वक्त हर जुर्म तुम्हें लौटा देगा

पर्यावरण दो शब्दों के मेल से बना है। परि और आवरण। परि अर्थात अच्छी तरह और आवरण अर्थात संरक्षीत। दूसरे शब्दों मे हम यह कह सकते हैं कि पर्यावरण हमारी पृथ्वी का एक ऐसा आवरण या रक्षा कवच है जो हमारे समस्त जीवों को पहाड़ों, नदियों, सागरों और वनों की अनुकुल प्राकृतिक परिस्थितियां और वायु मण्डल में सांस लेने योग्य प्राणवायु की पर्याप्त उपस्थिती के योग से निर्मित होता है। यह रहा शब्द रूप मे पर्यावरण का अर्थ वास्तवरूप मे स्थिती का है। वनों की कटाई के कारण उपजाऊ मिट्टी बहकर चली गई है। वायुमंडल मे प्राणघातक जहरीला गैंसो का अम्बार लगता जा रहा है। जल ही जीवन है पृथ्वी का भू-भाग चारों तरफ जल से घिरा है फिर भी उसके बीच हम प्यासे होते जा रहे है। पिणे योग्य पानी का अभाव बढ़ते जा रहा है। अचानक समुद्र के गर्भ में विस्फोट के कारण सुनामी लहरें के मौत के तांडव का उपस्थित हो जाना। भिषण गर्मी मे बर्फ का पिघलना, अचानक आसमान से बारिश की जगह तेजाब का बरसाना, नये-नये नाम के चक्रपात का आना और उसका विध्वंसक रूप मे तबाधि फैलाना, हमारी नदियाँ कुछ दिनों में नदियाँ नही रही बल्की नालें में तब्दील हो गई है। जल और वातावरण से अनेक जीव विलुप्त हो रहे हैं। तापमान सारी सिमाएँ लांधकर पुराने किर्तीमान तोड़ रहा है। और तो और शिषीर ऋतू मे कोयल ने कूक सुनाना भी बंद कर दिया है। इन सब मानव जाति को परेशान करने वाली बातो की क्या वजह है? इसके लिए कौन दोषी है?

हमने एक शब्द सिर्फ सुना नही तो कुछ वर्षो मे उसे हररोज, बार-बार रपटाया है। वह शब्द है पर्यावरण। आज से 30-40 साल पहले यह शब्द प्रचलन में नही था। ना पढ़ाई का हिस्सा था, ना रोज मरा की बातों का। अब ‘पर्यावरण’ यह शब्द एक बहुत बड़ा विज्ञान बन गया है। उस विज्ञान में पारंगत लोगों को पर्यावरण तज्ञ कहा जाता है। और तो और अब केंद्र तथा प्रदेशों में पर्यावरण के लिए अलग मंत्रालय भी बने हुए है।

मानव जाती का खासा स्वभाव है पहले तो वह कुदरत ने दिए बातों को सीमाए लांघकर बेपर्वा उपयोग में लाता है। चाहे वह वसुंधरा का शरीर हो या अपना स्वास्थ। हमारे स्वस्थ शरीर का तापमान जरा सा यहा-वहा हो जाए तो हम पर क्या बीतती है, इसका हमे खुब अंदाजा है। अब इसी ढंग से धरती के साथ जो हम मानवों ने जादती की है उससे ही अब चिंता उठ खड़ी हुई है। अब धरती का तापमान बढ़ा तो उस वसुंधरा के शरीर पे टिके हम सब लोंगों का क्या होगा, इसकी भयानक तस्वीर नये नये ढंग से हर रोज हमारे सामने ‘पर्यावरण’ इस नाम से पेश हो रही है।

विकास एवं तंत्रज्ञान के झांसे मे आए मानव जाति ने आकाश की ऊँचाई को भी बौना बना दिया है। किंतु विकास की मदान्धता ने हमारी प्रगती को, मानव जाति को, संपूर्ण जीन जाती को विनाश के कितने करीब ला दिया है। जिसका वास्तविक एहसास अब हमे होने लगा है। आज हम अपने निजी स्वार्थ को विकास का नाम देकर जिस दर्दनाक तरीके से प्रकृतिका दहन कर रहे है, वास्तव मे वह जुर्म है। इस जुर्म की सजा हमे अवश्य मिलेगी। वक्त हमारे इस जुर्म को कभी माफ नही करेगा। किसी ने ठीक ही कहा है। वक्त हर जुर्म तुम्हारा तुम्हे लौटा देगा, वक्त के पास कहां रहमो करम होता है।

हम दुनिया की नही तो अपने देश के बारे मे सोचे तो, हमारे भारत देश मे पुरातन काल से जो व्यवस्था प्रचलित थी उनमे मनुष्य-जीवन समृद्ध हो, समान-जीवन समृद्ध हो और साथ-साथ प्रकृति भी समृद्ध होथे रहे इसका पूरा ध्यान रखा गया था। हमारे समाज के मनीषियों ने सत्ता या शासन की ओर देखने के बजाय मनुष्य की सोच को ही ऐसा बनाने का प्रयास किया जिसमे पर्यावरण का और अन्य जीवों का अपने आप समावेश हो जाए। आपको उदाहरण देता है।

हमलोग नो पूजा करते है। उसका एक हिस्सा संकल्प का होता है। ‘सर्वे भवंतु सुखिन:, सर्वे संतु निरामया।’ हम ने अपने संकल्प मे यह कहा कि मेरे मे या घर के चारों ओर जो विपद, चतुष्पद जीव है; उसकी रक्षा, स्वास्थ हमने मांगी। इस पर्व शब्द की व्याप्ती में केवल मनुष्य नही, सभी जीवों की रक्षा का भाव समावेश है। हमारी परंपरा में हमारे मनिषियोंने जिसकी रक्षा करनी हो, उसे मां के स्थान पर रख दिया। गंगा की रक्षा करनी है, तो ‘गंगा’ को ‘गंगा मइयां’ समझो। पेड-पौधो की रक्षा करनी है तो उनको पवित्र मानकर उनकी पूजा करो। जीव-जंतुओकी रक्षा करनी है, तो उनको भगवान के साथ जोड दो। इसलिइ स्वाभाविक रूप से धरती की ही रक्षा करनी हो, तो धरती को भी मां, मान लो।

पर बदलर्थ मॅकले शिक्षा नितीने हमारे संस्कार मिटा दिए और हम अपने संकल्प को उनका विनाश की ओर जा रहे है। अब चिंतन से ज्यादा पहल की दरकार है। क्योकि किसी युद्ध या आंतकी घटना मे होने वाली मौतो की तुलना मे पर्यावरण की गतिविधीयों से होनेवाली मौतों की संख्या कई गुना ज्यादा है और इसी को लेकर विश्व के हर क्षेत्र मे तनाव है। पडोसी देशो व राज्यों के बीच तलवारें खिंच रही है। गांव, शहर, गल्ली, मोहल्लों में लठ्ठ चल रहे हैं। गंभीर एवं गहराती इस पर्यावरण की समस्या मे खुनी संघर्ष के बीज छिपे है, जो कभी भी विस्फोट रूप धारण कर सकते है।

जिस से प्राकृतिक ढांचे और पर्यावरण का नुकसान हो वह विकास नही है। यदि हम चाहती है कि आने वाले पिढ़ियों को विकास का अवसर मिले तो हमें इसकी परिभाषा बदलनी होंगी। विकास और पर्यावरण मे कोई मतभेद नही है। हमे ऐसा मॉडल बनाना होगा जिससे विकास और पर्यावरण को नुकसान न हो। यह रही सार्वजनिक स्तर पर चिंताए। पर हर वैयक्तिक रूप मे पर्यावरण के लिए कुछ पहल का समझे है। घर में किसी बुजुर्ग की मृत्यू हो जाने पर धार्मिक नुकसान के साथ अगर मृत परिजनो के नाम पर एक वृक्ष लगाने को अपना संस्कार बना ले तो जब तक वृक्ष रहेगा तब तक हमारे मृत प्रियजन का नाम रहेगा। साथ मे हमारे पर्यावरण भी स्वस्थ रहेगा।

अत: आईए हम पर्यावरण के शत्रु नही, मित्र बने, जितना होना था हो चुका, अब समय है अपनी गलतियों को सुधारने का तथा एक ऐसा संकल्प लेने का जिससे हम अपने वारिसों को एक सुनहरा सवेरा दे सकें, जिससे आने वाली पिढ़ीया स्वयं को हर क्षेत्र मे सुरक्षित समझे।

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