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एकमेवाद्वितीय…मेरी मां

एकमेवाद्वितीय…मेरी मां

by सई परांजपे
in मई -२०१४, सामाजिक
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कई सारी असामान्य बातों के वरदहस्त के साथ ही मेरा जन्म हुआ। जबसे समझ आई, तभी से यह भी समझ में आया कि मैं अन्य ल़डकियों से बहुत अलग हूं और शायद इसलिए ही अन्य लोगों के कौतूहल का विषय भी हूं। कैंब्रिज में गणित की उच्च परीक्षा प्रथम श्रेणी में प्रथम क्रमांक से उत्तीर्ण होने वाले भारत के पहले सीनियर रैंगलर और सुप्रसिद्ध गणितज्ञ डॉ. रघुनाथ पुरुषोत्तम परांजपे की मैं नातिन हूं। डॉ. रघुनाथ पुरुषोत्तम परांजपे अर्थात मेरे अप्पा पुणे के भूषण थे। लोगों के मन में उनके प्रति अपार आदर और प्रेम था, साथ ही समाज में उनका दबदबा भी था। उनकी इकलौती कन्या शकुंतला परांजपे की मैं इकलौती बेटी हूं।

पुणे वासियों के लिए मेरी मां एक अबूझ पहेली थी। जिस काल में ल़डकियां ज्यादा से ज्यादा मैट्रिक तक पढ़कर या उससे पहले ही ससुराल में कदम रखती थीं, उस काल में मेरी मां ने कैंब्रिज से स्नातक की उपाधि लेकर कुछ समय के लिए नौकरी भी की। उन्होंने फ्रेंच सीखी। वहीं मिले एक रशियन चित्रकार के साथ शादी रचाकर उसने खलबली मचा दी। डेढ़ साल यूरोप में घर बसाकर और बाद में तलाक लेकर वह अपने पिता के पास लौट आई। उसके साथ उसकी छोटी सी बच्ची अर्थात मैं भी थी। फिर एक बार खलबली! यह सब आश्चर्यजनक था। पुणे वासियों को आसानी से पचने वाला नहीं था। लोग मेरी मां से जरा सहमकर ही बात करते थे। उसके मुंहफट होने की चर्चा के कारण किसी की उससे बात करने की हिम्मत नहीं होती थी। इसके विपरीत मैं थी। बिलकुल अलग। रशियन गोरा रंग, गोल-मटोल शरीरयष्टी, नीली आंखें और कटे हुए बाल (उन दिनों में ल़डकियों की लंबी चोटियों का ही रिवाज था)। मैं एक अजूबे की तरह दिखती थी। लोग रास्ते पर रोककर मुझे पूछते थे- तुम सई हो न? तुम्हारे पिता कहां हैं? तुम्हारी मां की शादी कैसे टूटी? मुझसे सब कुछ उगलवाने के लिए चॉकलेट का लालच भी दिया जाता था। इन वाग्बाणों से घायल होने के कारण मैं कई बार रोते-रोते घर पहुंचती थी। फिर मां ने मुझे एक बात समझाई। मैंने भी स्वभाव से ढीठ होने के कारण उसे आचरण में लाना शुरू किया। अब अगर कोई मुझसे उल्टे-सीधे प्रश्न पूछता तो मैं आंखें तरेरकर उन्हीं से पूछती कि आपको इन सब से क्या लेना-देना है?

‘सई और मार खाना’ एक सर्वश्रुत समीकरण था। ऐसा एक भी दिन नहीं बीता जब मुझे मार न प़डी हो। कोई कारण हो या न हो, मां मुझे मारती ही थी। मां का व्यक्तित्व कठोर और उसका अनुशासन जरूरत से ज्यादा सख्त था। परंतु ऐसी मेरी मां की ममता और प्यार की भी कोई सीमा नहीं थी। वह हमेशा ‘छप्पर फा़ड के’ देती थी। इसका एक सुंदर उदाहरण आपको बताती हूं।
मेरे बचपन में छोटी बच्चियां अत्यंत उत्साह से अपने गुड्डे-गुड्डियों की शादी रचाती थीं। ये शादियां मुख्यत: ऐसी जगहों पर होती थी, जहां से ब़डे भगा न देें। आंगन, सीढ़ियों के नीचे के कोने इत्यादि स्थान विशेष रूप से होते थे। भिगोया हुआ पोहा और गु़ड को मिलाकर व्यंजन के तौर पर दिया जाता था। मेरी पहचान की सभी लड़कियों के घर शादी में जाने का आमंत्रण मुझे मिलता था। मूलत: मेरी मां को यह सब पसंद ही नहीं था। अत: मेरी गु़िडया के हाथ पीले करने का समय अभी तक नहीं आया था। मेरी सहेलियों के तानों से परेशान होकर मैंने एक दिन जिद पक़ड ली और मां ने मेरी जिद के आगे सिर झुका दिया। वह बोली ‘क्या जिद लगा रखी है? चलो महूरत तय करते हैं।’ फिर क्या था, तुलसीबाग से गुड्डा-गु़िडया की जो़डी लाई गई। गु़िडया के सुंदर काले बालों का जू़डा बंधा था और उसने जरी वाली सा़डी पहनी थी। गुड्डे ने धोती, कुर्ता, जैकेट, टोपी पहनी थी। गु़िडया की शादी के दिन बैंगनी रंग के कागज में लिपटे पेढ़े, गुलाबी फेटे पहने बैंड वालों का दल और दरवाजे पर सफेद घो़डी। मां ने जोरदार तैयारी की थी। आमंत्रित बच्चों की भी़ड इकट्ठा होने लगी। बारात दो-तीन रास्तों का चक्कर लगाकर हमारे घर लौटी। गुड्डे को मैंनेे अपनी सुविधा के अनुरूप घर दामाद बना लिया। सबसे ब़डे आश्चर्य की बात यह कि इतने उत्साह से मेरी गु़िडया की शादी कराने वाली मेरी मां मेरी ही शादी में नहीं आई।

मेरी मां के कर्तृत्व और बहुआयामी व्यक्तित्व के कारण उसे उसकी योग्यता के किसी भी क्षेत्र में उच्च पद मिल सकता था। विद्वत्ता, प्रखर बुद्धिमत्ता, मराठी, अंग्रेजी, फ्रेंच भाषाओं पर पक़ड, कैंब्रिज की एमए की उपाधि, आईएलओ की नौकरी, लेखिका के रूप में प्राप्त ख्याति और महापुरुष रैंगलर परांजपे की बेटी के रूप में पहचान, इतना सब था उसके पास। परंतु यह सब होने के बाद भी उसने अपनी भलाई के लिए कुछ भी नहीं किया। उसके सारे प्रयास, सारी ऊर्जा एक ही बिंदु पर केंद्रित थी- अपनी इकलौती बेटी का सर्वांगीण विकास।

मुझे ‘सर्वगुण संपन्न’ बनाने के मां के लक्ष्य के कारण मुझे कई कारनामे करने प़डे। हमारे घर में सभी पढ़ने के शौकीन थे। एक पूरा कमरा किताबोें से भरा था। हर दीवार पर नीचे से लेकर ऊपर तक शेल्फ बने थे। एक सीढ़ी भी हमेशा किनारे में तैयार रहती थी। दस-बारह साल की होने तक मैंने कई मराठी और अंग्रेजी किताबें पढ़ीं। उच्चारण शुद्ध होने की ओर मां और अप्पा दोनों की सदैव ध्यान रहा। इसके लिए मां ने संस्कृत का सहारा किया। सुभाषित रत्न भंडार नामक ग्रंथ के कई श्लोक मैंने सीखे।

रोज रात को सोते समय मां मुझे कहानी सुनाती थी। एक बार उसने मुझसे कहा कि आज तुम मुझे कहानी सुनाओ। मैंने सुनाई। उसने कहा, ‘अच्छी है। तुम्हें किसने सुनाई?’ मैंने अत्यंत उत्साह के साथ कहा, ‘मैं ही तैयार की है।’ उसे विश्वास नहीं हो रहा था, परंतु जब मैंने और दो-तीन कहानियां सुनाईं तो उसे भरोसा हुआ। इसके बाद तो मेरे ऊपर जैसे आपत्ति टूट प़डी। उन सारी कहानियों को मुझे कागज पर उतारना प़डा। बहुत सी कहानियां होने के बाद मां ने मेरी किताबों की पुस्तक छपवाई। उस समय में आठ साल की थी। मेरे पीछे मेरी समर्थ मां थी, इसलिए ही यह हो सका। मेरी विकास योजना में तैराकी, फर्ग्यूसन पहा़डी के मंदिर तक दौ़ड, प्रसिद्ध चित्रकार गोंधलेकर के स्टूडियो में चित्रकला की शिक्षा, ऑस्ट्रेलिया में घु़डसवारी की शिक्षा इत्यादि कई उपक्रम शामिल थे। उस कोमल उम्र में मुझे यह सब कुछ बहुत कठिन और अतिशयोक्तिपूर्ण लगता था। परंतु अब जब में पीछे मु़डकर देखती हूं तो मुझे इन पाठ्यक्रमों का अलग दृष्टिकोण दिखाई देता है। मेरी मां ने मुझे विभिन्न प्रकार के कार्यों की भट्टी में तपाया। मुझे तैयार किया। साहित्य, नाटक, बाल नाटक, आकाशवाणी, दूरदर्शन और फिल्मों में मैंने जो कुछ किया, वह सब मां के तप का ही परिणाम है।

मां ने स्वयं को कभी किसी नियमबद्ध चौखट में बांधकर नहीं रखा था। वह नित नए प्रयोग करती रहती थी। यूरोप से वापस आने के बाद उनसे वी. शांताराम की मराठी फिल्म ‘कुंकू’ में अभिनय किया। फ्रेंच नाटकों पर आधारित उसके मराठी नाटक ‘सोयरिक’ और ‘चढ़ाओढ़’ पहले ही छप चुके थे। इसके बाद उसने सामाजिक नाटक लिखा ‘पांघरलेली कातडी’। दो समांतर प्रेम कथाओं वाले इस नाटक में मेरी मां ने ‘तुलसा’ नाम की एक कोली समाज की स्त्री का अभिनय किया था। रंगभूमि का जीता जागता अनुभव मुझे यहीं से मिला। कोली समाज की स्त्रियों के आचार, व्यवहार को देखने के लिए मां हफ्ते में एक दिन मुंबई के माहिम कोलीवा़डा में जाती थी। मेरा भी उसके साथ जाना तय ही होता था। वह उनके जैसा पोषाक धारण करती थी। उनके उठने, बैठने, बोलने, हाव-भाव इत्यादि का निरीक्षण करती थी। दोपहर को हम वहीं भोजन करते थे।

मुंबई में जब नाटक का मंचन हुआ तो आधी बालकनी कोली लोगों से भरी थी। नाटक की शुरुवात रेल के डिब्बे से होती है जो सरकते -सरकते स्टेज पर आता था। हालांकि नाटक सफल रहा, परंतु अत्यधिक परिश्रम के चलते मां ने आगे कभी इस झंझट में न प़डना ही ठीक समझा। नाटकों के अलावा भी उसका लेखन कार्य सदैव चलता रहा। उसके मन में आए विवार, जस के तस कागज पर उतरते थे। उसके व्यंग्यात्मक और निडर विचार ‘भिल्लिणी ची बोरे’ और ‘माझी प्रेतयात्रा’ में पढ़े जा सकते हैं। मां ने अंग्रेजी में भी बहुत लेखन किया। ‘थ्री ईयर्स इन ऑस्ट्रेलिया’ और ‘सेंस एंड नॉन सेंसेस’ में उसकी वही व्यंग्यात्मक और निडर शैली है। यहां केवल भाषा ही बदली। शैली नहीं।

‘शकुंतला परांजपे’ यह नाम लेखिका के रूप में भले ही प्रसिद्ध है परंतु मेरे हिसाब से मां ने संतति नियमन के क्षेत्र में जो काम किया है उसके लिए उसे याद किया जाना चाहिए। भारत रत्न महर्षी धोंडो केशव कर्वे रिश्ते में मां के दूर के भाई लगते थे। वे संतति नियमन के क्षेत्र में कार्य कर रहे थे। उनकी इच्छा थी कि यह विचार विशेष रूप से महिलाओं तक पहुंचे। इस काम को करने के लिए उन्होंने मां से पूछा। मां अप्पा की सहमति लेकर इस कार्य के लिए राजी हो गई। सन 1938 में इस विषय की विधिवत जानकारी लेकर मां ने अपना क्लीनिक शुरू किया। कई दिनों तक वहां कोई नहीं आया। मां की एक सहेली ने उसे बताया कि तुम्हारे क्लीनिक में दिन में कोई नहीं आएगा। सभी इस बात से डरेंगे कि कोई देख न ले। उस समय में संतति नियमन के बारे में सोचना भी लोग पाप समझते थे। मां ने क्लीनिक का समय बदलकर रात का समय कर दिया। धीरे-धीरे लोग आने लगे। तीन चार सालों में तो भी़ड होने लगी। सलाह तो नि:शुल्क थी ही कुछ विशेष कारण हों तो साधन भी नि:शुल्क दिए जाते थे। पुणे के बाद मां ने गांवों का रुख किया। उसने ‘डेक्कन एग्रिकल्चर असोसिएशन’ नामक संस्था की सदस्यता ली। इसकी मदद से वह सभाएं लेती थी। पहले उसकी सभा में केवल पुरुष ही आते थे। जब उसने पूछा कि महिलाएं कहां हैं तो उसे जवाब मिला कि इस विषय पर भाषण सुनने में उन्हें शरम आती है। मां ने उत्तर दिया कि ‘जब एक महिला इस विषय पर बोल सकती है तो अन्य महिलाओं को सुनने में कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए। जब तक महिलाएं एकत्रित नहीं होंगी सभा शुरू नहीं होगी।’ यह टोटका काम कर जाता और महिलाओं की भी़ड एकत्रित हो जाती थी। उसके काम का बोलबाला होने लगा था और शुरुवात में लोगों द्वारा किया गया विरोध भी कम हो गया था। सन 1958 में उसे मुंबई विधानसभा में मनोनीत किया गया और सन 1964 में पं. नेहरू ने उसे राज्यसभा के लिए मनोनीत किया।

मां के बारे में कितना कुछ कहना बाकी रह गया। उसके अलग-अलग शौक जैसे टेनिस, ब्रिज, शतरंज, बुनाई…इत्यादि के बारे में वर्णन करना ही भूल गई।

एक आखरी किस्सा सुनाती हूं। मैं अपनी बेटी के साथ सिंगापुर घूमने गई थी। अचानक पुणे से मेरी सहेली मीरा का फोन आया कि सरकार ने मां को पद्म भूषण देने का निर्णय किया है। वे मां की सहमति प्राप्त करने के लिए दुबारा आने वाले थे। मैंने और मेरी बेटी ने इस खबर को सुनते ही हॉटल के बिस्तर पर कूदना शुरू कर दिया। थो़डी देर बाद मैंने मीरा को दुबारा फोन किया और कहा मां से कहना कि इस सम्मान को स्वीकार कर ले। ना मत करे। मेरी मां को कोई भरोसा नहीं है।
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