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तुझ पे दिल कुर्बान…

तुझ पे दिल कुर्बान…

by प्रमोद बापट
in जून -२०१४, सामाजिक
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नाम सोचा ही ना था, है कि नहीं
‘अमां’ कहके बुला लिया इक ने
‘ए जी’ कहके बुलाया दूजे ने
‘अबे ओ’ यार लोग कहते हैं
जो भी यूं जिस किसी के जी आया
उसने वैसे ही बस पुकार लिया।
तुमने इक मो़ड पर अचानक जब
मुझको ‘गुलजार’ कहके दी आवाज
एक सीपी से खुल गया मोती
मुझको इक मानी मिल गये जैसे
आह, यह नाम खूबसूरत है
फिर मुझे नाम से बुलाओ तो!

 

कवि की इस ख्वाईश को समझकर भारत के सिनेमा दर्शकों ने बार-बार उसे आवाज दी है…गुलजार….गुलजार…! क्योंकि गत पचास वर्षों में ऐसे अनगिनत लम्हें आए, जो अपने साथ इस कवि के शब्दों की झंकार ले आए। खुशबू ले आए। दूर तक राह चलने वाले राही के कंधे पर जैसे इकतारा हो और वह अहर्निश बजता रहे, गाता रहे, कहता रहे…‘राहों पे चलते हैं, राहों पे बसर करते हैं, खुश रहो एहले-वतन, हम तो सफर करते हैं’ या ‘हवा के पदों पर मेरा आशियाना…मुशाफिर हूं यारों, ना घर है ना ठिकाना’ यह कवि चलता रहा। गाता रहा। वह इतने समीप था कि उसे बुलाने के लिए आवाज देने की जरूरत ही महसूस न हुई। वह निरंतर साथ रहा कभी दिखता था तो कभी ओझल होता..पर ‘हमने देखी है इन आंखों की महकती खुशबू!’ वही खुशबू ‘कतरा कतरा’ मन में उतरती रही।

और उधर वह कवि कहता रहा, ‘फिर मुझे नाम से बुलाओ तो…!’ इस बार सारे सिनेमा जगत ने मन से, पूरी ईमानदारी से एक स्वर से कवि को आवाज दी…उच्चासन पर आमंत्रित किया और सम्मानित किया। गुलजार जी को दादा साहब फालके पुरस्कार से सराहा गया। कवि को उसके प्रिय नाम से पुकार कर नवाजा गया। कवि की ख्वाईश पूरी की गई।

वस्तुत: यह सिनेमा जगत की ख्वाईश थी, क्योंकि ‘गुलजार’ के शब्दों ने, गीतों ने, फिल्मों ने सबका जीवन सात रंग के सपनों से सजाया है। प्रारंभ में दी गई कविता में गुलजार जी ने स्वयं का चित्र शब्दांकित किया है। उस कविता का नाम ही ‘सेल्फ पोर्ट्रेट’ है।

दूर बचपन में ही जिन्हें इस मोती वाले सीपी का पता चला था। अपने मन की सीपी मे एक एक पल, तजुर्बा बनकर संजोया गया। उसी अनुभव को, शब्दों की ल़िडयों में प्रस्तुत करता रहा।

आज के पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के झेलम जिले में दिना नाम के एक छोटे से गांव में गुलजार जी का जन्म हुआ, बचपन बीता उस सुखचित्र की एक एक रेखा देश-विभाजन की आंधी ने बिखेर दी। केवल चित्र ही नहीं, गांव, घर, आंगन, पाठशाला, झूले, खेत…सारा जीवन ही ध्वस्त हुआ और अपने परिवार सह केवल ग्यारह वर्ष का संपूरन सिंह कालरा नामक बालक केवल जिंदा रहने की उम्मीद लेकर दिल्ली में आ बसा। वास्तव में सब कुछ टूट चुका था, लूट चुका था, पर संपूरन के मन की सीपी में तजुर्बे का कण-कण जमा हो रहा था। उन्हें ही वो मोती समान शब्द रूप देता रहा।

पिता माखन सिंह सतत सचेत करते रहे, कहते रहे ‘छो़ड दे ये शब्दों का जाल….भूखा रहेगा….अपने भाइयों पर बोझ बना रहेगा। कुछ मतलब का काम कर…।’

पर संपूरन…जिसके कानों में शब्दों की सदा गूंजती रही। पुकारती रही और यह चल प़डा…नई दिशा की खोज में। अपने ही खोज में। दिल्ली में कुछ समय प्रगतिशील लेखक मंच से जु़डा रहा, पर संतुष्टि न हुई। उसे अधिक ऊंचा आकाश बुलाता रहा।
संपूरन मुंबई पहुंचे, वो मोटर मैकेनिक बनकर। पहिया चलता रहा। राह मिलती रही, यह सोचकर और ‘इन रेशमी राहों में, इक राह तो वो होगी। तुम तक जो पहुंचती है, उस मो़ड से जाते हैं’, इसी तरह नए मो़ड पर पहुंचे संपूरन सिंह सिने जगत तक आ पहुंचे। श्रेष्ठ सिने निर्देशक बिमल रॉय के सहायक के रूप में उसने अपना पहला कदम डाला। इक ओर विभिन्न पत्रिकाओं में कविता-कहानी लिखना शुरू ही था। अब दूसरी ओर शब्द, चित्र, रूप, अभिनय का अधिक व्यापक सेवा द्वार खुला था और बिमल दा का साथ…उनका शब्दचित्र खींचते हुए गुलजार जी ने लिखा है,

शाम के कोटरे में बहता हुआ, खामोश नदी का चेहरा,
……नींद में डूबी हुई दूर की मध्यम आवाज….

इसी दूर की मध्यम आवाज ने पहली बार कवि को..संपूरन सिंह को ‘गुलजार’ नाम से सिनेमा के लिए लिखने को कहा, वर्ष था 1963 बर्मन दादा संगीत रचना कर रहे थे। चित्रपट था ‘बंदिनी’। इस फिल्म के शेष सारे गीत पूरे हो चुके थे। शैलेंद्र जी ने वो लिखे थे। वे गीत स्वयं शैलेंद्र जी ने स्वयं ही गुलजार जी को लिखने के लिए कहा और अपनी प्रिय भूमिका…गीतकार की भूमिका के लिए ‘गुलजार’ इस प्रिय नाम से जैसे ही यह सदा आई, मोतियों जैसे शब्द गुलजार जी लिखे, ‘मोरा गोरा रंग लई ले, मोहे श्याम रंग दई दे!’

अपनी प्रतिभा के शुभ्र-धवल मोती लुटाने वाले एक नए गीतकार का जन्म हुआ था। सिनेमा की कहानी के अनुसार श्याम के शतरंग लिए नए-नए गीत रचता रहा। उसी वर्ष ‘काबुली वाला’ गुरुदेव रवींद्र नाथ की कहानी पर बने चित्रपट के लिए गुलजार जी ने गीत लिखा, गंगा आए कहां से…’ और तब से अब तक यह गीत गंगा बहती रही। गाती रही। हमारे आपके जीवन के किनारे भिगोती रही। तृष्णा बुझाती रही।

वर्ष 1971 में गुलजार जी का एक और नया रंग सिनेमा जगत ने देखा। उन्होंने ‘मेरे अपने’ इस ‘चित्रपट’ का निर्देशन किया। राज कुमार मोईश का बांगला उपन्यास ‘रंगीन उत्तरे’ पर आधारित बांगला में ‘आपनजन’ नाम की फिल्म तपन सिन्हा ने बनाई थी। उसी फिल्म का यह भाषांतरित पुनर्निर्माण था। उसके बाद परिचय, कोशिश फिल्में आईं। गुलजार जी का एक नया परिचय सिनेमा जगत में स्थापित हुआ। गीतकार, संवाद लेखक और निर्देशक भी। परिचय में उन्होंने लिखा था- बीती हुई कतियां, कोई दोहराए, भूले हुए नामों से कोई तो बुलाए… और हुआ भी यही। दिन-रात बीतते रहे। वर्ष-महीने बीतते रहे। पर गुलजार जी की ‘सुरीली बोलियां’ दोहराती रहीं खुशबू, किनारा। किताब पर लिबास ??? लेकिन, मासूम….कितनी फिल्में……कभी निर्माण, कभी निर्देशन….कभी संवाद लेखन तो कभी गीत….‘गुलजार’ नाम को सिने जगत ने कभी भूलने नहीं दिया। अनेक सम्मान, अनेक पुरस्कारोें से गुलजार जी को नवाजा गया। जिसमें 20 फिल्म फेअर पुरस्कार, नेशनल अवॉर्ड, ग्रैमी जैसे विश्व सम्मान के भी गुलजार धनी बने। यह बात विशेष उल्लेखनीय है कि कवि गुलजार का आज तक सबसे अधिक बार सम्मान किया गया है। उनकी कवि प्रतिभा को सिने जगत के साथ-साथ साहित्य अकादमी ने भी सराहा है। वर्ष 2004 में भारत सरकार ने उन्हें ‘पद्म भूषण’ गौरव प्रदान किया। तथा 2013 में असम विश्वविद्यालय के कुलगुरु पद पर उन्हें विराजित किया गया।

1963 की ‘बंदिनी’ से चली यह गीत यात्रा 2013 के ‘जब तक है जान’ तक अविरल चल रही है। ‘एक अकेला इस शहर में’ गाने वाले गुलजार जी ने न केवल इसी शहर में या सिने जगत में अपना विशेष घरौंदा बनाया, वरन दर्शकों के मन में, हृदय में सर्वोच्च स्थान प्राप्त किया। क्यूंकि गुलजार हमारे आपके मन का दुख-दर्द आनंद-उल्हास शब्दों में पिरोते रहे। हर एक-दो नैनों में वो अपनी कहानी ढूं़ढते, गूथते रहे, जिसमें थो़डा बदल भी और थो़डा फनी भी समाया था। समस्याओं को गीतों में शब्दांकित करते रहे, जिससे वे गीत गाने वाला हर कोई कहने की हिम्मत बनाता चला कि ‘तुमसे नाराज नहीं जिंदगी, हैरान हूं मैं।’ अपनी भारतीय परंपरा में कवि को नई सृष्टि के रचयिता का उत्तुंग स्थान दिया गया है। कारण यह है कि कवि एक नया दर्शन देता है। नई राह देता है, दृष्टि देता है। सिनेमा जगत जैसे मूलत: व्यावसायिक कला माध्यम का आधार लेकर गुलजार जी ने अपनी प्रतिभा का मुक्ताकार अपने गीतों से, फिल्मों से खचाखच भर दिया है जिससे दिन नर्म धूप सी और रातें चांद की बिंदी से सज गई हैं।

अपने ‘पुखराज’ इस कविता संग्रह की अर्पण पत्रिका में गुलजार लिखते हैं-
कुछ ख्वाबों के खत इनमें कुछ चांद के आयनें, सूरज की शुआएं हैं
नज्मों के लिफाफों में कुछ मेरे तजुर्बे हैं, कुछ मेरी दुआएं हैं
निकलोगे सफर पे जब ये साथ में रख लेना…
शायद कहीं काम आएं….

गुलजार जी, सही में आपके ये शब्द…यही नहीं आपके कितने सारे फिल्मी गीतों के शब्द हमारे हमराही बन के चल रहे हैं। वो राह बनाते हैं….वो राह दिखाते हैं।

आपके हम सदा के लिए कर्जदार हैं। आपको दादा साहब फालके पुरस्कार प्रदान करना, यह इस कर्ज से मुक्ति के लिए नहीं, इस सुरीले कर्ज का यह प्रत्यक्ष स्वीकृति है।

आपके लिए हम इतना ही कह सकते हैं, आपका हर एक सपना पूर्ण हो, उसे किसी भी बंधन की, विभाजन की रेखा की भी बाधा न आए। आपने कहा है-

‘आंखों को वीसा नहीं लगता, सपनों की सरहद होती नहीं
बंद आंखों से रोज मैं, सरहद पार चला जाता हूं…!

यह सारी बंदिशें, बे़िडयां जो आपको चुभती हैं, कुछ-कुछ हम सब को भी चुभती हैं। भविष्य में ये सरहद की दीवारें टूट जाएं, मिट जाएं और एक वतन की मिट्टी को प्रणाम करते-करते हम आपके गीतों के स्वर से अर्चना करें- ऐ मेरे प्यारे वतन, ऐ मेरे बिछ़डे चमन,
तुझ पे दिल कुर्बान….

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