शाखा में न गया हुआ एक स्वयंसेवक

अबुल पाकीर जैनुलाबदीन (ए.पी.जे.) अब्दुल कलाम का २७ जुलाई २०१५ को दुखद निधन हुआ। उनके निधन के बाद उन पर अनेक लेख लिखे गए। बहुत से लोगों ने श्रध्दांजलि देते हुए भाषण भी दिए। लगभग सभी लोगों ने उनका ‘मिसाइल मैन’ के रूप में वर्णन किया। भारत की प्रक्षेपणास्त्र तकनीक विकसित करने में उनका बहुत बड़ा योगदान है। अग्नि, त्रिशूल, ब्रह्मोस आदि प्रक्षेपणास्त्र भारतीय सेना का एक हिस्सा है। उनके निर्माण का श्रेय डॅा.कलाम को दिया जाता है। उनके इस अद्वितीय कार्य के लिए उन्हें पद्मविभूषण तथा भारत रत्न का अलंकरण भी दिया गया है।

इन सब के बावजूद केवल ‘मिसाइल मैन’ के रूप में उनकी पहचान अधूरी है। दुनिया में अमेरिका, रूस, चीन तथा इजरायल जैसे अनेक देश हैं जिनके पास प्रक्षेपणास्त्र हैं। उन देशों के प्रक्षेपणास्त्र तंत्र को वहां के वैज्ञानिकों ने विकसित किया, परंतु उनमें से किसी भी वैज्ञानिक को डॉ. कलाम जैसी राष्ट्रव्यापी मान्यता प्राप्त नहीं हुई। वे भारत के राष्ट्रपति थे, उनका वर्णन करते समय उन्हें ‘‘जनता का राष्ट्रपति’’ कहा जाता है। उनका यदि उचित वर्णन करना हो तो उन्हें ‘‘भारत का एक विनम्र चेहरा’’ कहा जा सकता है।

उन्होंने बहुत सी किताबें लिखी हैं, विंग्स ऑफ फायर, टर्निंग पाईंट, टारगेट ३बिलियन, बिल्डिंग ए न्यू इंडिया, इग्नायेटेड माइंड, फोर्ज यूवर फ्यूचर इत्यादि। इसके अलावा इंटरनेट पर उनके द्वारा समय-समय पर दिए गए भाषण भी उपलब्ध हैं। मैं पिछले कुछ वर्षों से अलग अलग कारणों से एपीजे अब्दलु कलाम के लेख व किताबें पढ़ रहा था। उनके निधन के बाद मेरी एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया थी ‘कभी शाखा में न गया हुआ एक ज्यष्ठ स्वयंसेवक हमारे बीच नहीं रहा’।

अब्दुल कलाम को स्वयंसेवक कहने से बहुतों को आश्चर्य होगा। बिना शाखा में गए कोई स्वयंसेवक हो सकता है क्या? ऐसा प्रश्न कई लोंगो के मन में खड़ा हो सकता है। इसका उत्तर श्रध्देय दत्तोपंत ठेंगड़ी जी पहले ही दे चुके हैं। वे कहा करते थे, ‘मनोवैज्ञानिक स्तर पर पूरा समाज संघ का स्वयंसेवक है। जो शाखा में आता है उसका स्वयंसेवकत्व प्रकट हो जाता है, जो शाखा में नहीं जाता उसका स्वयंसेवकत्व अप्रकट रहता है। डॉ.एपीजे अब्दुल कलाम इस मायने में ‘अप्रकट स्वयंसेवक’ थे।

संघ का स्वयंसेवक पूरे राष्ट्र का विचार करता है। स्वार्थ का विचार कर नहीं करता। स्वार्थ का विचार करने वाला संघ के ढांचे में बैठ ही नहीं सकता। एपीजे अब्दुल कलाम निस्वार्थता के जीते-जागते प्रतिमान थे। वे अविवाहित थे। इसीलिए धनसंग्रह करने का या सम्पति संग्रह करने का सवाल ही नहीं था। राष्ट्रपति पद से निवृत्त होने के बाद उन्होंने अपनी पूरी सम्पत्ति ग्रामों के विकास के लिए बनाए गए ट्रस्ट को दान में दे दी। गांव-देहात के विकास के लिए उन्होंने एक संकल्पना रखी थी। इस संकलप्ना को ‘पूरा’ कहा जाता है। पूरा का लॉंग फॉर्म है ‘प्रोवाायडिंग अर्बन फैसिलिटी टू रूरल एरियाज’। उन्होंने अपनी सेवानिवृत्ति के बाद पूरा वेतन दान कर दिया। निधन के पश्चात उनकी सम्पत्ति के रूप में केवल किताबें तथा कपड़े ही थे। शासकीय पद पर पहुंचने के बाद लोग बेहिसाब सम्पत्ति इकट्ठा करते हैं, ऐसे उदाहरण तथा नाम हम सब को ज्ञात हैं, अब्दुल कलाम जैसे पवित्र व्यक्ति पर लिखे गए लेख में ऐसे पापी लोगों का नाम लिखकर मैं लेख को अपवित्र नहीं करना चाहता।

एपीजे अब्दुल कलाम का पूरा जीवन राष्ट्र के लिए समर्पण का एक आदर्श है। अपना देश एक सनातन राष्ट्र है, प्राचीन राष्ट्र है, तथा उसकी राष्ट्र की एक जीवनधारा है। राष्ट्र का प्राचीनत्व, सनातनत्व और जीवनधारा डॉ. कलाम के जीवन में जस की तस साकार हुई। जो मुझ में अच्छा है, उसका और विकास करूंगा तथा विकास करके अपनी पूरी अच्छाई के साथ, पूरी ताकत के साथ देश की सेवा करूंगा, यही उनका जीवन मंत्र था। वे वैमानिक होना चाहते थे, पर इस परीक्षा में वे उत्तीर्ण नहीं हो सके। वे निराश हो गए और ॠषिकेश गए। वहां से वापस आने के बाद का उनका पूरा जीवन ध्येय साधना का तथा कर्मयोयी का जीवन है।

वे कहा करते थे, सपने देखना सीखो। सपने नींद में मत देखो वरन ऐसे सपने देखो जो तुम्हें सतत जागृत रखें। संघ का स्वयंसेवक भी अपनी आंखों के सामने एक सपना रखकर काम करता है। हमारी इस भारत माता को वैभव के शिखर तक लेकर जाना है, और जगद्गुरु के पद पर प्रतिष्ठित करना है, यह उसका सपना होता है। इस सपने को साकार करने के लिए समाज संगठित होना चाहिए, शक्ति सम्पन्न होना चाहिए और इस शक्ति सम्पन्न समाज के धर्म की रक्षा होनी चाहिए। यह ध्येय सामने रखकर या अब्दुल कलाम के शब्दों में कहना हो तो सपना आंखों के सामने रखकर उसे जागृत रह कर साकार करने का सभी स्वयंसेवक प्रयत्न करते रहते हैं। डॉ. कलाम की आंखों के सामने भी यही सपना था।

ऐसे सपनों को साकार करने का मार्ग कांटों से भरा होता है। इस मार्ग पर चलना यांनी तलवार की धार पर चलना पड़ता है। अनंत कठिनाइयां आती हैं, उन कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। संघ संस्थापक डॉ.हेडगेवार कहते थे, ‘‘संकट बिना कारण नहीं आते, वे हमारे सत्व की परीक्षा लेने आते हैं।’’ एपीजे कहते हैं, ‘‘यदि सफलता की खुशी प्राप्त करना है तो कठिनाइयों का मुकाबला करना ही पड़ेगा।‘‘ वे कहते थे, कठिनाइयों से घबराए नहीं। ‘अगर यश प्राप्त करना है तो अपने अंत:करण से कार्य करना पडता है। अगर प्राण लगाकर कार्य नहीं किया तो हाथ में कुछ नहीं आएगा।’’ संघ का कार्य भी पूरे तनमन को लगाकर करना होता है। और अपनी पूरी शक्ति लगाकर करना होता है। इसकी शिक्षा स्वयंसेवकों को शाखा से मिलती रहती है। कठिनाइयां किस प्रकार आती हैं, तथा उनका सामना कैसे किया जाता है, डॉ. कलाम इसके अनेक उदाहरण बताते हैं।

जब वे मद्रास इंस्टीट्यूट आफ टेक्नॉलाजी में एरॉनिटिकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहे थे, तब वहां के प्रमुख प्रो.श्रीनिवासन ने उन्हें एक प्रोजेक्ट दिया। उन्हें और उनके पांच सहयोगियों को मिलकर छह महीने के अंदर हमला करने वाले हवाई जहाज का डिजाइन बनाकर देना था। काम शुरू हुए पांच महीने बीत गए पर काम पूरा नहीं हो रहा था। एक दिन प्रो.श्रीनिवास ने उनसे कहा, ‘‘मैं तुम्हारे काम से नाराज हूं। तुम्हारा काम बहुत धीरे चल रहा है।’’ डॉ.कलाम ने उनसे कहा, ‘‘सर हमें एक महीने का और समय दीजिए।’’ प्रोफेसर श्रीनिवासन ने उनसे कहा, ‘‘आज शुक्रवार है, मैं तुमको तीन दिन का समय देता हूं। इन तीन दिनों में तुम्हारा डिजाइन नही बन पाया तो मैं तुम्हारी स्कालरशीप बंद कर दूंगा’’। आगे तीन दिन तक बिना सोये, थोड़ा बहुत खाकर उस प्रोजेक्ट को उन्होंने कैसे पूरा किया, यह पढ़ने लायक है। तीन दिन बाद श्रीनिवासन ने उनसे कहा, ‘‘तीन दिन में तुमने असम्भव को सम्भव कर दिखाया। इससे अब तुम पहले से अधिक ताकतवर हो गए हो।’’ कठिनाइयां आती हैं तो उनको मात कर आगे बढ़ने का संकल्प लेना होता है। एक बार संकल्प ले लिया तो अपने अंदर की सारी सुप्त शक्तियां जागृत होने लगती हैं, और असम्भव लगने वाला कार्य भी सम्भव हो जाता है। ऐसे एक से बढ़ कर एक प्रेरणादायी संस्मरण डॉ. कलाम अपनी जीवन गाथा में बताते जाते हैं। वे इस बात को बार- बार याद दिलाते रहते हैं कि, कठिनाइयों को हौवा मत बनाओ, संकट का सामना करो, धैर्य तथा लगन को मत छोडो। अपने ध्येय पर ध्यान रखो, उसे विचलित मत होने दो। तुम्हें सफलता मिलेगी ही। यह आत्मविश्वास वे व्यक्त करते हैं। आत्मविश्वास का ज्ञान बघारने में क्या जाता है? परंतु डॉ. कलाम के शब्दों को एक विशिष्ट अर्थ प्राप्त है, क्योंकि उनके शब्द उनके द्वारा किए गए कार्यों की सफलता से पैदा होते हैं, वे खोखले शब्द नहीं हैं। स्वयंसेवक को केवल जबान नहीं चलानी चाहिए। फालतू उपदेश नहीं करना चाहिए। पहले अपने आचरण में लाएं और अपने आचरण से अपना आदर्श सहयोगियों के सामने रखे। शाखा की भी यही सीख है।

‘फोर्ज यूवर फ्यूचर’ डॉ. कलाम की लिखी किताब है। इस किताब में युवकों द्वारा पूछे गए प्रश्न हैं तथा चुनिन्दा प्रश्नों के उनके द्वारा दिए गए जवाब हैं। प्रश्न यह है कि भारत का पुनरुत्थान सम्भव है क्या? प्रश्नकर्ता ने क्या वृत्त कभी चौकोन हो सकता है, ऐसा पूर्व प्रश्न पूछ कर पुनरुत्थान के आड़े आने वाली कठिनाइयों को अपने प्रश्न के द्वारा रखा। इसी प्रश्न को इस प्रकार भी पूछा जा सकता है कि, भारत महान बन सकता है क्या? भारत में एकात्मता कब आएगी? भारत कभी समरस हो सकेगा क्या? डॉ. कलाम ने इन प्रश्नों का जो उत्तर दिया, वे उत्तर संघ का एक स्वयंसेवक अपने आसपास के प्रश्नों पर जिस तरह विचार करता है, वैसे ही हैं।

डॉ. कलाम कहते हैं भारत का पुनरुत्थान करने के लिए सब से पहले एक भव्य सपना देखो, उसके प्रति समर्पित हो जाओ, और कृतिशील बनो। दूसरा गुण, स्वयं में आत्मविश्वास होना चाहिए, आत्म गौरव की भावना होनी चाहिए। स्वयं को कमजोर समझने लगोगे तो सपने कभी साकार नहीं होंगे। तीसरा गुण, श्रध्दा होनी चाहिए। श्रध्दा होगी तो स्वयं के अंदर की शक्ति का प्रकटीकरण होगा। सफलता हमें प्राप्त होगी ही, इस बात पर श्रध्दा होगी तो सफलता मिले बिना नहीं रह सकती। चौथा गुण विजय के लिए धैर्य चाहिए। टिका-टिप्पणी करने वाले टीका करते रहते हैं, कई बार ये टिप्पणियां जहरीली भी होती हैं। कई बार चार कदम साथ चलने वाले भी हमारे विरोधी बन जाते हैं। ऐसे समय में भी धैर्य मत छोड़ो। पांचवां गुण यानी अपने सामने जो भी कठिनाइयां खड़ी हो, उन्हें कष्ट झेल कर भी दूर करना चाहिए। यहां पर डॉ. कलाम अब्राहम लिंकन का उदाहरण देते हैं। अब्राहम लिंकन का जन्म अत्यंत गरीब परिवार में हुआ। केवल दूसरी कक्षा तक स्कूली पढ़ाई हो पाई। आगे सभी मेहनत के काम करने पड़े। वे करते हुए वकालत की डिग्री प्राप्त की। जनहित में राजनीति की तथा अंत में राष्ट्राध्यक्ष का चुनाव भी जीता। उनके राष्ट्रध्यक्ष बनने के बाद ही गृहयुध्द शुरू हो गया। एक के बाद एक पराजय का सामना करना पड़ा। तीखी आलोचना होने लगी। परंतु लिंकन डिगे नहीं। उन्होंने अपने देश के लिए एक भव्य सपना देखा। आज जो अमेरिका है वह उन्हीं के सपनों की अमेरिका है। कष्ट एवं सहनशिलता का यह परिणाम होता है।

छठवां गुण यानी, जीवन उद्देश्यप्रधान होना चाहिए। दूसरों के लिए मन में अनुकम्पा का भाव होना चाहिए। सुख के विषय में बहुतों के मन में गलत धारणा होती है। स्वयं का स्वार्थ साधने से सुख की प्राप्ति कभी नहीं होती। सुख प्राप्ति के लिए जीवन का कोई लक्ष्य होना चाहिए। उसको प्राप्त करने के लिए सत्य के मार्ग को चुनना चाहिए। स्वयं पर विश्वास रखना चाहिए। जब हम किसी सत्कार्य के लिए स्वयं को समर्पित कर देते हैं तब अपना जीवन सार्थक हो जाता है। और जब वह संवेदनाओ से भर जाता है तब हमें सुख का आनंद प्राप्त होता है। ऊपर अब्राहम लिंकन का उदाहरण दिया गया है। सच कहा जाए तो अब्दुल कलाम कई बातों में अब्राहम लिंकन की भारतीय प्रतिकृति थे। अब्राहम लिंकन साधारण से असाधारण बने, डॉ. कलाम भी साधारण से असाधारण बने।

संघ की शाखा में स्वयंसेवकों के चरित्र निर्माण पर जोर दिया जाता है। संघ की प्रार्थना में ईश्वर से जो गुण मांगे गए हैं, उसमें एक है, दुनिया नम्र हो जाए ऐसा शील हमें दें। डॉ. कलाम भी एक शील सम्पन्न तथा सात्विक व्यक्ति थे। ईश्वर के लिए उन्होंने एक प्रार्थना कही है, उनकी अंग्रेजी कविता में यह प्रार्थना है। इस प्रार्थना की एक अंतरे में वे कहते हैं ‘‘हे सर्वशक्तिमान ईश्वर, मेरे देश के लोगों के मन में विचार एवं कृतिशीलता का निर्माण कर, जिससे वे संगठित रहें। हे सर्व शक्तिमान परमेश्वर, मेरे लोगों को सन्मार्ग पर चलने का मार्ग दिखा, क्योंकि सन्मार्ग ही चरित्र बल का निर्माण करता है।’’ सन्मार्ग एव सात्विकता इन गुणों पर उन्होंने बार-बार जोर दिया है। वे कहते, ‘‘यदि अंत:करण में सात्विक भाव होगा तो सुंदर चरित्र बनता है। चरित्र सुंदर हो तो परिवार में सामंजस्य बनता है और सुसंवाद होता है। परिवार में सुसंवाद हो तो राष्ट्र में सुसंवाद होता है। और जब राष्ट्र में सुसंवाद होगा तभी दुनिया में शांति हो सकती है। चरित्र निर्माण एवं सात्विकता को डॉ. कलाम ने इतना असाधारण महत्व दिया है।

चरित्र का सबसे बड़ा पहलू याने समाज में किसी व्यक्ति को भ्रष्टाचार नहीं करना चाहिए। अपने देश में भ्रष्टाचार यह बहुत बड़ी समस्या है। डॉ. कलाम कहते हैं, ‘‘देश को भ्रष्टाचार मुक्त करने की ताकत तीन लोगों के पास है, माता, पिता और गुरु के पास।’’ हमारी संस्कृति का महान संदेश देने वाले तीन वाक्य हैं – ‘‘मातृ देवो भव, पितृ देवो भव, गुरु देवो भव।’’ डॉ. कलाम इसी भाव को उन्हीं शब्दों में कहते हैं। ‘‘मां’’ पर लिखी उनकी बहुत मार्मिक कविता है। उस कविता का भावार्थ ऐसा है’’ मुझे वे दिन अब भी याद है, जब मैं दस वर्ष का था, अपने भाई-बहनों की परवाह न करते हुए अपनी मां की गोदी में सो जाता था। मेरी दुनिया के मायने केवल मेरी मां जानती थी। आधी रात को कभी मैं रोते हुए उठता तो उस समय मेरी वेदना को वही समझती थी, उसके ममतामयी स्पर्श से मेरी सारी वेदनाएं तत्काल दूर हो जाती थीं। मां तेरा प्रेम तेरी ममता और तेरी श्रध्दा मुझे शक्ति प्रदान करती है। दुनिया का सामना करने का अभय सामर्थ्य प्रदान करती है। उसके साथ ही सर्व शक्तिमान परमेश्वर की शक्ति भी देती है। मां, जिस दिन मेरा अंतिम न्याय होगा उस दिन तू मिलेगी ना!’’

अपने पिताजी के विषय में भी उनके हृदय में बड़ी नाजुक भावनाएं थीं। अंग्रेजोें के शासन काल के समय एक बार बड़ा तूफान आया। पिताजी की नांव उस तूफान में नष्ट हो गई। उस नांव को फिर से जिस कठिनाई से पिताजी ने सुधारा, और उससे उन्हें जिस प्रकार जीवनभर प्रेरणा मिलती रही उसे वे बार-बार बताते हैं। एक दूसरा संस्मरण भी वे हमेशा बताते हैं कि उनके पिताजी रामेश्वर की मस्जिद के इमाम थे। उनके घर रामेश्वर मंदिर के मुख्य पुजारी तथा चर्च के मुख्य पादरी आते रहते थे और अनेक विषयों पर चर्चा होती रहती थी। सभी साथ में चाय पान करते थे। सामंजस्यपूर्ण जीवन का संस्कार उन पर बाल अवस्था में ही पड़ गया था। इसीलिए सत्य एक है, और उस तक पहुंचने के मार्ग अलग अलग हैं, इस वेदवाक्य को उन्होंने जीवन भर जिया।

गुरु के विषय में भी उनकी एक सुंदर कविता है। वे कहते हैं गुरु यानी प्रकाश, और यह प्रकाश ‘‘ईश्वर एक है’’ यह संदेश देता है। उन्होंने रक्षाबंधन पर भी एक सुंदर कविता लिखी है, ‘‘उस कविता का आशय है, ‘‘पूर्णिमा के दिन हम जो दीपक जलाते हैं, उससे आनंद एवं शांति का प्रवाह बाहर आता है’’। सामंजस्यपूर्ण परिवार खुशी का झरना है। सात्विक घर ही सुंदर राज्य का निर्माण करता है। इस दिन बहनें अपने भाइयों को राखी बांध कर याद दिलाती हैं, ‘‘जो सत्य है एवं सुंदर है वही करो।’’ मस्तक पर टिका लगाकर तथा सर पर अक्षता डाल कर वे बताती रहती हैं कि मस्तिष्क में योग्य विचार तथा कर्म को अच्छा बनाए रखो।

शाखा में रक्षाबंधन एवं गुरुपूजन का कार्यक्रम मनाया जाता है। इन दोनों उत्सवों के पीछे एक व्यापक सामाजिक संदेश है। इस संदेश की पूरी समझ डॉ. कलाम में है, जिसे वे अपनी भाषा में अपनी कविताओं में व्यक्त करते दिखाई देते हैं।

‘‘शाखा में न गए हुए इस स्वयंसेवक’’ ने एक भव्य-दिव्य, उन्नत तथा समर्थ भारत का सपना देखा। उनका एक बहुत ही सुंदर भाषण है। इसमें वे कहते हैं ‘‘तीन हजार वर्ष के हमारे इतिहास में ग्रीक, तुर्क, मुगल, अंग्रेज, पोर्तगीज, फे्रंच आक्रमणकारी बनकर आए, उन्होंने हमें लूटा। हमारा धन लिया। परंतु हमने अन्य देशों के साथ ऐसा व्यवहार नहीं किया। हमने किसी देश पर आक्रमण कर विजय प्राप्त नहीं की। हमने उनकी जमीन पर कब्जा नहीं किया। अपनी संस्कृति तथा इतिहास को उन पर लादने का प्रयास नहीं किया। क्योंकि हम स्वतंत्रता का सम्मान करते हैं। हमें प्राणप्रण के साथ इस स्वतंत्रता की रक्षा करनी चाहिए।

भारत के विषय में मेरा दूसरा सपना विकास का है। अब हमें विकासशील देश कहें जाने से आगे बढ़ना होगा। हमें विकसित देशों की श्रेणी में खड़े रहना है। मेरा तीसरा सपना है कि हम शक्तिसम्पन्न बने। शक्तिशाली बने बिना दुनिया मेें कोई महत्व नहीं देगा। उसके लिए हमें सब प्रकार के प्रयास करने होंगे।

हमें नकारात्मक विचार करना छोड़ देना चाहिए। दुग्ध उत्पादन, चावल उत्पादन, रिमोट सेसिंग, सेटेलाइट के क्षेत्र में हम दुनिया में पहले क्रमांक पर हैं। हमारे देश की सफलता की लाखों कथाएं हैं। उनको छोड़ कर हम भ्रष्टाचार, अनाचार तथा दुराचार की कथाएं चला रहे हैं। विदेशी माल के प्रति हमें बड़ा आकर्षण है। विदेशी तकनीक भी हमें बहुत आकर्षित करती है। सरकार की हम किसी भी हद तक जाकर आलोचना करते हैं। व्यवस्था सड़ गई है ऐसी टिप्पणी करते हैं। फोन काम नहीं करता, नगर पालिका यानी कचरे के अड्डे बन गए हैं, ऐसी धारणा बना लेते हैं। परंतु इन सब को सुधारने के लिए मैं क्या कर सकता हूं इसका हम विचार नहीं करते। यदि देश को बेहतर बनाना है तो उसकी शुरूआत स्वयं से करनी होगी। कैऩेडी ने अमेरिका की जनता को कहा उसमें थोड़ा परिवर्तन कर हम यह कह सकते हैं कि, ‘‘भारत मुझे क्या देगा इसके बदले मैं भारत को क्या दे सकता हूं, इसका विचार करना चाहिए।’’

शाखा का समापन प्रार्थना से होता है। इस प्रार्थना के पहले चरण में कहा गया है, ‘‘हे ममतामयी मातृभूमि मैं तेरी वंदना करता हूं, मैं प्रार्थना करता हूं कि, तेरे ही सम्मान के लिए इस शरीर का उपयोग हो।’’ संघ की इस प्रार्थना को न कहते हुए भी डॉ. कलाम ने इसी भाव के साथ जीवन जिया है। ईश्वर ने भारतमाता के लाड़ले सपूत को अपने पास बुला दिया है। भारत माता की ईश्वर से यही प्रार्थना है कि, ईश्वर पुनः उसे ऐसा ही पुत्र दें।

Leave a Reply