ममता की अनुभूति

मेरी मां के बारे में जब मैं सोचती हूं तब एक सत्य घटना याद आती है। कई साल बीत जाने के बाद भी वह घटना ज्यों के त्यों मेरे मानस पटल पर आज भी अंकित है।

मेरे मायके का घर जामनगर (गुजरात) में है। उस समय हमारे परिवार में हम सात लोग थे। मेरे माता-पिता, हम तीन बहनें और हमारे दो भाई। हमारी बड़ी दीदी का नाम था हीराबेन, बाद में मैं कोकिला और मेरी छोटी बहन मंजू। हमारे दो भाइयों में बड़े भाई का नाम भोगीलाल और छोटे भाई का नाम जगदीश था। हम सात में से मेरे माता-पिता, बड़े भाई भोगीलाल और छोटी बहन मंजू अब नहीं रहे।

हमारा परिवार मध्यम वर्गीय था। मेरे पिताजी पोस्ट ऑफिस में काम करते थे। मेरी मां रुक्मिणीबेन परिवार का काम कुशलतापूर्वक संभालती थी। हम सब की जरूरतों का पूरा ध्यान रखती थी। मेरी मां ज्यादा पढ़ी-लिखी नहीं थी, लेकिन उसकी इच्छा थी कि उसके बच्चे पढ़- लिखकर बहुत आगे बढ़े। हमारी पढ़ाई में मेरी मां बहुत रुचि रखती थी। वह हमेशा कहती थी, “भले ही मुझे पढ़ना-लिखना न आता हो, लेकिन मैं मौखिक रूप से मेरे बच्चों को अच्छी शिक्षा और संस्कार दे सकती हूं।”
मेरी मां अत्यंत स्नेहमयी और अच्छे स्वभाव की थी। घर में कोई मेहमान आने पर उनके आवभगत में जुट जाती थी। वह हमारी प्रेरणा मूर्ति रही है। मेरी मां के संस्कारों और शिक्षा के कारण ही मैं कुछ बन सकी हूं। अंबानी परिवार में एक मां के रूप में आज मेरा जो स्थान बना सकी हूं उसकी प्रेरणास्रोत मेरी मां ही है। सही मायने में मां की ममता की सच्ची अनुभूति मां बनने के बाद ही समझ में आती है।

साल 1971 में मेरी सासू मां जमनाबा का दुःखद निधन हुआ। उस समय मेरी मां जैपोर (ओडिशा) में मेरे बड़े भाई के घर रहती थी। मेरी भाभी का प्रसव काल नजदीक आ रहा था इसलिए मेरी मां उनके साथ थी। मेरी सासू मां का देहांत हुआ, यह जानकर मेरी मां बहुत दुःखी हुई। उसने मेरे बापू से कहा, “कोकिला की सासू मां का निधन हुआ है और हमें जाना चाहिए। मगर अभी हम जा नहीं सकते तो आप एक पत्र लिख दो।”

पत्र में मेरी मां ने लिखवाया, “तेरी मातातुल्य सासू मां का निधन हुआ है, यह जानकर हमें बहुत दुःख हुआ। इस समय मुझे तेरे पास आकर रहना चाहिए मगर मैं अभी बेबस हूं, तेरे पास नहीं आ सकती।”

मेरे लिए मां हमेशा चिंतित रहती थी और कई बार पिताजी से पत्र लिखवाकर अपनी व्यथा प्रकट करती थी। मेरी मां का मन हमेशा मुझ में जुड़ा रहता था। मगर, इस दुःख के अवसर पर वह मेरे साथ नहीं यह बात उसे मन ही मन खाये जा रही थी। मैं भी मेरी मां की यह भावना समझ सकती थी।

कुछ समय बाद हमने मेरी सासू मां- जमनाबा- की स्मृतितर्पण हेतु भागवत कथा सप्ताह का आयोजन किया। मैंने मेरी मां को पत्र लिखा और कहा, “मां और बापूजी आप इस कथा सप्ताह में अवश्य पधारिये।” पत्र मिलते ही मां-बापूजी ने मुंबई आने का निश्चय किया।

मेरी मां और बापूजी जैपोर (ओडिशा) से मुंबई आ रहे थे तब एक ऐसी घटना घटी जिसका वर्णन करते हुए आज भी मैं व्यथित हो जाती हूं।

उस समय जैपोर से मुंबई के लिए कोई सीधी ट्रेन नहीं थी। बीच में एक स्टेशन पर उतर कर दूसरी ट्रेन पकड़नी थी। इसके लिए पुलिया पार करनी थी। पहली ट्रेन से उतरने के बाद बापूजी ने मां से कहा, “मैं कुली के साथ आगे जाकर गाड़ी के डिब्बे में अपना सामान रखवाता हूं, तू धीरे-धीरे मेरे पीछे चली आना।” मेरे पिताजी कुली के साथ प्लेटफार्म पर आगे बढ़े, उधर मेरी मां प्लेटफार्म की भीड़ में चल रही थी।

मगर ईश्वर की इच्छा कुछ और थी… मेरी मां प्लेटफार्म पर चल रही थी तब अचानक उनके सीने में दर्द होने लगा, जैसे तैसे वह प्लेटफार्म की एक बेंच के पास पहुंचीं और वहीं बैठ गईं। लोगों की भीड़ में से एक व्यक्ति का हाथ पकड़ कर उसे इशारे से समझाया… ‘वे जो जा रहे हैं , उन्हें रोकिए… मेरे सीने में बहुत दर्द हो रहा है…’

वह अपरिचित व्यक्ति मेरे पिता को बुलाने के लिए भागा, मगर मेरे बापू तो अपनी ही धुन में मस्त थे, डिब्बे में पहुंच कर जल्दी से सामान रखवा दूं अन्यथा ट्रेन छूट जाएगी। उस व्यक्ति ने जाकर मेरे पिताजी से कहा, ‘वो बेंच पर बैठी हैं, वो मां जी आपको बुला रही हैं, वो तकलीफ में लगती हैं।’

बापूजी दौड़कर मां के पास आए और पूछा, ‘क्या बात है?’ ‘मेरा जी बहुत घबरा रहा है’, मां ने धीमे से जवाब दिया। पिताजी को लगा कि रेल के सफर में कुछ ज्यादा खा लिया होगा, इसलिए गैस की तकलीफ हुई होगी। उन्होंने मां को सोड़ा पिलाया। थोड़ी देर बाद मां ने कहा, ‘मुझे शक्कर-पानी दो।’ पिताजी ने शक्कर-पानी पिलाया। मां को अब ठीक लग रहा था।

दूसरी ओर पिताजी को यह चिंता थी कि सामान डिब्बे में रखवा दिया है, अब कुछ ही समय में ट्रेन छूटने वाली है। उन्होंने कहा, “अभी थोड़ा ठीक लगता है? जरा धीरे-धीरे चल तो हम ट्रेन में बैठ जाय।” ईश्वर की कृपा से दोनों ट्रेन में बैठ गए।
ट्रेन में बैठने के बाद मां ने बापूजी ने कहा, “मुझे तो हार्ट अटैक जैसा ही लगा था, लगा अब मेरा खेल खतम! अगर कुछ हो गया तो मैं कोकिला से भी नहीं मिल सकूंगी।”

बापूजी ने मां से कहा, “अभी ऐसे विचार छोड़ दें, तुझे कुछ नहीं होगा। हम कुशलतापूर्वक मुंबई पहुंच जाएंगे।” और, मेरी मां और बापूजी मुंबई पहुंच गए।

मेरी छोटी बहन मंजू मां-बापूजी को लेने के लिए स्टेशन पर पहुंच गई। मंजू को देखकर ही मां रो पड़ीं, फिर बोली, “मंजू आज तू तेरी मां का मुख नहीं देख पाती।” यह सुनकर मंजू चौंक पड़ी। उसे लगा, मां ऐसा क्यों कहती हैं? तब मां ने सारा किस्सा सुनाया। फिर मंजू से कहा, “तेरे पिता को मैंने नहीं बताया, किंतु मेरे मन में बहुत बुरे विचार उठे थे, मुझे डर था अगर मुझे कुछ हो जाए तो कोकिला के घर भागवत सप्ताह में बाधा पहुंचेगी और उसका कारण मैं बनूंगी! मैंने श्रीनाथजी से प्रार्थना की, हे प्रभु! तुम सब संभाल लेना!”

यह सुनकर मंजू व्यथित हो गई, फिर भी मां को हिम्मत बंधाते हुए बोली, “मां, अब जो कुछ भी हुआ उसे भूल जा और ईश्वर का उपकार मान कि तुम्हें कुछ नहीं हुआ। मां तुम पर ईश्वर की कृपा है। अब यह सब कोकिलाबेन को कहने की जरूरत नहीं है, सप्ताह अच्छी तरह से चल रहा है। यह बात जानकर कोकिला उदास हो जाएगी।”

मेरी मां हमारे घर ‘उषा किरण’ में आ गईं। मां को देखकर मैं बहुत खुश हुई। मेरी सासू मां के निधन का गम जरूर था, मगर मां की उपस्थिति से मुझे सुकून मिला। मैंने मां को गले लगा लिया।

सप्ताह के दौरान मां की तबीयत नाजुक ही थी, मगर मेरी मां सुबह और शाम कथाश्रवण का लाभ लेती रही। रिश्तेदारों से मिलकर भी वह खुश हो जाती थी।

भागवत सप्ताह का विराम हुआ तब मां ने कहा, “अभी हम जामनगर जाएंगे, टिकट निकलवाते हैं।”
मैंने कहा, “थोड़े दिन और रुक जा। यहां अच्छे डॉक्टर से सब चेकअप करवा लेते हैं।”
मां ने कहा, “ना..रे..ना.. अभी मुझे कोई तकलीफ नहीं है, मुझे तो जल्द जामनगर जाना है।”
मां ने जामनगर के लिए टिकट बुक करवा लिए, मगर ईश्वर की इच्छा कुछ और थी। मां-बापूजी जिस दिन जामनगर जाने वाले थे उसकी पहली रात मां को फिर से छाती में दर्द होने लगा। धीरूभाई ने डॉक्टर को बुलाने के लिए कहा। दूसरे दिन जल्द ही डॉक्टर घर पर आ गए। उन्होंने कहा, “इन्हें तो दिल का दौरा पड़ा है। तुरंत अस्पताल पहुंचाना चाहिए।”

मैंने एम्बूलेंस की व्यवस्था करने को कहा और कपड़े बदलने के लिए मेरे कमरे में गई। थोड़ी ही देर में मेरी कामवाली बाई ने मुझे जोर से आवाज दी, “बहनजी, जल्दी आओ… मां को कुछ हो गया है।”

मैं एक श्वास में ही मां के पास पहुंच गई। मां हमें छोड़कर महाप्रयाण पर निकल चुकी थी। मेरी नजर के सामने ही मां का निश्चल शरीर पड़ा था… एक क्षण तो मुझे विश्वास ही न हो कि मां अब इस दुनिया में नहीं है!

नीचे एम्बूलेंस खड़ी थी और यहां मां ने अंतिम सांस ली थी। अभी कल ही मैंने मेरे भाई को टेलिग्राम किया था, “मां-बापूजी जामनगर आ रहे हैं, उन्हें लेने के लिए स्टेशन जाना” और आज मां का अंतिम प्रयाण! मेरे भाई को मैंने दूसरा टेलिग्राम किया, “मां अब इस दुनिया में नहीं है।” अब भाई कौनसा टेलिग्राम सच माने?

मां के रेल प्रवास की बातें आज भी मेरे कान में गूंज रही हैं। बेटी के घर पर भागवत सप्ताह में कोई बाधा न पहुंचे इस बात से वह कितनी चिंतित थी! इस अदम्य अभिलाषा से उसने ईश्वर से प्रार्थना की और खुद ईश्वर को भी मां की अंतिम इच्छा को पूर्ण करना पड़ा।

जैसे ही भागवत सप्ताह का विराम हुआ, मेरी मां ने अंतिम विदा ली। पहले मेरी सासू मां जमनाबा और अब मेरी मां को खोने का अपार गम था- मगर इस गम के अंधेरे में से बाहर आने की हिम्मत भी मेरी मां के शब्दों से मिली।
मेरी मां कहती थी, “हमारे अनुकूल घटना हो जाय तो हरिकृपा मानो और यदि प्रतिकूल घटना हो जाय तो ईश्वर की इच्छा समझ लो।” मुझे हरि इच्छा को स्वीकार करना पड़ा।

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