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 माहेश्‍वरी समाज की संस्कृति

 माहेश्‍वरी समाज की संस्कृति

by हिंदी विवेक
in सामाजिक, सितंबर- २०१५
1

धर्मपरायणता, व्यापार, उद्योग और व्यवसाय में शीर्षस्थान हासिल करने, स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय रहने तथा लोक कल्याण और शिक्षा क्षेत्र में निस्वार्थ सेवा प्रदान करने के साथ साथ अपनी स्वतंत्र पहचान बनाए रखना भी माहेश्वरी समाज की विशेषता है।

राजस्थानी वैश्य वर्ण की एक अल्पसंख्यक उपजाति (ज्ञाति) है माहेश्वरी समाज! अशुद्ध या देशिक रूप में कई बार उन्हें महेसरी या मेश्री भी कहा जाता है। वैसे प्रारंभ में वे माहेश्वरी न कहला कर ‘महेश्वरी’ नाम से जाने जाते थे। एक मोटे अनुमान के अनुसार माहेश्वरियों की वैश्विक संख्या लगभग बारह लाख होगी, फिर भी कुछ ऐसा विशेष है इस जाति में कि इसे राष्ट्रीय स्तर पर सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है। इसकी जातिगत विशेषताएं धर्मपरायणता, व्यापार, उद्योग और व्यवसाय में शीर्षस्थान हासिल करने, स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय रहने तथा लोक कल्याण और शिक्षा क्षेत्र में निस्वार्थ सेवा प्रदान करने के साथ साथ अपनी स्वतंत्र पहचान बनाए रखना भी है!

भारतीय संदर्भों में समाज व्यवस्था को धर्म व्यवस्था से अलग कर नहीं देखा जा सकता। इसी कारण माहेश्वरी जाति का जब भी उल्लेख होता है, तो उनकी ईश्वर के प्रति अगाध श्रद्धा, हिन्दू धर्म में उल्लेखित व्यवस्था के प्रति सहज निष्ठा का उल्लेख अवश्य होता है। कई अंशों में माहेश्वरी अमूमन धर्मभीरु कहे जा सकते हैं। इस धर्मनिष्ठा के पीछे इस समाज की परंपराओं और संस्कृति की महत्वपूर्ण भूमिका रही है।
लोकोक्तियों के अनुसार जयपुर के पास स्थित खंड़ेला नामक स्थान पर राजा खड्गसेन राज्य किया करते थे। पुत्रहीन राजा को ऋषि याज्ञवल्क ने भगवान महादेव की आराधना करने की सलाह दी। महादेव के आशीर्वाद से राजा को सुजानसिंह नामक पुत्र हुआ। युवावस्था में सुजानसिंह अपने ७२ उमरावों के साथ आखेट हेतु वन में गया।वहां अरण्य में कुछ ऋषि यज्ञ कर रहे थे। सुजानसिंह तथा साथियों के शोरशराबे से नाराज़ हो उन्होंने सब युवकों को पत्थर हो जाने का शाप दे दिया। यह ख़बर पा कर रानी तथा सहयोगियों की पत्नियां विलाप करती हुई वहां पहुंचीं। उनके विलाप से पसीज कर जगत जननी पार्वती ने भगवान शिव से प्रार्थना की कि उन्हें सजीव कर दें! भगवान ने वैसा ही किया, परंतु साथ ही उन्हें क्षात्र धर्म का त्याग कर वैश्य वर्ण अंगीकार करने का आदेश भी दिया! आशुतोष भगवान शिव या महेश अथवा महेश्वर तथा जगदंबा भगवती पार्वती जिन्हें भगवान महेश की अर्द्धांगिनी होने के कारण महेश्वरी कहा जाता है, के आशीर्वाद से पाषाणवत क्षत्रियों को नवजीवन तथा वैश्यत्व प्राप्त हुआ था, और इसी कारण वे स्वत: को अमृतस्य पुत्र: कहते हैं! (महा ईश्वर के अपत्य के रूप में :- महेश्वरस्य अपत्यं पुत्रान् इति माहेश्वर, भी!) इस सम्बोधन ने उन्हें जैसे दायित्व सौंप दिया है धर्मरक्षा का! परिणाम स्वरूप माहेश्वरी पूजा पाठ, भोजन शुचिता, कर्मकाण्ड, शाकाहार, धर्मकार्य और धर्मदाय बातों में पहली पंक्ति में दिखाई देते हैं।

पुराने समय से माहेश्वरियों में चौके की पवित्रता बनाए रखने की परंपरा दिखाई देती रही है। प्रवास में भी वे भोजन की शुचिता का नियम पूर्ण निष्ठा से निबाहा करते थे। सामान्य तौर पर घर से निकलते समय पुराने माहेश्वरी कहा करते थे सदा भवाणी दाइनी, सन्मुख होय गणेश, पांच देव रक्षा करो, ब्रह्मा, विष्णु, महेश! प्रवासी माहेश्वरियों को सामूहिक चौकों या बासों ने नई जगहों पर स्थापित होने में बहुत सहायता की। वे यहां भोजन की शुद्धता और पवित्रता के प्रति निश्चिंत रह सकते थे। माहेश्वरी मूल रूप से पूर्णत: निरामिष भोजी होते हैं। प्याज़ और लहसुन भी पुराने घरों में वर्ज्य हुआ करते थे। माहेश्वरियों में भोजन सम्बंधी विवेक उत्कर्ष पर माना जाता है। उनकी भाषा में भी हिंसावाचक शब्द नहीं हुआ करते! वे सब्ज़ी काटते नहीं ‘बंदारते’ हैं! ठीक वैसे जैसे दुकान बंद नहीं की जाती ‘बढ़ाई’ जाती है!

माहेश्वरियों में रोटी- बेटी सम्बंध (विवाह और साथ में बैठ भोजन) में पूर्व में बहुत संकुचित दृष्टिकोण दिखाई देता था। उनमें स्थान, लोकाचार तथा अन्यान्न कारणों से लगभग २८ भेद थे जैसे जैसलमेरी, बीकानेरी, देसावर, धाकड़, कोलवार, विष्णु, इत्यादि। तब उन में परस्पर विवाह सम्बंध नहीं होते थे! स्व. सेठ रामेश्वर लाल जी बिड़ला को कोलवार माहेश्वरी कन्या से विवाह के कारण जाति बहिष्कार का दंश झेलना पड़ा था! कोगटा और तोतला (दोनों माहेश्वरी) में भी परस्पर विवाह नहीं होता था! कहते हैं कि सांभर और नराण के बीच कोगटा और तोतला बरातें आमने सामने आ गई थीं। पहले कौन पर तलवारें निकल गईं! तब से ही यह चल रहा था! कहते भी थे-

आपस माही वेरा है खोगटा अरु तोतलान
इक पंगत भोजन करे उलट गिरे सच जान!

ऐसे ही कहते हैं खटोड़ और सारड़ा में भी पूर्व में अन-बन थी। माहेश्वरी सामान्यतः सगोत्र विवाह नहीं करते! वे अपनी पहचान गोत्र, प्रवर, माता, वेद, शाखा, भैरूं, ऋषि, गुरु और ध्वज के आधार पर तय करते हैं। माहेश्वरियों की जीवन शैली और सामाजिक प्रतिष्ठा से आकर्षित हो कुछ जैन धर्मियों ने भी धर्मत्याग कर स्वत: को माहेश्वरियों में सम्मिलित कर लिया!
कहते हैं:-

पोरवार पुनि देवपुरा मंत्री नोलखा जान
जैन धर्म छोड़ कर असपत मिलिया आन ॥

सामान्य तौर पर दो अन्य बातें इन्हें अन्य राजस्थानी या मारवाड़ी वैश्यों से अलग करती है। प्रथम यह कि माहेश्वरियों में विवाह के समय तीन फेरे द्वार पर ही हो जाते हैं (इन्हें मामा फेरे या बाहर के फेरे कहा जाता है) और शेष चार फेरे बाद में अग्नि की साक्षी से होते हैं! ऊपर उल्लेखित दंतकथा कहती है कि जब ऋषियों के श्राप से प्रस्तर हो चुके ७२ क्षत्रिय उमरावों को भगवान महेश ने वैश्य रूप में तो पुनर्जीवन दिया था तो उनकी पत्नियों ने प्रश्न किया था कि वे तो क्षत्राणियां हैं! पति वैश्य पत्नी क्षत्राणी, यह कैसे होगा? साथ ही वे अपने अपने पतियों के प्रति पूर्णत: समर्पित भी थीं! तब महेश भगवान ने कहा था, तुम अपने अपने पतियों की तीन प्रदक्षिणा करो (कुछ कथाओं में दोनों द्वारा नीम के तीन फेरे) तुम भी वैश्य वर्ण को प्राप्त हो जाओगी! अस्तु! तब से यह प्रथा चली आ रही है। विवाह के समय माहेश्वरी वधु के लिए हाथीदांत के कंगन या कड़े पहनना भी आवश्यक है! ये कंगन कम से कम चालीस दिन पहने रखने होते हैं! पुराने समय में सामान्यतः माहेश्वरी पुत्री के घर तब तक भोजन नहीं करते थे जब तक उसे संतान न हो जाए!

और दूसरी यह कि माहेश्वरियों में किसी की मृत्यु होने पर मात्र पुत्र ही क्षौरकर्म (सिर मुंडवाना या इसे भद्दर कहते हैं) नहीं कराता वरन् नाती पोते सभी केश देते हैं (सिर मुंड़ाते हैं)!

माहेश्वरी शिव या महेश को पूजने वाले वैष्णव होते हैं! भगवान महेश के नाम से वे स्वत: को सम्बोधित तो करते हैं परंतु वे शैव मतावलम्बी नहीं हैं! इसे यों समझा जा सकता है शिवद्रोही मम दास कहावा, ते नर मोहि सपनेहु नहिं भावा- श्री रामचरितमानस में प्रभु राम की उक्ति! भक्ति की दृष्टि से माहेश्वरियों में वल्लभ सम्प्रदायी, स्मार्त, निम्बार्क, रामानुजी, रामसनेही, भागवती, श्यामसनेही प्रकार पाए जाते हैं। इन लोगों के माथे पर लगने वाले तिलक भी भिन्न होते हैं! महाराष्ट्र में वारकरी माहेश्वरियों की भी बड़ी संख्या है!

वैसे तो संपूर्ण राजस्थान में गणगौर का उत्सव हर्षोल्लास से मनाया जाता है परंतु माहेश्वरियों में इसका अनन्य महत्व है। इसे ही गोरजा भी कहा जाता है! यह कुमारियों और सौभाग्यवती स्त्रियों का पर्व है। कुमारियां इसलिए गण और गौर (शिव पार्वती) की पूजा करती हैं कि अच्छा पति मिले और विवाहिताएं इसलिए कि उनका सौभाग्य बना रहे! होली के अगले दिन से चैत्र शुक्ल तृतिया (तीज) तक यह उत्सव मनाया जाता है। इन दिनों में सुबह जल्दी उठ कर स्नान पश्च्यात् श्रृंगार कर सहेलियां साथ मिल कर गीत गाती हुईं दिख जाएंगी! गोर गोर गोमती, ईसर पूजे पारवती, चौको दे चौको दे, ईसर का भाण चौको दे और गौर ए! गौर माता खोल किवाडी, बाहर ऊभी थारी पूजनवाली जैसे गीतों की अपनी ही गरिमा और आनंद है। होली की राख और गोबर से आठ पिंड बनाए जाते हैं। पूजा के लिए जल और दूर्वा लाई जाती है। दूर्वा पर पिंडों को रख उन पर ईसर और पारवती के विग्रह स्थापित किए जाते हैं। १८ दिन यह पूजा चलती है! चैत्र शुक्ल तृतीया को गाजेबाजे के साथ मूर्तियां नदी या पोखर में विसर्जित की जाती हैं। इस जुलूस में बड़े राजा महाराजा, सरदार भी सम्मिलित होते हैं।

भादो (भाद्रपद) माह की कृष्ण पक्ष की तृतीया को मनाई जाती है ‘बड़ी तीज’! उस दिन सौभाग्यवती स्त्रियां पति की कुशलता और दीर्घायु के लिए और कुमारिकाएं अच्छा पति मिले इसलिए व्रत करती हैं। रात को चंद्रमा के दर्शन कर सत्तू खाकर व्रत खोला जाता है! इसे सातूड़ी तीज, हरियाली तीज, कजली तीज या मोटी (बड़ी) तीज भी कहते हैं! द्वितीया को सिंधारा या सिंझारा होता है, उस दिन का एक लोकगीत यों है-
आज सिंधारा तड़कै तीज, छोरियां नै लेयग्मो गोगोपीर!

संपूर्ण देश राखी का त्यौहार रक्षाबंधन को मनाता है, परंतु माहेश्वरियों में भाई पञ्चमी, भाई पांचू या ऋषि पञ्चमी (गणेश चतुर्थी के अगले दिन) पर राखी बांधी बंधवाई जाती है! राजस्थान के ग्रामांचल में परिवार की जेष्ठ महिला दीवार पर थापा (चित्र) बनाती है, उसकी पूजा के पश्च्मात् राखी बांधी जाती है।

महेश नवमी केवल माहेश्वरियों का त्यौहार है तथा वे इसे जात्योत्पत्ति दिवस रूप में मनाते हैं। ज्येष्ठ शुक्ल नवमी को भगवान महेश्वर की पूजा अर्चना कर यह पर्व मनाया जाता है। उस दिन प्रभात फेरियां, भजन, गीत संगीत या अन्य सांस्कृतिक आयोजन भी होते हैं।
माहेश्वरी दीपावली भी बहुत उत्साह से मनाते हैं क्योंकि यह माना जाता है कि रक्षा बंधन ब्राह्मणों का, दशहरा क्षत्रियों का, दीपावली वैश्यों का और होली अन्य जनों का त्यौहार है। इसी प्रकार अक्षय तृतीया (बैसाख शुक्ल तृतीया) भी समाज का एक महत्वपूर्ण उत्सव है। उस दिन अक्षय या पूर्ण अन्न (गेहूं और मूंग या गेहूं और बाजरा) से खिचड़ा बनाया जाता है। लोग एक दूसरे के घर जाते हैं और खिचड़ा खाते हैं।

मो.ः ९४२३०६९१८४

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Comments 1

  1. Prem Sabu says:
    7 years ago

    लेख में कई माहेश्वरी समाज के बारे में, माहेश्वरी समाज के इतिहास के बारे में जानकारी देने का यह प्रयास सराहनीय है. लेकिन कुछ बातें समुचित तत्थों को दिए बिना रखने के कारन आधारहीन प्रतीत होती है. जैसे की माहेश्वरी समाज को वैष्णव संप्रदाय का बताना. पुरातन समाज व्यवस्था तथा शास्त्रों में वर्णित वैष्णव और शैव संप्रदाय के अनुयायियों के बारे में दी गई जानकारी के आधारपर माहेश्वरी समाज शैव संप्रदाय का है. माहेश्वरी समाज के किसी पुरातन ऐतिहासिक ग्रन्थ में अथवा माहेश्वरी वंशोत्पत्ति कहानी में कहीं भी यह उललेश नहीं मिलता है की माहेश्वरी वैष्णव है; ऐसे में समस्त माहेश्वरी समाज को वैष्णव बताना लेखक के वैष्णव संप्रदाय के प्रति व्यक्तिगत रुझान पर आधारित दिखाई देता है. समाज के बुनियादी और सैद्धांतिक बातों के बारे में लिखते समय लेखकों को सावधानी बरतनी चाहिए.

    Reply

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