बहुरूपिणी गंगा

गंगा नदी के संबंध में लोगों के मन में इतना आदर क्यों है इस प्रश्न का तुरंत उत्तर देना कठिन है। गंगा यह कोई सबसे बड़ी
नदी नहीं है, विश्व में उसकी अपेक्षा लम्बाई में बड़ी ऐसी ३४ नदियां हैं। उद्गम से समुद्र में मिलने तक गंगा की लम्बाई २५१० किलोमीटर है। नाईल, ऍमेझॉन, यांगत्से और मिसिसिपी ये नदियां गंगा से दुगुनी लम्बाई की हैं। गंगा तीर पर कोई भी बड़ी राजधानी नहीं है। किसी बड़े साम्राज्य से भी उसका जुड़ाव नहीं रहा है। भले ही पाटलीपुत्र एवं अन्य कुछ बंगाली साम्राज्य गंगा तीर पर अवतीर्ण हुए थे, फिर भी उनकी ताकत व सम्पत्ति के लिए केवल यह नदी जवाबदार है ऐसा नहीं कह सकते। इस नदी की मालकियत के लिए कभी कोई लड़ाई नहीं हुई।
गंगा यात्रा प्रारम्भ से अंत तक पूर्ण करने पर मन में और दो प्रश्न निर्माण होते हैं। पहला, गंगा के दो स्वतंत्र व्यक्तित्व। हिमालय से वाराणसी तक उसका धार्मिक व्यक्तित्व रेखांकित होता है। भगवान शंकर ने उसे अपने मस्तक पर धारण किया एवं बाद में उसका धरती पर अवतरण हुआ। दूसरा धरती पर गंगा माता यह एक उदार देवता है। उसका जल खेती के काम आता है, रोगियों को रोगमुक्त करता है, पापियों को पापमुक्त करता है एवं आत्मा को मोक्ष प्रदान करता है।

गंगा के लौकिक एवं पारलौकिक ऐसे दोनों लाभ साथ-साथ ही प्राप्त होते हैं। ‘गंगाजल’ प्राशन करने से मन को प्राप्त होने वाला आध्यात्मिक समाधान एक तरफ, तो उसमें स्नान करने से होने वाले शारीरिक फायदे दूसरी तरफ। इनका आपस में निकटतम संबंध है। गोमुख से वाराणसी तक विभिन्न तीर्थों पर गंगा की उपासना होती है। ये तीर्थ यानी मनुष्य लोक से देव लोक जाने के मार्ग पर स्थित ‘चेकपोस्ट’ हैं। उत्तर में बहुसंख्यक लोगों के मन में गंगा की यही प्रतिमा विराजमान है।

हिमालय की गंगा गोमुख से इलाहाबाद तक आती है एवं वहां उसका मिलन बलाढ्य यमुना से होकर उसका आकार दोगुना हो जाता है, हिमालयीन गंगा का प्रवाह साधारण रूप से करीब एक हजार किलोमीटर का है। गोमुख से निकलकर हिमालय के पर्वत एवं दरियों को पार करते हुए तिब्बत की सरहद के पास से उत्तर प्रदेश के पठारी भाग इलाहाबाद तक आती है। पहले केवल तीन सौ किलोमीटर के प्रवास में ही गंगा हिमालय की तीन हजार मीटर की ऊंचाई से धरती पर आती है।

ॠषिकेश एवं हरिद्वार में भले ही गंगा अपने पूरे वेग से बहती हो परंतु उसका विस्तार एवं चौड़ाई पठार पर आने पर ही बढ़ती है। हिमालयीन गंगा का जलस्रोत यानी हिमालय का बर्फ ही है परंतु हरिद्वार से इलाहाबाद तक ७०० किलोमीटर के अंतर में शिवालिक की पहाड़ियों से आने वाले प्रवाह व रामगंगा नदी उसके अन्य स्रोत बनते हैं। हरिद्वार से कानपुर तक ५०० किलोमीटर का क्षेत्र भी अत्यंत मनोरम है परंतु इसकी जानकारी वहां के स्थानीय लोगों को ही है। यहां गंगा की चौड़ाई ज्यादा नहीं है, इसके अतिरिक्त इस क्षेत्र में इसमें से नहरें भी निकाली गई हैं।
स्वर्ग से गंगा माता का प्रवाह यदि सीधे धरती पर आता तो उसके वेग से धरती पर जीवन छिन्नविच्छिन्न हो गया होता। इसीलिए भगवान शंकर ने उसका प्रवाह प्रथम अपने सिर पर लिया एवं बाद में उसे धरती की ओर प्रवाहित किया। शंकर की जटाओं से अठखेलियां करता यह प्रवाह धरती पर आया एवं यहां से भगीरथ गंगा माता को पश्चिम बंगाल के सागर तट की ओर ले गया। इस प्रवाह में भगीरथ एवं गंगा माता कई जगह विश्राम हेतु रुके एवं उन सभी स्थानों को तीर्थक्षेत्र का रूप प्राप्त हुआ।

चारधाम यात्रा

ये पुराण कथाएं अब यहां के दैनंदिन जीवन का एक भाग बन गई हैं। यमुनोत्री, केदारनाथ एवं बद्रीनाथ के साथ गंगोत्री का समावेश करने से चार धाम यात्रा संपन्न होती है। हरिद्वार एवं देवप्रयाग हिमालय की तलहटी में हैं। गंगोत्री से १५० किलोमीटर दूर देवप्रयाग में भागीरथी एवं अलकनंदा नदियों का संगम है और उसके बाद आगे के प्रवाह का नाम ‘गंगा’ है। गंगा के अलावा हरिद्वार का महत्व एक अन्य कारण से भी है। ऐसा कहा जाता है कि समुद्र मंथन के बाद जब अमृत कुंभ ले जाया जा रहा था तब जिन चार स्थानों पर अमृत की बूंदें गिरी थीं उनमें हरिद्वार भी एक था।

चार धाम यात्रा के गंगोत्री एवं यमुनोत्री ये दो स्थान दो नदियों के उद्गम स्थान हैं। केदारनाथ एवं बद्रीनाथ, ये चार धाम यात्रा के दो अन्य स्थान हैं परंतु उनकी ख्याति इसलिए नहीं है कि वहां से मंदाकिनी एवं अलकनंदा नदियों का उद्गम है परंतु वे इसलिये ख्यात हैं क्योंकि ऐसा माना जाता है कि केदारनाथ में भगवान शंकर एवं बद्रीनाथ में भगवान विष्णु का वास है। मंदाकिनी एवं अलकनंदा भी क्रमश: रूद्रप्रयाग एवं देवप्रयाग में गंगा में समाहित होती हैं।

तीन कुंडों से गंगा का उद्गम हुआ, ऐसा पुराणों में वर्णित है। पर प्रत्यक्ष में वह प्रवाह कहां दिखा? गोमुख के पास एक हिमनदी में उद्गम हुआ ऐसा लगता है। फिर क्या गोमुख को गंगा का उद्गम स्थान माने? गंगोत्री की हिम नदी के पार बद्रीनाथ के पास तो उसका उद्गम नहीं है? हमें आज तक जो बताया गया है क्या वह सब सच है? इसका अर्थ यह भी हो सकता है कि आधुनिक विज्ञान की सारी संकल्पनाओं को पराभूत कर मानसरोवर के पास कैलास पर्वत से गंगा भूमिगत रूप से हिमालय के अंदर से बहकर यहां तक आई।

गंगा का निश्चित उद्गम कहां हुआ है? गंगाजल की पहली बूंद इस पृथ्वी पर निश्चित रूप से कहां गिरी ये कोई बता सकता है क्या?
१८०८ में ईस्ट इंडिया कम्पनी ने कैप्टन वेब को हरिद्वार से गंगोत्री तक गंगा के मार्ग का सर्वे करने हेतु भेजा था। हिमालय के दर्रे से गंगोत्री तक गंगा का प्रवाह गुप्त मार्ग से आता है ऐसा मेजर रेनेल का दावा था। परंतु हिमालय के गांवों में रहने वाले रहवासी गंगा का प्रवाह वहां के जल प्रपात से प्रकट होने की कहानी कहते हैं। केप्टन वेब की शोध यात्रा गंगोत्री तक नहीं पहुंच पाई। केवल उपरोक्त जानकारी उसे मिली। हिमालय के गर्भ से गंगा के बाहर निकलने का स्थान अत्यंत दुर्गम जगह स्थित है। यहां तक पहुंचना इतना अधिक कठिन है कि इस विषय में आगे संशोधन सम्भव ही नहीं दिखता।

ऐसा माना जाता है कि पहला यूरोपियन गंगोत्री तक सन् १८१५ में गया। उसका नाम जेम्स बेली फजर। उसके दो वर्ष बाद केप्टन जे.ए. हॉजसन आगे गोमुख तक गया एवं उसने गंगा का उद्गम स्थान निश्चित किया।

गोमुख सामने की ओर झुका हुआ है, ऐसा लगता है मानो कभी भी गिर जायेगा। गोमुख के पास गंगा अत्यंत निर्मल है। आगे २१०० किलोमीटर की यात्रा में उसे ‘ग्लोबल वार्मिंग’ का आघात सहन करना पड़ता है। साथ ही साथ जगह-जगह उस पर अत्याचार होते हैं एवं बाद में अत्यंत मलिन एवं थकी हुई गंगा बंगाल की खाड़ी में मिलती है।

ॠषिकेश से गंगोत्री, यमुनोत्री, केदारनाथ एवं बद्रीनाथ इस चार धाम यात्रा की शुरुआत होती है। उत्तम प्राकृतिक सौंदर्य, उत्तम वातावरण और आसपास के घूमने फिरने के लिए अनुकूल जंगल इन सभी के लिये ॠषिकेश प्रसिद्ध है। यदि आप धार्मिक प्रवृत्ति के हैं तो सोने पे सुहागा।

हिमालय पर्वत का सफर कर गंगा हरिद्वार में मैदानी भाग में आती है। ‘हरिद्वार’ सही अर्थों में भगवान का द्वार है। भारतीय संस्कृति एवं पुराणों में इसलिये हरिद्वार का महत्व वर्णित है। सागर मंथन के बाद जिन चार स्थानों पर भगवान ने अमृत बूंदें छलकायीं उनमें से एक स्थान हरिद्वार। भगवान विष्णु ने गलती से ‘दूधगंगा’ पर पैर रख दिया और इसलिये गंगा यहां बहने लगी ऐसा भी कहा जाता है।
हरिद्वार की गंगा ऐसा लगता है कि ३० किलोमीटर दूर की ॠषिकेश की गंगा की बीमार एवं कमजोर बहन है। यहां उसका प्रवाह उथला एवं मंद है। जहां तहां बालू के बांध बनाकर नहरें निकाली हैं। लोगों की धार्मिक भावनाओं को ठेस न पहुंचे इसलिये एक छोटे बांध से एक प्रवाह स्नान संध्या के लिये निकाला है। सुप्रसिद्ध ‘हर की पौड़ी’ में तो प्रवाह इतना जोरदार है कि वहां लगी हुई लोहे की जंजीरों को पकड़कर स्नान करना पड़ता है। पर इसके आगे पूरा प्रवाह अत्यंत शांत एवं विभाजित है। एक प्रवाह नहरों की ओर जाता है तो दूसरा मुख्य गंगा माता में विलीन होता है।

हरिद्वार से कानपुर

यह भाग चार सौ किलोमीटर से कम लम्बाई का है। इस भाग में गंगा किनारे पर न ही कोई बड़े गांव हैं न ही रेल्वे क्रासिंग है। इस मार्ग पर गंगा का प्रवाह कुछ धीमा, मटमैला है। गहराई भी ज्यादा नहीं है। हरिद्वार से आगे आने पर गंगा के दो स्वरूप दिखाई पड़ते हैं। सर्वसामान्य लोगों में उसका स्वरूप देवी का है तो किसानों के बीच सिंचाई हेतु उसे अलग महत्व प्राप्त है।

भारतीय शास्त्रज्ञ सी.के. जैन का कहना है कि पानी के बहुत बड़े भाग को किसान गर्भ में ही प्रदूषित करते हैं जिससे देश के लिये बड़ा धोखा निर्माण हो सकता है। ‘वाटर टेबल’ का स्तर नीचे जा रहा है और उसके कारण आर्सेनिक सरीखे अनेक घटकों की मात्रा बढ़ रही है।
कानपुर की गंगा का क्या वर्णन करें ?

पिछले कुछ समय में कानपुर में गंगा के प्रवाह ने एक अलग ही दिशा पकड़ ली है। इसके कारण गंगा स्नान के लिये बनाये हुए घाट पर एक नहरनुमा प्रवाह लाना पड़ा। स्वयं कानपुर निवासी भी यहां गंगा को गटर गंगा के अलावा अन्य कुछ मानने को तैयार नहीं हैं। सरकार की गंगा सफाई योजना कितनी नाकामयाब हुई है यह पर्यावरणविद कानपुर की गंगा का उदाहरण देकर बताते हैं। परंतु उनकी सारी टीका-टिप्पणी सही ही है ऐसा नहीं।

पहली बात ध्यान में आती है कि यहां गंगा उथली है। यहां प्रवाह को वेग ही नहीं है। दो सौ साल पूर्व अंग्रेजों ने जूते, घोड़ों की जीन एवं सेना को लगने वाले अन्य साजोसामान को बनाने हेतु कानपुर को बसाया। तबसे चमड़े के कारखाने कानपुर का अविभाज्य अंग बन गये हैं एवं तभी से ही गंगा को मैली करने का काम निर्बाध रूप से करते आ रहे हैं। कानपुर की गंगा का शुद्धिकरण होना चाहिये यह भावना लोगों के दिलों में जोर पकड़ती जा रही है। १९८६ में कानपुर, वाराणसी व अन्य छोटे शहरों की गंगा सफाई का काम विदेशी मदद से सरकार ने अपने हाथ में लिया। गंगा के प्रवाह का पहला चार सौ किलोमीटर का हिस्सा, वाराणसी के दशाश्वमेध घाट पर समाप्त होता है। कानपुर में भले ही कोई गंगा स्नान करे न करे परंतु वाराणसी में आने वाला प्रत्येक व्यक्ति गंगा में डुबकी जरूर लगाता है।

कानपुर की गंगा के दर्शन से मन विषाद से भर जाता है। कमाल का प्रदूषण एवं सतत अत्याचार सहन कर यह नदी जीवित कैसे है,यह प्रश्न बारबार मन में उठता है। परंतु चमत्कार ऐसा है कि आगे के केवल २० किलोमीटर के हिस्से में उसमें प्राणवायु का संचार होता है परंतु उस पर अत्याचार नहीं थमता। सिंचाई हेतु उससे बहुत ज्यादा पानी निकाल लिया जाता है परंतु फिर भी गंगा शान से बहती रहती है।

आगे २०० किलोमीटर बाद अलाहबाद में यमुना अपना ताजा पानी लेकर गंगा में मिलती है और वह आगे वाराणसी की ओर बढती है। हालांकि यमुना गंगा से भारी है परंतु मिलन के बाद भी उसे कोई यमुना-गंगा नहीं कहता। यमुना भी पवित्र नदी मानी जाती है परंतु उसे गंगा का स्थान नहीं है। जैसे ऊपर हिमालय में केवल भागीरथी को ही देवत्व प्राप्त है वैसे ही उत्तर भारत में वह सम्मान केवल गंगा को प्राप्त है। गंगा के इसी माहात्म्य के कारण उसके किनारे अनेक तीर्थ क्षेत्रों का निर्माण हुआ। वैसे कुछ तीर्थस्थान गंगा के पूर्व में भी स्थित हैं।
वाराणसी आकर यदि गंगा का ‘स्वास्थ्य’ जानना है तो उसका सर्वोत्तम मार्ग है गंगा में नौका विहार। यहां सारा जीवन घाटों पर आश्रित है और उसकी रचना भी सुव्यवस्थित है। किसी भी घाट पर आपको नाविक मिल जायेंगे एवं वे आपको आपके वांछित घाट तक ले जायेंगे। अस्सी घाट से पंचगंगा घाट तक एवं यदि इच्छा हो तो रेल्वे पुल के उस पार आदिकेशव घाट तक भी वे ले जायेंगे। अस्सी घाट का अपवाद छोड़ दें तो सभी घाट सामान्यत: साफ सुथरे हैं। अस्सी नाले के पास गंगा का प्रवाह मोड़ दिया गया है, इसके कारण अब वह घाट के दायीं ओर दूर चला गया है। कुछ साल पूर्व अस्सी नाला वहां से मोड़ दिया गया। उसके पूर्व सारी गंदगी-कीचड़ वहीं आकर मिलता था। गंगा के कीचड़ में भी कुछ औषधि शक्ति ‘हीलिंग पावर’ है ऐसी लोगों की श्रद्धा है इसलिये उसे वे शरीर पर मलते हैं। शायद सुबह की चुभने वाली हवा से स्वत: का रक्षण करने हेतु वे ऐसा करते हों।

सिंगबेरपुर गंगा किनारे का एक तीर्थ है। रामायण में भी उसका उल्लेख है। पुरोहित भागवत प्रसाद मिश्र बताते हैं कि राम,सीता, लक्ष्मण यहीं से गंगा पार कर दक्षिण की ओर गये थे। वहां उन्होंने एक ॠषि के आश्रम में निवास भी किया था। सीता ने यहीं गंगा से संवाद किया था, ऐसा भी कहा जाता है।

इलाहाबाद को ‘तीर्थक्षेत्रों का राजा’ कहा जाता है। प्रत्यक्ष संगम पर अनेक छोटी बड़ी नौकाएं होती हैं, जैसे वह उनका एक छोटा सा गांव ही हो। यहां गंगा यमुना का संगम है। उसके पहले करीब २०० मीटर ये समांतर बहती हैं। उसके बाद उनका अंतर कम होता जाता है एवं एक पल ऐसा आता है जब वे एक दूसरे में विलीन हो जाती हैं। सूर्यास्त के समय संगम पर का यह दृश्य मनोरम होता है।

वाराणसी के बारे में असंख्य दंतकथाएं प्रचलित हैं और उसी से यह शहर कितना पुराना है इस पर प्रकाश पड़ता है। विश्व इतिहास में अत्यंत सघन बस्ती वाला यह बहुधा सबसे पुराना शहर है। अपने भारत भ्रमण में मार्क ट्वेन ने लिखा है ‘बनारस शहर इतिहास, परंपरा और दंतकथाओं से भी पुराना है, शायद इनकी जितनी उम्र है उससे भी पुराना।’

यहां के कुछ स्थानीय इतिहासकार, उदाहरणार्थ राणा बी. सिंह इस शहर को बहुत पुराना नहीं मानते। उनके अनुसार यह शहर पांच हजार वर्ष पूर्व अस्तित्व में आया। रामायण एवं महाभारत में इसका उल्लेख भी नहीं मिलता। रामायण में ‘काशी’ एक उल्लेख मिलता है पर उसका अर्थ ‘घास’ है। वाराणसी की असली विशेषता उसके अर्धचंद्राकार तीर पर स्थित ८४ घाट हैं। सत्रहवीं सदी में उनका निर्माण हुआ होगा। श्री राणा का दावा है कि? ‘‘ ‘घाट’ यह संकल्पना ही बारहवीं सदी की है। पुराणों में कहीं भी घाटों का उल्लेख नहीं है।’’ वर्तमान में वाराणसी के ९६ घाटों का उल्लेख अनेक स्थानों पर हुआ है। श्री राणा कहते हैं कि ये घाट ९६ न होकर ८४ ही हैं और यह उन्होंने सिद्ध भी किया है। परंतु अन्य इतिहासकारों को यह मान्य नहीं है। हार्वर्ड विश्वविद्यालय की संशोधिका डायना इक ने ईसा पूर्व पांचवीं-छठवीं सदी में शहर के सारनाथ भाग में (जो अब शहर की सीमा के पास है) गौतम बुद्ध ने अपने शिष्यों को शिक्षा देने की बात लिख रखी है। श्री राणा भी वाराणसी के परिसर में आश्रम या तपोवन होने की बात को नकारते नहीं हैं।

वाराणसी की उम्र कितनी भी क्यों न हो, वह भारत का सबसे पवित्र तीर्थक्षेत्र है यह वाद विवाद से परे हैं क्योंकि धरती पर यह भगवान शिव का वसती स्थान है। यहां गंगा उत्तर की ओर बहती है। गंगा के ये घाट, शहर की संकरी गलियां और उसमें बसती हिंदुत्व की आत्मा ये सारी अबाधित हैं। डायना इक लिखती हैं – तीर्थक्षेत्रों को भेंट देना, पवित्र नदियों में स्नान करना और अलग अलग देवताओं की प्रतिमाओं का पूजन करना यह यहां की एक महत्वपूर्ण परंपरा है। शरीर की सभी इंद्रियां एक स्वर्गीय अनुभूति का अनुभव करती हैं। ऐसा माना जाता है कि कार्तिक पूर्णिमा को भगवान विष्णु अपनी निद्रा त्याग कर जागृत होते हैं और लोगों को आशीर्वाद देते हैं। उस दिन गंगा के प्रत्येक घाट पर जिसे जहां जगह मिले नहाने के लिये लोगों की भीड़ जमा होती है।

नए सहयोगी – नई शुरुआत

इलाहाबाद में यमुना से संगम के बाद गंगा पूरे वेग से बनारस-पटना की ओर बहती है। इस पूरे वेग में गंगा के पानी का कैसा भी कितना भी उपयोग हो उसके प्रवाह में कमी नहीं रहती। बनारस से पटना के बीच गंगा के प्रवाह में सकारात्मक बदल होता है। वाराणसी से १०० किलोमीटर दूर वह बिहार की सीमा में प्रवेश करती है। उस समय तक तो गंगा का नूर ही बदल चुका होता है, कमोबेश उसका रौद्र रूप दिखने लगता है।

हिंदुओं के मूर्तिशास्त्र में गंगा की प्रतिमा है। वह एक विचित्र आकार की मछली पर सवार है। यह मछली डॉल्फिन जैसी है परंतु उसकी बड़ी सी नाक एवं बड़े बड़े दांत डॉल्फिन से अलग हैं। कानपुर के ऊपरी भाग में कन्नौज के पास रामगंगा गंगा से मिलती है। वहां ‘सुसू’ नाम से पहचाने जाने वाली मछली मिलती है। यह संसार की आदिम डॉल्फिन है। पर अब यह मछली, गंगा का वाहन, दंतकथाओं में जमा होने जा रही है क्योंकि उनका वंश अब मात्र १५०० मछलियों तक सीमित रह गया है परंतु बिहार में वे अब भी बड़ी मात्रा में मौजूद हैं। डॉल्फिन गंगा में रहने वाला प्राणी है। यदि यह जीवित रहीं तो गंगा शुद्ध रहेगी, प्रदूषण कम होगा, पानी शुद्ध रहेगा, रोगों का प्रसार नहीं होगा व गंगा भी प्रवाही रहेगी। यदि डॉल्फिन की हत्या होती रही तो गंगा भी मृतवत अवस्था को प्राप्त होगी।

गंगा प्रवाह का आखिरी भाग

सागर से मिलने को उत्सुक गंगा का दर्शन इस आखिरी भाग में होता है। कहलगांव के आगे १०० किलोमीटर जाने के बाद वह दांयी ओर मुड़कर बंगाल की खाड़ी की दिशा में दौड़ने लगती है। खाड़ी के पास उसकी कई धाराएं हो जाती हैं और कई दिशाओं में बहने लगती हैं। सुंदरबन की अनेक छोटी छोटी नदियों में वे प्रवाह मिलते हैं।

बरसात में नेपाल से आई हुई घागरा, कोसी एवं गंडक नदियां अपने पूरे जोर के साथ बिहार के क्षेत्र में गंगा से मिलती हैं। यहां बांध होने के कारण पानी को आगे जाने के लिए जगह मिलती नहीं है परिणामत: हर साल बरसात में कहलगांव से फरक्का इस क्षेत्र में असंख्य गांव डूब जाते हैं एवं इस प्रकार गोमुख से वाराणसी तक दैवीय चेहरे वाली गंगा का विध्वंसक रूप दिखाई पड़ता है। गंगा बांग्लादेश में भी बहती है यह पश्चिम बंगाल में रहने वाले कितने लोगों को पता है? वहां वह पद्मा नाम से पहचानी जाती है।

मध्ययुगीन बंगाली साहित्य में गंगा का उल्लेख हमेशा ‘शतमुखी‘ नाम से किया गया है। इसका अर्थ गंगा के सौ मुंह हैं। यह त्रिभुज प्रदेश होने के कारण गंगा अपना प्रवाह सतत बदलती रहती है फलस्वरूप रेत के अनेक टीले खड़े हो जाते हैं। ऐसे समय गंगा के मुख्य प्रवाह का दर्शन कराने वाले नक्शे की अपेक्षा करना गलत होगा। कारण गंगा का मुख्य प्रवाह कौन सा एवं कहां था इस पर बहुत कम लोग विश्वास रखने को तैयार होंगे।

क्या गंगा कभी खत्म हो सकती है? इसका सीधा उत्तर ‘हां’ है। हरिद्वार से इलाहाबाद आते तक कई जगह उसका प्रवाह धीमा पड़ सकता है। उसके कारण भी सबके सामने हैं। सिंचाई हेतु गंगा से अमर्यादित पानी की निकासी हो रही है। बिजली निर्माण हेतु जगह जगह बांध बनाए जा रहे हैं जिनसे पानी रुक रहा है। शहरीकरण की प्रक्रिया जैसे जैसे भारत में तेज होगी वैसे वैसे यह समस्या अधिक विकराल रूप धारण करेगी। गांवों के मुकाबले शहर का व्यक्ति १० गुना पानी अधिक उपयोग करता है। शिवालिक की पहाड़ियों से आने वाले पानी के प्रवाह के कारण भूगर्भीय जल की मात्रा बढ़ती जा रही है। फिर भी गंगा से जो अपेक्षा है वह पूरी होने लायक पानी गंगा में आता ही नहीं है। यह वस्तुस्थिति है। हरिद्वार से इलाहाबाद तक ८०० किलोमीटर के भाग में कन्नौज के पास रामगंगा यह एकमात्र बड़ी नदी गंगा से मिलती है परंतु उतना काफी नहीं है। यह मांग और पूर्ति का प्रश्न है और पूर्ति कम है। गंगा से अपेक्षाएं इतनी अधिक हैं कि गंगा के संबंध में पौराणिक एवं पर्यावरणिक पार्श्वभूमि पर चर्चाओं से हम गंगा का अहित ही कर रहे हैं।

(ज्यूलियन क्रॅडॉल हॉलिक लिखित ‘गंगा’ नामक मूल अंग्रेजी पुस्तक के अनुवादित संपादित अंश)

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