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माता शबरी

माता शबरी

by मदन काबरा
in मई -२०१४, सामाजिक
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वनवासी समाज के शक्ति केंद्र के रूप में प्रत्येक वनवासी ग्राम में शबरी धाम मंदिर बनाए जाने की योजना है। वर्तमान में गुजरात के डांग जिले में शबरी धाम स्थल है और वनांचल मित्र मंडल की ओर से इस धाम की यात्रा आयोजित की जाती है। इस सिलसिले में हाल में सिरवेल में एक बैठक का आयोजन किया गया। इस बैठक में पीएचई, म.प्र. के प्रमुख अभियंता जी.एस.डामौर, अधीक्षण अभियंता वी.एस.सोलंकी, वनवासी कल्याण परिषद के ईश्वर सिंह परिहार, मध्यभारत प्रांत के संगठन मंत्री प्रवीणजी डोलके, परिषद के प्रांतीय खेल मंत्री मुकुंद द्रविड़, विभाग संगठन मंत्री शंभु सिहं आदि उपस्थित थे। बैठक में निर्णय किया गया कि शबरी धाम में जाने वाले यात्रीगण वहां से अपने साथ पवित्र जल, ध्वजा, श्रीफल लाएंगे और अपने-अपने गांवों में पहुंच कर शबरी केंद्र स्थापित किए जाएंगे और बाद में जनसहयोग से शबरी मंदिरों का निर्माण किया जाएगा।

शबरी भीलनी का नाम हम सभी जानते हैं। वह शबरी भीलनी पूर्वजन्म में महारानी थीं। एक बार वे राजा के साथ कहीं यात्रा पर गयी थीं। वहां से वापस लौटते वक्त रास्ते में उन्होंने एक गांव की चौपाल पर, एक चबूतरे पर बैठकर किसी संत पुरुष को सत्संग करते देखा। गांव के कुछ लोग वहां बैठकर उनका सत्संग सुन रहे थे।

महारानी ने राजा से कहा : “यात्रा में मंदिर के भगवान के दर्शन तो किये, किन्तु जिस संत के हृदय में से भगवान बोलते हैं उस भगवान की वाणी भी सुनते जायें। आप रथ खड़ा रखिये। आज निर्जला ग्यारस है और सत्संग के दो वचन सुनने का मौका मिला है तो उसका लाभ ले लें।”

किन्तु राजा को यह अच्छा न लगा। उसने रानी की बात न मानी और रथ को आगे चलाने की आज्ञा दे दी। जिसकी बुद्धि सात्विक नहीं होती उसे अच्छी बातें नहीं सूझतीं। जिसको शराब पीने की अथवा अन्य कोई खराब आदत पड़ गयी हो उसकी बुद्धि तो इतनी स्थूल हो जाती है कि यदि दूसरा कोई अच्छी बात समझाये तो भी उसकी समझ में नहीं आती और यदि थोड़ी समझ में आ भी जाये तो उसके अनुसार कर नहीं सकता। महारानी को हुआ कि ‘जो संतपुरुषों के सत्संग और दर्शन से वंचित रखे ऐसा रानी का पद किस काम का है? ऐसा महारानी का पद मुझे नहीं चाहिए। ऐसे हीरे-जवाहरात और श्रृंगार मुझे नहीं चाहिए।’

मीराबाई भी कहती थी कि :
हुं तो नहीं जाऊं सासरिये मोरी मा,
मारुं मन लाग्युं फकीरीमां।
मोती ओनी माळा मारेशा कामनी,
हुं तो तुलसनीनी कंठी पहेरुं मोरी मा।
मारुं मन…
महेल अने माळियां मारे नहीं जोईए,
हुं तो जंगलनी झूंपडीमां रहुं मोरी मा।
मारुं मन…

अर्थात्, हे मां! मैं तो ससुराल नहीं जाऊंगी। मुझे मोतियों की माला से क्या काम? मैं तो तुलसी की माला पहनूंगी। बड़े-बड़े महल मुझे नहीं चाहिए। मैं तो जंगल की झोपड़ी में रह लूंगी। किन्तु ससुराल नहीं जाऊंगी; क्योंकि मेरा मन तो फकीरी में लगा हुआ है।

महारानी ने प्रभु से प्रार्थना की कि, “हे प्रभु! मेरा दूसरा जन्म हो तो ऐसा जुलम न हो, ऐसी तू दया करना। हीरे और मोती पहनूं किन्तु अपनी काया का कल्याण न कर सकूं, आत्मा की उन्नति न कर सकूं तो मेरा जीवन व्यर्थ है। हे प्रभु! मुझे दूसरा जन्म भले किसी साधारण भील के घर मिले, भले मैं भीलनी कहलाऊं; किन्तु गुरु के द्वार पर जाकर तेरा भजन करूं और तुझे पाने का यत्न कर सकूं, ऐसी दया करना।”

वही महारानी दूसरे जन्म में शबरी भीलनी हुई। मातंग ऋषि के आश्रम में रहकर सेवा करने लगी। शबरी आश्रम को झाड़-बुहार कर स्वच्छ करती, पेड़-पौधों में पानी सींचती और दूसरी भी कई छोटी-बडी सेवायें करतीं एवं हरि का स्मरण करतीं। गुरु ने उससे कहा था कि ‘एक दिन राम अवश्य यहां आयेंगे।’ तब से वह बड़े धैर्य एवं प्रेम से राम के आने की राह देखती-

सरोवर कांठे शबरी बेठी…
सरोवर कांठे भीलण बेठी…
धरे रामनुं ध्यान।
एक दिन आवशे स्वामी मारा
अंतरना आराम…
राम-राम रटतां शबरी बेठी…
हैये राखी हाम।
गुरुनां वचनो माथे राखी…
ऋषिना वचनो माथे राखी…
हैये धरती ध्यान।
राम राम रटतां शबरी बैठी…
हैये राखी हाम।

कभी वह सरोवर के किनारे बैठकर ध्यान करती तो कभी किसी वृक्ष पर चढ़कर राम के आने की राह देखती। शाम को वृक्ष से थोड़ी आशा-निराशा के साथ नीचे उतरती; किन्तु हतोत्साहित न होती।

संसार से विदा लेते समय गुरुजी ने कहा था कि, ‘शबरी! एक दिन राम जरूर यहां आयेंगे।’ अत: गुरु के वचनों को शबरी ने सिर-माथे पर रखा। अविश्वास के साथ पूछा नहीं कि ‘कब आयेंगे? आयेंगे कि नहीं? सत्य कहते हैं कि असत्य?…’ उसे तो ‘राम अवश्य आयेंगे’, ऐसा विश्वास है।

महारानी में से शबरी भीलनी बनी उस शबरी की आत्मा कितनी दिव्य होगी और श्रीराम के दर्शन की कैसी तत्परता होगी!
रोज आश्रम की सफाई करे, नये फल-फूल तैयार करे और श्रीराम के आने की राह देखे। अत्यंत सादा एवं सात्विक जीवन जिये और श्रीराम के दर्शन की आतुरता में अपना दिन बिताये। यही उसका जीवनक्रम हो गया।

जब श्रीरामजी ने कबंध राक्षस के पास से शबरी के विषय में सुना तब वे सीता को ढूंढना भूल गये और उन्हें शबरी के आंगन में पहुंचने की आतुरता हो उठी। राम और भरत का भ्रातृप्रेम विख्यात है किन्तु शबरी ने प्रेम की एक नवीन ध्वजा फहरायी है। प्रेम तो स्वतंत्र है। प्रेम यदि खून के संबंध में रुक जाता है तो मोह कहलाता है और रुपयों के संबंध में अटक जाता है तो लोभ कहलाता है। किन्तु केवल प्रेम के लिए ही प्रेम होता है तब परमात्मा प्रकट हो जाता है। शबरी के प्रेम के कारण राम का प्रेम जागृत हुआ है। श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा: “अब सीता की खोज फिर करेंगे। पहले तो मुझे शबरी के प्रांगण में जाना है।”
श्रीरामचंद्रजी को जो कोई भी मिले उससे शबरी का पता पूछते-पूछते पगडण्डियों पर से शबरी के द्वार की ओर जा रहे हैं। इधर शबरी ने पेड़ के ऊपर से दूर तक दृष्टि डालकर देखा तो तीरकमान के साथ आते हुये श्रीराम-लक्ष्मण दिखे। तब उसे लगा कि निश्चय ही ये दोनों भाई मेरे राम-लखन ही होंगे।

शबरी के पवित्र प्रेम के कारण प्रभु ने क्षमा मांगी है। प्रेम एकांगी नहीं हो सकता वरन् परस्पर होता है। जिस व्यक्ति को तुम प्रेम करते हो, उसके हृदय में तुम्हारे लिए नफरत ही पैदा होगी। जिसके लिए तुम बुरा चाहोगे, उसके मन में भी तुम्हारे लिए बुरे भाव ही आयेंगे और जिसके लिए तुम अच्छाई चाहोगे उसके मन में भी तुम्हारे लिए अच्छे विचार आयेंगे, आयेंगे और आयेंगे ही।

शबरी ने भगवान की आतुरतापूर्वक राह देखी और रामजी आये। शबरी ने श्रीरामजी का पूजन किया और रोज की तरह जो फल, फूल कंदमूल श्रीरामजी के लिए संभालकर रखे थे वे श्रीरामजी को दिये। उसने झूठे बेर तक श्रीरामजी को खाने के लिए दिये।

श्रीरामजी को उस प्रेम की मधुरता का ऐसा स्वाद लगा कि सीताजी की सेवा और कौशल्याजी का वात्सल्य भऱा भोजन तक वे भूल गये।

श्रीरामजी ने लक्ष्मण से कहा: “लक्ष्मण! आज तक भोजन तो बहुत किया किन्तु ऐसा भोजन तो कभी मिला ही नहीं।’
श्रीकृष्ण तो लीला करते हैं किन्तु श्रीरामजी विनोद में भी झूठ नहीं बोलते। लक्ष्मणजी ने श्रीराम की ओर देखा एवं ‘यह तो भीलनी के झूठे बेर है’, ऐसा भाव उनके मन में आया। श्रीरामजी को हुआ कि इस प्रेमसरिता के पावन आचमन के बिना, इस पवित्र प्रसाद को लिये बिना लक्ष्मण रह जायेगा। अत: श्रीराम ने एक मुट्ठी भरकर बेर लक्ष्मणजी को दिये और कहा : “लक्ष्मण! ये बेर तुम खा लो। देखो, कितने मीठे हैं।’

लक्ष्मणजी ने श्रीराम की आज्ञा मानी और बेर खाये। लक्ष्मण और श्रीरामजी शबरी को देखते हैं, उसकी झोपड़ी को देखते हैं। लक्ष्मण को तो शबरी का एवं झोपड़ी का बाह्य आकार दिखता है किन्तु श्रीरामजी को तो शबरी में अपना स्वरूप ही दिखता है क्योंकि श्रीराम की द़ृष्टि ज्ञानमयी है। लक्ष्मणजी ने शबरी से पूछा: “इस घोर अरण्य में तुम अकेली रहती हो? मातंग ऋषि को देहावसान हुये तो काफी समय हो चुका है।’

शबरी ने कहा : “मैं अकेली नहीं रहती हूं। यहां आश्रम में हिरण हैं, मोर हैं और सर्प भी विचरण करते हैं। उनके रूपों में जब श्रीराम मेरे साथ हैं तो मैं अकेली कैसे कहलाऊं? एक ही राम सब में बस रहे हैं तो डर किसका और डर किससे हो?’
शबरी की भक्ति अब वेदांत में पलटी है। सेवा अब सत्य में पलटी है। वही बुद्धि अब ऋतम्भरा प्रज्ञा में पलटी है। ज्ञानी गुरु की सेवा फली है। श्रीराम और शबरी का वार्तालाप हुआ है जिसे लक्ष्मण ने सुना। तब उन्हें लगा कि भरत मिलन तो मैंने देखा है किन्तु यह शबरी मिलन तो उसकी अपेक्षा भी अनोखा है।

भरतजी का तो आग्रह था, प्रार्थना थी कि ‘श्रीराम! आप अयोध्या चलिये। शबरी की तो कोई प्रार्थना नहीं है। वह रहने के लिए भी नहीं कहती है और कहीं जाने के लिए भी नहीं कहती है। अब शबरी, शबरी नहीं रही और श्रीराम, श्रीराम नहीं रहे, दोनों एक हो गये हैं। जैसे एक कमरे में दो दियों का प्रकाश हो तो किस दीये का कौन-सा प्रकाश है? यह पहचानना और उसे अलग करना संभव नहीं है। ऐसा ही शबरी एवं श्रीराम का प्रेम-प्रकाश है और दोनों के प्रकाशपुंज में लक्ष्मणजी नहा रहे हैं। कुछ समय पश्चात् शबरी श्रीराम एवं लक्ष्मणजी को आश्रम दिखाने के लिए ले गयी थी और ‘यहां मेरे गुरुदेव रहते थे, यहां मेरे गुरुदेव ने तपस्या की थी, यहां मेरे गुरुभाई रहते थे’, ऐसा कहकर सब स्थान बताये।

घूमते-घूमते एक जगह लक्ष्मणजी को रस्सी पर किसी साधु पुरुष के कपड़े सूखते हुये दिखे। मानो अभी-अभी स्नान करके किसी ने कपड़े सुखाने के लिए डाले हों, ऐसे गीले कपडे देखकर लक्ष्मणजी को आश्चर्य हुआ कि शबरी अकेली रहती है और यहां पर ये धोती, लंगोटी आदि किसी साधु पुरुष के कपड़ कैसे सूख रहे हैं?

श्रीलक्ष्मणजी के संदेह को निवृत्त करने के लिए श्रीरामजी ने कहा : “शबरी के गुरुदेव स्नान करके ध्यान में बैठे और ध्यान में ही महासमाधि को प्राप्त हो गये। वर्षों बीत जाने पर भी शबरी को ऐसा ही लगता है कि उसके गुरुजी यहीं हैं। शबरी के मन की भावना के कारण हवा एवं सूर्य की किरणों ने अपना स्वभाव बाधित किया है, कपड़े अभी तक वैसे के वैसे ही हैं।’ इस बात को सुनकर शबरी को पूर्वस्मृति ताजी हो उठी।

‘शबरी! तुम्हारे द्वार पर श्रीराम आयेंगे। गुरु का वचन याद आ गया। श्रीराम आये, साकार राम के तो दर्शन हुये ही, साथ ही साथ रामतत्व में विश्रांति भी मिली। शबरी का संकल्प पूरा हुआ। रस्सी पर के गीले कपड़ों पर जो भावना थी वह विलीन हो गयी। थोडी तात्विक चर्चा हुई। इतने में तो कपड़े सूखकर नीचे गिर पड़े। ‘ओह…गुरुदेव! आपने अपनी नश्वर देह त्याग दी! अब मुझे भी आपके चिदाकाश स्वरूप में ही विलीन होना है। शबरी का मस्तक श्रीरामजी के चरणों में गिर पड़ा। श्रीराम-लखन के पावन हाथों से शबरी की अंत्येष्टि हुई। धन्य है शबरी की गुरुभक्ति!
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