जाति की दलदल में फंसा उत्तर प्रदेश

भारत के राजनीतिक क्षितिज पर उत्तर प्रदेश का महत्वपूर्ण स्थान है। यहां से लोकसभा के लिए सब से अधिक सांसद निर्वाचित होते हैं। स्वतंत्रता के पश्चात सर्वाधिक प्रधान मंत्री उत्तर प्रदेश से निर्वाचित सांसद थे। कुल 13 प्रधान मंत्रियों में 8 उत्तर प्रदेश से थे। ऐसा कहा जाता है कि केंद्र की सत्ता का मार्ग उत्तर प्रदेश होकर जाता है। केंद्रीय शासन का प्राणवायु है उत्तर प्रदेश!

परंतु दुर्भाग्य से उत्तर प्रदेश की राजनीति जाति के भंवर में उलझ कर रह गई है। उत्तर प्रदेश में राष्ट्रीय दल- भाजपा एवं कांग्रेस जातिगत समीकरण के कारण हाशिये पर पहुंच गई हैं। सपा, बसपा जैसे क्षेत्रीय दल हावी हो गए हैं।

स्वतंत्रता के उपरांत सम्पूर्ण भारत की भांति उत्तर प्रदेश में भी कांग्रेस की सत्ता रही। पूरा प्रदेश कांग्रेसमय था। लेकिन वर्षों तक उत्तर प्रदेश से और उत्तर प्रदेश के लिए कोई नेतृत्व उभर नहीं सका। जो भी थे वे केंद्र में पं. जवाहरलाल नेहरू पर आश्रित थे। नेहरूजी देश को कम विदेश को ज्यादा समझते थे। दूसरी ओर विपक्ष में डॉ. राम मनोहर लोहिया, पं. दीनदयाल उपाध्याय और आचार्य नरेंद्र देव जैसे विद्वान, नीतिकार एवं राष्ट्रवादी विचारक थे। वे राजनीति में दूरदृष्टि रखते थे, जमीन से जुड़े जनप्रिय नेता थे और उत्तर प्रदेश को अच्छी तरह समझते थे। कांग्रेस में ऐसा कोई नहीं था। जातियां दो विचारधाराओं में बंटी थीं। एक थी कांग्रेस की विचारधारा और दूसरी थी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा, जिसका प्रवाहक भारतीय जनसंघ था। फिर भी, अधिकतर जातियां कांग्रेस के साथ थीं।

जातीय आधार पर यहां साठ के दशक की शुरुआत में राजनीति आरंभ हुई। इसके जनक हैं चौ. चरण सिंह। उन्होंने पिछड़ी जातियों को गोलबंद करने का आंदोलन चलाया जिसे ‘अजक (अ से अहीर अर्थात यादव, ज से जाट तथा क से कुर्मी) आंदोलन’ के रूप में जाना जाता है। यह आंदोलन सफल रहा। चौ. चरण सिंह किसानों के नेता के रूप में उभरे। 1 अप्रैल 1967 को चौ. चरण सिंह ने कांग्रेस छोड़ दी। अन्य विधायकों ने उनका साथ दिया। वे भारतीय जनसंघ के सहयोग से ‘संयुक्त विधायक दल अर्थात संविद’ के नेता चुने गए। 3 अप्रैल 1967 को वे प्रदेश के मुख्यमंत्री बन गए। उन्होंने ‘क्रांति दल’ के नाम से नई पार्टी गठित की, जो आगे चल कर लोकदल बन गई। राज्य में चुनाव हुए और चौ. चरण सिंह दुबारा मुख्यमंत्री बने। उनका शासन उत्तम था, लेकिन उन्होंने जाति आधारित राजनीति का जो बीज बोया वह आज ‘विषवृक्ष’ बन कर उत्तर प्रदेश को ग्रसित कर रहा है।

उत्तर प्रदेश की राजनीति ने फिर करवट बदली। इंदिरा गांधी, राजनारायण से चुनावी मुकदमा हार गई तो उन्होंने पूरे देश में आपात्काल की घोषणा कर दी। सभी विपक्षी नेताओं को जेल में डाल दिया गया। अखबारों पर सेंसर लग गया। परंतु, देशभक्त रा. स्व. संघ ने इसका डट कर विरोध किया। स्वयंसेवकों ने भूमिगत रह कर जनता को आपात्काल के खिलाफ जागृत किया। अंत में इंदिरा गांधी को आपात्काल खत्म कर चुनाव की घोषणा करनी पड़ी। सभी नेता रिहा हो गए। लोकनायक जयप्रकाश नारायण के प्रयास से सभी राजनीतिक दल एक हो गए और ‘जनता पार्टी’ नामक नई पार्टी का गठन किया गया। चुनाव हुए और जाति बंधन टूट गया। जनता पार्टी विजयी हुई और मोरारजी देसाई प्रधान मंत्री बने। अनेक कारणों से यह सरकार अल्पकालिक रही और जनता ने फिर इंदिरा गांधी को तख्त सौंप दिया। परंतु इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि जातियां राजनीतिक आधार पर विभक्त हो गईं। बाबू जगजीवनराम कांग्रेस से अलग हो गए। इस कारण दलित कांग्रेस से विमुख हो गए। जगजीवनराम के निधन के बाद दलित आधार विहीन हो गए। उसी समय हरियाणा व पंजाब में अपना आधार बना चुके कांशीराम उत्तर प्रदेश के राजनीतिक क्षितिज पर उभरे। उन्होंने डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर के नाम पर दलितों के ध्रुवीकरण का अभियान चलाया। उनकी शिष्या बहन मायावती के तेज तेवरों ने उनका साथ दिया। ‘तिलक, तराजू और तलवार’ यह नारा दलितों को बहुत भाया। तिलक से ब्राह्मण, तराजू से वैश्य और तलवार से क्षत्रिय का सम्बोधन था। इसके कारण कांशीराम- मायावती की बहुजन समाज पार्टी के साथ दलितों का ध्रुवीकरण हो गया, जो आज तक चल रहा है।

सन 1984 से अयोध्या में राम मंदिर के पक्ष में न्यायालय का निर्णय आया। मंदिर के द्वार खुल गए। पूजा पाठ आरंभ हो गया। विश्व हिंदू परिषद ने मंदिर के निर्माण के लिए आंदोलन शुरू किया। उनका नारा था, ‘जो मंदिर की बात करेगा, वही देश पर राज करेगा।’ इस आंदोलन को रा. स्व. संघ, भारतीय जनता पार्टी का सहयोग प्राप्त था। अयोध्या आंदोलन के कारण हिंदुओं का ध्रुवीकरण हो गया। भाजपा तेजी से आगे बढ़ी। उन्होंने नारा दिया, ‘राम लला हम आएंगे, मंदिर वहीं बनाएंगे।’ अयोध्या में लाखों कार सेवक एकत्र हुए। उत्तर प्रदेश के तत्कालिन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने निहत्थे कार सेवकों पर गोलियां चलवा दीं, जिससे कई रामभक्त मारे गए। इस घटना ने मुसलमानों को बहुत प्रभावित किया और वे कांग्रेस का साथ छोड़ कर मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी के साथ हो गए। इसके विपरीत हिंदू भाजपा के साथ एकजुट हो गए। केवल दलित हिंदू बहन मायावती के साथ ही रहे। चुनाव में भाजपा को विजयश्री प्राप्त हुई और कल्याण सिंह के नेतृत्व में उत्तर प्रदेश में भाजपा की सरकार बनी। उसी काल में अमोध्या आंदोलन चरमोत्कर्ष पर था। परिणामस्वरूप 6 दिसम्बर 1992 को बाबरी ढांचा ढहा दिया गया। उसी स्थान- जन्म भूमि पर श्री राम मंदिर की स्थापना हो गई।

केंद्र सरकार ने उत्तर प्रदेश सरकार को भंग कर दिया। चुनाव हुए परंतु भाजपा को पूर्ण बहुमत नहीं मिल सका। बसपा और सपा जातीय आधार पर राजनीति करने लगीं। सपा के साथ यादव व मुस्लिम तथा बसपा के साथ दलित पूर्ण रूप से जुड़ गए। भाजपा के साथ वैश्य, ब्राह्मण, क्षत्रिय, कायस्थ, कुर्मी, कोईरी (मौर्य, कुशवाहा) इत्यादि जातियां रहीं। भाजपा ने विवशता के कारण बहुत बड़ी राजनीतिक भूल की। उसने बार-बार समर्थन देकर मायावती को मुख्यमंत्री बनवाया। इससे मायावती ताकतवर बन गईं। मायावती का सवर्णों के खिलाफ खड़ा होना और भाजपा का मौन रहना ऐसा कारण था जिससे सवर्णों में भाजपा के प्रति रोष पैदा हो गया। मायावती इसे अच्छी तरह से समझती थीं। उन्होंने अपने वकील सतीश मिश्र को पार्टी में महत्वपूर्ण पद देकर और ब्राह्मण सम्मेलन कर ब्राह्मणों को अपने पक्ष में करने की योजना बनाई। ब्राह्मणों ने भी भाजपा का साथ छोड़ कर मायावती का दामन थाम लिया। उत्तर प्रदेश के ब्राह्मण, सतीश मिश्र को अपना प्रतिनिधि मानने लगे। मुलायम सिंह यादव ने भी अमर सिंह के नेतृत्व में क्षत्रिय सम्मेलन किए, परंतु उत्तर प्रदेश का क्षत्रिय राजनाथ सिंह को अपना प्रतिनिधि मानता रहा। कल्याण सिंह के पार्टी से अलग होने के कारण लोद व कुर्मी मतदाता कुछ अंश में अलग हुए। भाजपा में विनय कटिहार व ओम प्रकाश सिंह जैसे कुर्मी नेताओं के कारण कुर्मी भाजपा के साथ जुड़े रहे।

उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह सरकार निरंकुश हो गई थी। गुंडागर्दी चरम पर थी। जनता त्राहि-त्राहि कर रही थी। उसी समय मायावती ने नारा दिया, ‘चढ़ गुंडों की छाती पर, मुहर लगाओ हाथी पर।’ उनका एक और नारा था, ‘हाथी नहीं गणेश है; ब्रह्मा, विष्णु, महेश है’। इस तरह ब्राह्मणों व दलितों के गठजोड़ से मायावती पूर्ण बहुमत के साथ मुख्यमंत्री की कुर्सी पर आरूढ़ हुईं। लेकिन सत्ता की नशा उनको चढ़ गई, तानाशाह जैसा व्यवहार करने लगीं, जनकल्याण के बजाय जनता का पैसा मूर्तियों और उद्यानों पर खर्च करने लगीं, गुंडागर्दी व अराजकता बढ़ गई। उसी समय सपा ने नारा दिया, ‘गुंडे चढ़ गए हाथी पर, गोली मारो छाती पर।’ मायावती के प्रति जनाक्रोश भड़क उठा। राज्य में चुनाव हुए। मायावती का वोट तो उनके साथ रहा, लेकिन भाजपा का वोटर क्षत्रिय, कुर्मी व अन्य जातियां, एक तरह से बहुसंख्यक हिंदू मुलायम सिंह के साथ चले गए। क्षत्रियों के मुलायम सिंह के साथ जाने से ‘प्रतापगढ़ के क्षत्रप’ रघुराज प्रताप सिंह उर्फ राजा भैया बने। उन पर मायावती के शासन काल में बहुत अत्याचार हुए। भाजपा मौन रही, मुलायम सिंह ने उन्हें संरक्षण दिया। उत्तर प्रदेश का क्षत्रिय राजनाथ सिंह के बजाय राजा भैया को अपना प्रतिनिधि मानने लगा। क्षत्रियों के साथ ही अन्य हिंदू जातियों (केवल दलित हिंदू छोड़ कर) ने मुलायम के पक्ष में मतदान किया। उन्होंने मुलायम सिंह की मुस्लिम तुष्टिकरण व अयोध्या में हिंदुओं के हुए नरसंहार को बिसार दिया। मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी प्रचंड बहुमत से सत्ता में आई। मुलायम सिंह के पुत्र अखिलेश सिंह मुख्यमंत्री बने, लेकिन प्रभावी तो आजम खान ही रहे। इस समय उत्तर प्रदेश में एक तरह से इस्लामिक शासन चल रहा है। सरकार की प्रत्येक योजना मुस्लिम हितार्थ बन रही है। हिंदू वहां दूसरे दर्जे का नागरिक बन गया है। राज्य में पूर्ण रूप से माफिया राज आ गया है। वहां जनहितार्थ कार्य करने वाले, कर्तव्यनिष्ठ, सत्यनिष्ठ अधिकारियों को निलंबित कर दिया जाता है। नोएडा की एसडीएम श्रीमती दुर्गाशक्ति नागपाल इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है।

उत्तर प्रदेश का मतदाता जब तक जाति की दलदल से बाहर निकल कर प्रदेश में व्याप्त भ्रष्टाचार, अनाचार, माफियाराज के विरोध में और विकास के लिए मतदान नहीं करता तब तक वह जाति रूपी अंधकार में डूबा रहेगा। प्रकाश की किरण तभी आएगी जब घर-घर एवं जन-जन तक ये पंक्तियां गूंजेगी-

भूल कर भी मुख में जाति पंथ की न बात हो,
भाषा प्रांत के लिए कभी न रक्तपात हो,
फूट का भरा घड़ा है, फोड़ कर बढ़े चलो,
भला हो जिसमें देश का वो काम सब किए चलो।
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