महाभारत में मातृशक्ति

हमारी भारतीय संस्कृति में ‘स्त्री’ किसी भी रूप में हो सदा पूजनीय मानी गई है। बालिका, कन्या, पत्नी और माता, बहन आदि विविध रूप सदा वंदनीय हैं। स्त्री के विविध रूपों में माता रूप सर्वोच्च माना गया है। श्री महाभारत में मातृशक्ति का दर्शन अनेक बार अनेक रूपों में प्राप्त होता है।

श्री महाभारत में मातृशक्ति का एक उज्ज्वल चरित्र है कुंती माता। जीवन की विविध अवस्थाओं में, उम्र, स्थल एवं काल के अनुरूप माता कुंती की मातृशक्ति उत्तरोत्तर बलिष्ठ और तेजोमय हुई है। कुंती के जीवन के विविध पहलुओं से उसे समझ सकते हैं-

प्रथम दृश्यः साक्षात सूर्य नारायण की कृपा से कुंती कवच-कुंडलधारी नवजाता शिशु को जन्म देती है। मगर उस समय कुंती अविवाहित थी। इसलिए उसने अपने नवजात शिशु का त्याग किया। वह आश्वस्त थी कि यदि भविष्य में पुत्र से मिलना हुआ तो वह कवच-कुंडल से उसे अवश्य पहचान लेगी।

दूसरा दृश्यः हस्तीनापुर की राजसभा में राजकुमारों से प्रतिस्पर्धा करने के लिए एक युवा आया। यह युवा था कुंतीपुत्र। वह अर्जुन के साथ द्वंद्व युद्ध के लिए तत्पर होता है। माता कुंती अपने प्रथम पुत्र को पहचान लेती है। लेकिन उस समय वह कह नहीं पाती कि यह उसका पुत्र है और सुधबुध खो बैठती है।

तीसरा दृश्यः जब दुर्योधन श्रीकृष्ण का समझौते का प्रस्ताव ठुकरा देता है तब श्रीकृष्ण कुंती और विदुर से कहते हैं- अब युद्ध अनिवार्य है। उस समय कुंती माता अपने पुत्रों- पांडवों- को यह संदेश भेजती है तब उसमें एक क्षत्राणी की आभा दिखाई देती है। कुंती की मातृशक्ति का यह अत्युच्च शिखर है।

इस प्रसंग पर कुंती श्रीकृष्ण से कहती हैं-
“हे केशव! धर्मात्मा युधिष्ठिर से कहना कि तू क्षत्रिय है। शांति को अपना धर्म मानकर दया भाव की दुर्बलता मत धारण करना। तू क्षत्रिय है- भिक्षा याचना करके जीवन बिताना तेरा मार्ग नहीं है। कृषि-खेती या व्यापार भी तेरा धर्म नहीं है। तेरा जो पैतृक राज है, जो तुझ से छीना गया है, उसे हासिल करना ही होगा। अगर तुम खुद भोजन जुटाने के लिए दर-दर भटकते रहोगे तो कोई याचक आया तो उसे क्या दोगे?”

“हे, पुत्र! मेरी दशा तो देख- पराये घर में पराधीन होकर जी रही हूं। तुम्हारे जैसे प्रतापी पुत्रों की मैं मां हूं। फिर भी दो रोटी के लिए पराये घर में सांस लेती हूं।”

“क्षत्राणी जिस हेतु से पुत्र को जन्म देती है वह अवसर अब आ गया है… युद्ध के इस खेल में पीछे न हटना-

यदर्थ क्षत्रिया सूते, तस्य कालोज्यम् आगतः।
न हि वैरं समासाध, सीदन्ती पुरुषर्षभा॥”

एक वीरांगणा माता ही अपने पुत्रों को ऐसा संदेश दे सकती है।
कुंती के संदेश के पश्चात श्रीकृष्ण उसे आश्वासन देते हुए कहते हैं, “कुछ ही समय में आप पांडवों को रोगरहित सर्व अर्थसिद्धि सम्पन्न, शत्रुरहित, सर्व लोकस्वामी एवं राज्यलक्ष्मी से समृद्ध देखेंगी।”

तब कुंती श्रीकृष्ण से यह वचन कहती हैं, “हे मधुसूदन! धर्म का रक्षण करते हुए, निष्कपट मार्ग से पांडवों के हित में आप जो उचित समझे वही करना।” (उद्योग पर्व, भगवद्ध्यान पर्व, अध्याय 90)

श्रीकृष्ण से कुंती स्पष्ट रूप से कहती है कि मेरे पुत्रों की जय हो, लेकिन धर्म का लोप न हो। एक कुलीन माता ही ऐसे विचार प्रकट कर सकती है।
चौथा दृश्यः महाभारत का युद्ध समाप्त हो गया है। वीर गति प्राप्त सभी योद्धाओं का अग्नि संस्कार किया गया है। उदक दान, श्राद्ध तर्पण किया गया- तब कुंती माता ने युधिष्ठिर से कहाः

“जो वीर था, महान धनुर्धर था और जो अर्जुन के हाथों वीर गति को प्राप्त हुआ- जिसे तुम सूतपुत्र मानते थे ऐसे कर्ण का तू तर्पण कर।”

युधिष्ठिर ने परेशानी से पूछा, “शत्रु सेना के एक महारथी का तर्पण मैं क्यों करूं?”
तब माता कुंती ने कहा, “पुत्र, युधिष्ठिर तू उसका तर्पण कर, क्योंकि कर्ण तेरा जेष्ठ भ्राता है।”

ऐसी निर्भीकता कुंती माता ने प्रकट की- यह है महाभारत की मातृशक्ति! इन चार दृश्यों में कुंती माता की मातृशक्ति की चरम सीमा उम्र-स्थल तथा काल के अनुसार उत्तरोत्तर बलिष्ठ होती गई यह हम समझ सकते हैं।

महाभारत की ऐसी ही एक और प्रतापी मातृशक्ति है- उत्तरा- अर्जुन के युवा पुत्र अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा।
अश्वत्थामा ने ब्रह्मास्त्र से उत्तरा के गर्भ का नाश किया। परिणामतः उत्तरा ने मृत शिशु को जन्म दिया। इस समय पांडवों में हाहाकार मच गया। तब उत्तरा ने अपने मृत पुत्र को जीवंत करने के लिए श्रीकृष्ण से प्रार्थना की।

श्रीकृष्ण ने अपने हाथ में जल लिया, मन में मंत्रोच्चार किया और बाद में प्रण लेते हुए कहा, “हे उत्तरा! सभी लोगों के सामने मैं तेरे पुत्र को सजीवन करूंगा।”

थोड़ी देर बाद ऊंची आवाज में भगवान कृष्ण ने कहा, “यदि मैंने हंसीमजाक में या स्वैच्छिक रूप में असत्य का उच्चारण न किया हो और यदि मैं युद्ध में कभी भी पीछे न हटा हो तो तेरा यह पुत्र जीवित हो।”
-मृत पुत्र जीवित न हुआ।

भगवान श्रीकृष्ण ने दुबारा हाथ में जल लिया, मंत्र पढ़े और बोले, “यदि मुझे धर्म और प्रिय अतिप्रिय हो और अर्जुन की कोई बात में मेरा विरोध न हो तो उस सत्य के प्रभाव से यह बालक सजीव हो।”
-मृत पुत्र जीवित न हुआ।

भगवान श्रीकृष्ण ने तीसरी बार अपने हाथ में जल लिया, मंत्रोच्चार किया और बोले, “यदि मैंने कंस और केशी को धर्म रूप से मृत्युदण्ड दिया हो तो सत्य के उस प्रभाव से यह बालक सजीव हो।”
-किंतु, मृत पुत्र जीवित न हुआ।

अब श्रीकृष्ण ने चौथी बार हाथ में जल लिया, मंत्रोच्चार के पश्चात बोले, “यदि सत्य और धर्म सदा काल मेरे में निहित है तो अभिमन्यु का यह मृत पुत्र सजीव हो।”

यथा सत्याश्च मयि नित्यं प्रतिष्ठितो।
तथा मृतः शिशुज्यं जिवतादभिमन्युजः॥
-और उत्तरा का मृत पुत्र सजीव हो उठा।

आश्चर्य? नहीं, इसमें कोई आश्चर्य नहीं है। परमपिता परमात्मा को कार्यान्वित कर सके ऐसी कोई शक्ति है तो वह है ‘मातृशक्ति!’

उस मातृशक्ति को हमारा शत शत प्रणाम!

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