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तीर्थ गंगा, तीर्थ बनारस

तीर्थ गंगा, तीर्थ बनारस

by अमोल पेडणेकर
in अगस्त-२०१५, सामाजिक
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‘नमामि गंगा’ के माध्यम से बनारस को ‘पूर्व का वेनिस’ बनाने की योजना है। इस परिवर्तन के कारण अगर गंगा का ‘स्वच्छ’ स्वरूप तथा
सुंदर साजसज्जा दुनिया के सामने आ जाती है तो गंगा और उसके किनारे पर बसे अन्य शहर भी पुन: अपना वैभव प्राप्त कर सकेंगे।

गं गा, गंगा नदी, गंगा का प्रवाह इन सभी का वर्णन करने की कोई सीमा ही नहीं है। ऐसा कोई भारतीय मिलना बहुत कठिन
है जिसके अंतर्मन में गंगा के प्रति प्रेम भाव नहीं होगा। यह हो सकता है कि गंगा के प्रति श्रद्धाभाव न हो परंतु प्रेम भाव, आदरभाव जरूर होगा। गंगा के प्रति प्रेम हमारे खून में मिला हुआ है, फिर कोई व्यक्ति धार्मिक हो या न हो। गंगा के साथ अनगिनत कथाएं, महापुरुष आदि जुड़े हैं। हमारी संस्कृति गंगा पर आधारित हैं। गंगा के बारे में निर्मित कई संकल्पनाएं हमारे दैनिक जीवन का एक भाग बन गईं हैं। अगर किसी वस्तु को पवित्र करना है तो उस पर गंगा का पानी छिड़का जाता है। अगर किसी व्यक्ति की पवित्रता का वर्णन करना हो तो ‘गंगा की तरह पवित्र’ ही कहा जाता है।

प्राचीन अर्वाचीन रचनाकारों ने गंगा को कई रूप प्रदान किए हैं। गंगा के घुमावदार और निरंतर प्रवाह को देखकर उसे स्त्री रूप में देखा गया है। भगवान शंकर की सहचारिणी, भगीरथ के प्रयत्नों के कारण स्वर्ग से भगवान शिव की जटा में उतरी गंगा, भीष्म की माता गंगा इत्यादि अनेक रूपों में गंगा का वर्णन हमारे साहित्य में मिलता है। भारतीय लोग नहीं मानते कि गंगा का स्वर्ग से धरती पर आना कोई भौगोलिक घटना है। हम गंगा को केवल जलस्रोत के रूप में नहीं देखते। भारतीय मनों को आध्यात्मिक आधार देने वाली गंगा भौगोलिक दृष्टि से देश की सबसे बड़ी नदी नहीं है, परंतु पवित्रता के संदर्भ में उसकी बराबरी कोई नहीं कर सकता। श्रद्धालू हिंदू व्यक्ति के घर में गंगाजल को पूजा के स्थान में रखा जाता है। इससे अधिक गंगा का महत्व क्या बताया जाए कि मृत्यु के समय में अगर गंगा जल मुंह में पड़ जाए तो जीवन सफल होने का और मोक्ष मिलने का आनंद प्राप्त होता है।

गंगा के पानी से हमारी हजारों पीढ़ियों का पोषण हुआ है और होता रहेगा। उसके किनारे पर कई संस्कृतियों ने जन्म लिया और विस्तार पाया। गंगा के किनारे रहने वाले लोगों ने खेती, व्यापार, जल पर्यटन आदि के माध्यम से आर्थिक सम्पन्नता और सुख समृद्धि का काल देखा। गंगा नदी का प्रवाह और उसके भौगोलिक प्रवास ने कई शहरों को बसाया है। गोमुख से शुरू हुई गंगा की यात्रा गंगासागर तक २५०० किमी तक चलती है। इस पूरे प्रवाह में नदी के किनारे पर समृद्ध और तृप्त लोगों की संस्कृति पनपी।

ऐसे ही गंगा किनारे का एक समृद्ध और तृप्त शहर है बनारस। कोई इसे बनारस कहता है, कोई वाराणासी तो कोई काशी। बनारस की बात ही कुछ ऐसी है कि उसके बारे में कवि, संगीतकार, चित्रकार, साहित्यकार, कलाकार और अन्य जिंदादिल लोगों को हमेशा ही बनारस के प्रति आकर्षण रहा है। प्रसिद्ध शायर मिर्जा गालिब काशी और बनारस के बारे में कहते हैं कि ‘मरहबा… इस शहर में चारों तरफ सब्जा-ओ-गुल की ऐसी हवा है कि ये मुर्दा जिस्मों में रूह फूंक दे। यह दरिया आसमान पर रहने वालों का घर है। इस तमाशगाह में दिल फरेबी का यह आलम है कि परदेस में होने का गम दिल से दूर हो गया है। अगर दुश्मनों की खंदाजनी (उपहास) का खौफ न होता तो मैं तर्कदीन करके तशबीह (माला) तोड देता….जनेऊ पहन लेता और वेशभूषा के साथ उस वक्त तक गंगा के किनारे बैठा रहता जब तक कि आराईश-ए-हस्ती की गर्दन ढल जाती और कतरे की तरह दुनिया में न समा जाता।’’

कवि केदारनाथ शर्मा बनारस शहर के बारे में कहते हैं कि
‘किसी अलक्षित सूर्य को
देता हुआ अर्घ्य
शताब्दियों से इसी तरह
गंगा के जल में
अपनी एक टांग पर
खड़ा है यह शहर
अपनी दूसरी टांग से
बिलकुल बेखबर’

हजारों साल से इसी तरह खड़े इस बनारस शहर के घाटों पर पश्चिम की ओर से आनेवाली हवा, क्षितिज पर छानेवाली लालिमा, मंदिरों से सुनाई देनेवाला घंटानाद, वेदमंत्रों का उच्चारण, घाट की सीढ़ियां चढ़ने-उतरने वाले साधुजन, गले तक जल में रह कर सूर्य को अर्घ्य देने वाले भक्तगण तथा जीवन में कम से कम एक बार गंगा के दर्शन हों इस उद्देश्य से अपने परिवार के साथ आए लोग इत्यादि सभी इन घाटों का वैभव है।

देश के विभिन्न प्रदेशों के दानवीरों ने गंगा के घाटों का निर्माण करने में मदद की है। बनारस के घाटों से महाराष्ट्र को भी आत्मीयता रही है। घाटों के निर्माण और पुनर्निर्माण के कार्यों को १८वीं सदी में पेशवाओं के काल में शुरुआत हुई है। ग्वालियर की महारानी बायजाबाई का सिंधिया घाट, पेशवाओं का बाजीराव घाट, भोसले राजाओं का भोंसला घाट, महारानी अहिल्याबाई के द्वारा पुनर्निर्माण किया गया मणिकर्निका घाट व दशाश्वमेध घाट इन श्रृंखलाओं में सम्मिलित हैं। राजस्थानी राजाओं ने भी अनेक घाटों का निर्माण किया था। इनमें जयपुर के महाराज का रामघाट, उदयपुर के राणा का राणाघाट, राजा मानसिंह का मानसिंहघाट आदि का समावेश है। उद्योगपति बिडला द्वारा बनाया गया लालघाट भी काफी प्रसिद्ध है। गंगा के ये सभी घाट पूर्वाभिमुख हैं। सुबह सूर्य के प्रकाश से ये सभी घाट प्रकाशित हो जाते हैं। इस समय इन घाटों पर उत्साह और सक्रियता देकते ही बनती है। दूर मणिकर्णिका घाट पर किसी के अंतिम संस्कार की अग्नि दिखाई देती है। उस समय मृत्यु भी प्रकाशमान होकर कुछ कहती है। शिव की इस नगरी में कुछ भी अशुभ नहीं है। जीवन-मरण एक ही नाव के दो किनारे हैं, जिन्हें हमें पार करना है। यही संदेश मणिकर्निका घाट हमें देता है।

इस शहर के बारे में कवि अष्टभुजा शुक्ल अपनी कविता में कहते हैं-

सभ्यता का जल यहीं से जाता है
सभ्यता की राख यहीं से आती है
लेकिन यहां से सभ्यता की कोई हवा नहीं बहती
न ही यहां सभ्यता की कोई हवा आती है
यह बनारस है।

बनारस की भांग एक अविस्मरणीय अनुभव है। इसलिए गंगा के किनारों पर या गंगा के संदर्भ में लिखते समय उसमें भांग का रंग तो आएगा ही। ‘भंग का रंग जमा हो चकाचक, फिर लो पान चबाय…..ओ खैके पान बनारसवाला….छोरा गंगा किनारेवाला’ बनारस फिल्मी दुनिया के लिए के लिए भी कोई नया विषय नहीं है। चित्रकार, फोटोग्राफर आदि लोगों के लिए बनारस के घाट और वहां का वातावरण स्वर्ग के समान होता है। सुप्रसिद्ध संगीतकार भूपेन हजारिका बनारस का वर्णन करते हुए कहते हैं, ‘‘बनारस ने मेरे लोकसंगीत में भारतीय शास्त्रीय संगीत भरकर उसमें जान फूंक दी। बनारस ने मुझे तैयार किया। मैं अगर काशी न जाता तो मैं लोकसंगीत के साथ शास्त्रीय संगीत कभी नहीं सीख पाता।’’ अपनी तंग गलियों, एक ही रंग में रंगे घाटों, मंदिरों और उत्सवों के कारण बनारस सदैव ही पूरी दुनिया के आकर्षण का केन्द्र रहा है। फिल्म के लिए उत्तम लोकेशन होने के कारण बनारस सभी भाषाओं की फिल्मों का चहेता रहा है। भोजपुरी, बॉलीवुड और हॉलीवुड फिल्मों का भी इसमें सहभाग रहा है। इन फिल्मों में बनारस का गौरव, सुंदरता इत्यादि के साथ ही इसके विरोध में भी फिल्माया गया है।

गंगा विषय पर आधारित फिल्मों में दिलीप कुमार, अमिताभ बच्चन, शाहरुख खान, देव आनंद, अभिषेक बच्चन, सनी देओल, आदि दिग्गज कलाकारों ने अभिनय किया है। आज के उत्तम निर्देशकों में से अनुराग कश्यप और अभिनव कश्यप भी मूलत: बनारस से ही हैं। बनारस या गंगा विषय पर हिंदी और भोजपुरी के साथ अंग्रेजी और अन्य विदेशी भाषाओं में भी बहुत कुछ लिखा गया है। मिर्जा गालिब से चेतन भगत तक कई मान्यवरों ने गंगा और उसके प्रवाह के संदर्भ में कई बार लिखा है। ‘अपराजितो’, ‘पाथेर पांचाली’, ‘गोदान’, ‘संघर्ष’, ‘वाटर’, ‘डॉन’, ‘ घातक’, ‘बंटी और बबली’, ‘राम तेरी गंगा मैली’, ‘गजगामिनी’, ‘रांझणा’ जैसी कई फिल्में बनारस की पृष्ठभूमि पर बनी हैं।
‘द गुरू’, ‘गंगा फ्राम सिओल टू वाराणासी’, ‘द एक्सपेरीमेंट’, ‘फिस्ट ऑफ वाराणासी जैसी विदेशी फिल्में भी बनारस और गंगा पर ही आधारित हैं। विख्यात अमेरिकी कवि एलन गिसबर्ग कहते हैं ‘मेरे लिए जीवन के सबसे सुखद क्षण कौन से थे? वे क्षण जब मैंने गंगा में डुबकी लगाई थी और मणिकर्निका घाट पर चाय की चुस्कियां ली थी।’ हिंदू धर्म की दीक्षा लेने वाली जूलिया रॉबटर्स, अपने पति और तीन बच्चों के साथ कई बार बनारस आती हैं। वे यहीं बसने की इच्छा रखती हैं। साथ ही स्टीवन स्पीलबर्ग अमिताभ बच्चन के साथ हुए साक्षात्कार में बनारस और गंगा नदी का अनेक बार उल्लेख करते हैं।

इस तरह अपनी परंपराओं से लाभान्वित वैभव पर बनारस दुनियाभर के अस्तिक-नास्तिक लोगों के आकर्षण का केन्द्र रहा है। अब इस बनारस का कायापलट करने की योजना का प्रारंभ बनारस के सांसद और देश के प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘नमामि गंगा’ के माध्यम से किया है। एक से रंगों में रंगे घाट, साफ-सुथरे किनारे और परिसर, घाटों की साज-सज्जा, उन पर निर्माण होने वाली विश्वस्तरीय सुविधा और गंगा के पानी पर चलने वाले क्रूज इत्यादि सभी के निर्माण से गंगा नदी, उसके तट, तटों पर बने घाट इत्यादि सभी को ‘पूर्व का वेनिस’ बनाने की योजना है। इस परिवर्तन के कारण अगर गंगा का ‘स्वच्छ’ स्वरूप तथा सुंदर साजसज्जा अगर दुनिया के सामने आ जाती है तो गंगा और उसके किनारे पर बसे शहर पुन: अपना वैभव प्राप्त कर सकेंगे। उम्मीद है कि स्वच्छ, सुंदर, पवित्र, धार्मिक स्थल का सम्मान उन्हें मिलेगा परंतु…….बनारस, काशी, वाराणासी के रूप से पहचाना जाने वाला तीर्थस्थल आधुनिकता के प्रवाह में कहीं केवल पर्यटन स्थल बनकर न रह जाए इसका भी ध्यान रखना होगा।

अमोल पेडणेकर

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