आनंदवन की माता

आनंदवन के सृजन में बाबा आमटे की कर्मनिष्ठा का योगदान तो है ही; लेकिन उनकी पत्नी साधनाताई के मातृत्व का भी बड़ा सहयोग है। कुष्ठ रोगियों, नेत्रहीनों व विकलांगों की सेवा में ताई ने अपना जीवन भी होम कर दिया। आनंदवन की माता के रूप में ही उनकी पहचान है। बाबा-ताई के चले जाने के बाद यह कार्य उनके पुत्र डॉ. प्रकाश आमटे सम्हालते हैं। पेश है उनकी ही कलम से उनकी मां के बारे में…..

आनंदवन की साधनाताई के रूप में ही मेरी मां की पहचान है। सच पूछें तो हमने कभी उन्हें ‘मां’ कहकर नहीं पुकारा। बचपन में तो हम उन्हें सीधे इंदुताई के नाम से पुकारते थे। जब समझ आई तब सब के मुंह से साधनाताई सुनने को मिलता था। अतः हम भी ताई कहने लगे। अद्वितीय सहानुभूति और बेहद उग्र स्वभाव वाले व्यक्ति की अर्धांगिनी के रूप में जीवन जीते हुए उसने क्या सहा, यह वह ही जाने। ताई के हृदय में दया का निर्झर देखने वाले हजारों लोग हैं। ईश्वर न मानने वाले बाबा (बाबा आमटे) और बाबा को ही ईश्वर मानने वाली साधनाताई वास्तव में अद्भुत युगल था।

मुझे आज भी सोमनाथ का प्रसंग याद आता है। मंदा (मेरी पत्नी व साधनाताई की बहू) बीमार थी। उसे उष्माघात हो गया था। लगातार कै हो रही थी। ताई को पता चला। उसने मंदा को सम्हाला। दूसरों की नींद में खलल न हो इसलिए स्वयं रातभर जागती रही। सब के प्रति अपनापन यह ताई की विशेषता थी। बहुओं से उन्हें बेहद स्नेह था। बहुओं का कौतुक करने में उसे बेहद खुशी होती थी।

ताई का पहले से ही समर्पण का स्वभाव था। समझौते का था। विवाह के बाद उसे खूब समझौते करने पड़े होंगे। वह केवल विकास और मेरी ही मां नहीं थी। पूरा आनंदवन उसकी ओर मां के रूप में देखता था। उसकी ममता सब पर होती थी। बाबा क्रोधित हो और ताई सम्हाल लें यह समीकरण ही बन गया था। संस्था में अनुशासन हो, यह बाबा का बेहद आग्रह होता था। इससे वे किसी को कुछ कह देते थे। कई बार गुस्से में संस्था से निकाले गए अनेक लोगों ने ताई की सिफारिश से फिर से प्रवेश पा लिया। गलतियां होने पर ऐसे अनेक लोगों की पैरवी ताई ने की। बाबा का कहना था कि क्रोध अधिक दिखाने पर अनुशासन आता है। इस कारण वे कई बार मन में न होने पर भी अधिक चिड़चिड़ापन दिखाते थे। बाबा के गुस्से पर ताई की सहृदयता मात करती थी। उसने सदा मध्यस्थ की भूमिका निभाई। सब से महत्वपूर्ण बात यह कि इतने सारे लोग होने पर भी उसने हमें परायापन महसूस नहीं होने दिया।

उसके पीहर में किसी बात की कमी नहीं थी। विट्ठलराव घुले ताई के पिता का नाम है। वे नागपुर के महल इलाके में रहते थे। रेशम की साड़ियों का उनका व्यवसाय था। पोल नामक व्यक्ति के कारण बाबा का घुले से परिचय हुआ। इसी परिचय के आधार पर विट्ठलराव ने अपनी पुत्री के लिए यथोचित वर खोजने की जिम्मेदारी स्वयं बाबा पर ही सौंपी थी। उस समय के बाबा का रूप अलग ही था। वह था अव्यवस्थित रहन-सहन, बढ़ी इुई दाढ़ी, खादी का पेहराव, हरफनमौला ब्रह्मचारी, निग्रही स्वभाव, गांधीवाद पर अटल निष्ठा। ऐसी स्थिति में बाबा का ताई से प्रेम विवाह हुआ। 18 दिस्म्बर 1946 यह तिथि है। आमटे की जमींदारी यवतमाल जिले में थी। वहां से वरोरा गांव निकट ही था। इसी कारण आनंदवन का चयन किया गया होगा। पीहर में रेशम का व्यवसाय होने पर भी ताई को विवाह होते ही मोटी खुरदरी खादी की साड़ियां पहननी पड़ीं। खादी के अलग-अलग विकल्प अब आए हैं। उस जमाने में खादी मोटी-खुरदरी होती थी। उस साड़ी का बोझ होता था। लेकिन ताई ने मन से गांधीवाद स्वीकार किया। सेवा के लिए चाहे जो त्याग करने के लिए वह तत्पर रहती थी।

कभी मुझे लगता है कि लोग आनंदवन पर इतना प्रेम क्यों करते हैं? इतना बड़ा परिवार आनंदवन से जुड़ने में बाबा की कर्मनिष्ठा का योगदान तो है ही; लेकिन ताई के मातृत्व का भी बड़ा सहयोग है। इसी कारण आनंदवन मात्र एक संस्थान न रहकर एक बड़ा परिवार बन गया। बाबा-ताई जो कहते थे वह सभी सुनते थे। लोगों को कभी अपमान महसूस नहीं हुआ। वरिष्ठों की बात सुननी होती है यह मानकर लोग चलते थे, प्रेम करते थे।

सार्वजनिक पैसे का हिसाब पूरी तरह ठीक रखने पर बाबा का बल होता था। कभी निजी काम के लिए वाहन का उपयोग करने पर उसका खर्च अदा करने की पद्धति बाबा के कारण कायम हुई। स्वयं ताई ने भी इस नियम को कभी नहीं तोड़ा। रिश्तेदारों या मंदिर में जाने पर भी डिजल का खर्च वह स्वयं देती थी। उस समय कोल्हापुर के कोरेगावकर ट्रस्ट की ओर से बाबा व ताई के खर्च के लिए प्रति माह डेढ़ सौ रुपये मिलते थे। उसीमें खर्च चलाने के लिए ताई ने अपनी आवश्यकताएं कम कर दीं। संस्था पर अपना बोझ न पड़े यह जन्मघूंटी ताई ने ही हमें पिलाई। मूलतया वह व्रतस्थ थी। बाबा के स्वभाव के अनुसार वह चली। अपनी राय कभी नहीं लादी। इसके बारे में उसके मन में कभी पश्चाताप नहीं दिखाई दिया। बाकी रिश्तेदारों के बच्चे अच्छे स्कूल में जाते हैं इसका दुःख उसकी ममता के कारण कभी कभी अवश्य महसूस होता था। हम म्यूनिसिपालटी के स्कूल में जाते थे। अपने बच्चों का कैसे होगा यह शायद उन्हें लगता होगा। तब आनंदवन का नाम सर्वदूर हो चुका था। बाबा आमटे का नाम हो चुका था। बाबा की छवि बनने पर उनके नाम को बच्चे चलाएं यह उसे लगता था। उसकी उसे चिंता होती थी। आनंदवन में भी लोगों से वे यह बात कहती थी।

उसका कुष्ठ रोगियों के परिवार से संवाद होता था। आनंदवन में सैकड़ों लोग होते थे। उस सब की पूछपरख करना यह उसका नित्यक्रम होता था। उनकी दिक्क्तें, पारिवारिक समस्याएं लोग ताई को बताते थे। आत्मीयता क्या होती है यह हमें आनंदवन के लोगों ने सिखाया। हमारा पहला मित्र था नारायण। वह हमारा भाई ही था। बाबा के सभी काम उसने निष्ठापूर्वक किए। बाद में कई लोग आए। विनायक तराले भी ऐसा ही एक था। ग्रामीण इलाके से आए विनायक को 90% अंक मिले थे। आनंदवन के कॉलेज से वह प्राध्यापक के रूप में निवृत्त हुआ। बचाराम कोल्हापुर का था। मेरिट छात्र था। दिल्ली जाकर उसने पीएच.डी. की। ऐसे कई लोग ताई के करीबी थे। ताई ने इन सभी पर हमसे कुछ अधिक ही प्रेम किया। आनंदवन पर इन लोगों का प्रेम इसी कारण है।

लेकिन यह सच है कि आनंदवन के कड़े अनुशासन में मन हल्का करने के लिए ताई के पास कोई नहीं था। सहेलियां नहीं थीं। उसकी छोटी बहनें विवाह होने तक यहां आकर रहती थीं। बाद में कुष्ठ रोगियों की पत्नियां उसकी सहेलियां हो गईं। मन हल्का करना हो तो वे सभी ताई के पास आती थीं। बाबा के काम की दुनिया ने प्रशंसा की। उनका स्वभाव बातूनी था। ताई ने मौन रहकर काम किया। उसके हिस्से में बहुत प्रशंसा नहीं आई। समाज ने वैसे उस पर अन्याय ही किया। आनंदवन यह केवल बाबा का ही नहीं, ताई का भी सृजन है। आनंदवन के पुराने लोगों के बारे में ताई के मन में अपार स्नेह होता था। वहां के अंध-विकलांगों के बारे में अपार ममत्व था। वह आस्था, वह स्नेह उसके बोलने में सहज प्रकट होता था। उसे कुष्ठ रोगियों के परिवारों का प्रचंड आकर्षण था। बाबा के चले जाने के बाद भी उसने अपने को इनसे अलग नहीं किया।

आनंदवन ने देशविदेश के अनेक लोगों को जोड़कर रखा है। इन वर्षों में बाबा पर प्रेम करने वाले प्रत्येक का ताई ने ध्यान रखा। बाबा को मूर्ति पूजा मान्य नहीं थी। कर्मकांडों पर उनका विश्वास नहीं था। ताई बहुत धार्मिक थी। बाबा कहते थे, ‘मैं पूजा नहीं करूंगा, लेकिन तुम्हें नहीं रोकूंगा।’ कहते हैं, उम्र होते होते व्यक्ति की कड़ाई कम हो जाती है। वही अनुभूति हमने पाई। बाबा का स्वभाव अंतिम वर्षों में बदला। ताई की सेवा के कारण उनकी कठोरता पिघल गई होगी। साठ वर्ष तक लगातार साथ देने वाली ताई की सेवा के कारण बाबा जैसा कर्तव्यकठोर सेवाव्रती भी झुक गया। स्वयं आरती करते समय बाबा से घंटी बजवाने का कठिन काम भी उसने कर दिखाया। मुझे लगता है कि बाबा की ईश्वर पर भक्ति भले न हो, लेकिन ताई पर श्रद्धा गहरी थी। बाबा के जाने के बाद ताई के स्वभाव में एकाकीपन आ गया। ‘समिधा’ नामक आत्मकथा भी उसने लिखी।
कर्म और श्रद्धा की देवी ताई ने 9 जुलाई 2011 को अंतिम सांस ली।
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