवरिया और गंगा जल एक दूसरे के पूरक हैं। उन्हें अलग नहीं किया जा सकता। दूसरे प्रकार से देखा जाए तो भगवान शिव के सिर/ मस्तक पर गगांजी विराजमान हैं। सावन मास में गंगाजी पूरे वेग से पृथ्वी पर उतर आती हैं और शिव का मस्तक छोड़ भूलोक पर विचरण करने लगती हैं। शिव भक्त अपने प्रयास से पुनः स्थान स्थान से गंगा जल को लेकर विभिन्न शिवालयांें मे स्थापित शिवलिंग पर चढ़ा कर पुनः शिव के मस्तक पर गंगाजी को स्थापित करते हैं। अतएव गंगा जल और कांवरिया एक दूसरे के पूरक हैं। एक के अभाव में दूसरे का अस्तित्व स्वतः समाप्त हो जाता है।

राजेन्द्र

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