देश की जल-कुण्डली

पानी के मामले में हमारे देश की गिनती दुनिया के कुछेक सम्पन्नतम देशों में है। यहां औसत वर्षा 1, 170 मि.मी. है। उत्तर-पूर्वी कोने चेरापूंजी में अधिकतम 11,400 मि.मी. और न्यूनतम 210 मि.मी. उसके बिल्कुल विपरीत पश्चिमी छोर पर जैसलमेर में है। पश्चिम-मध्य अमेरिका में, जो आज दुनिया का अन्नदाता माना जाता है, सालाना औसत बारिश 200 मि.मी. है। उससे तुलना करके देखें तो हमारी धरती निश्चित ही बहुत सौभाग्यशाली है।

पर दुर्भाग्य कि हम इस वरदान का सदुपयोग नहीं कर पा रहे हैं। सन 2025 तक भी हम अपनी कुल सालाना बारिश के एक चौथाई का भी इस्तेमाल कर सकें तो बड़ी बात होगी। तब भी आने वाले बीस बरसों में हमें पानी की भयंकर कमी का सामना करना पड़ेगा।

इस दु:खद परिस्थिति का एक मुख्य कारण वन विनाश ही है। लापरवाही के कारण होने वाला भू-क्षरण भी साफ है ही; साथ ही बारिश का बहुत सारा पानी अपने साथ उपजाऊ मिट्टी को भी लेकर समुद्र में चला जाता है। सूखते जा रहे तालाब, झील, पोखर और नदी जैसे सार्वजनिक जलाशयों का निरंतर और बेरोकटोक दुरुपयोग इस समस्या को और भी उग्र बना रहा है। नलकूपों के बढ़ते चलन की वजह से भूमिगत जल भी निजी मालिकी का साधन बन चुका है। देवी स्वरूप नदियां भी आज बस शहरी और औद्योगिक कचरे को ठिकाने लगाने का सुलभ साधन बन गयी हैं।

एक समय था, जब हमारे शहरों और गांवों में तालाब और पोखर बहुत पवित्र सार्वजनिक सम्पदा की तरह सम्भाल कर रखे जाते थे। इन जालाशयों की गाद साफ करने का काम लोग खुद किया करते थे। गाद की चिकनी मिट्टी से घर बनाये जाते थे, दीवारें लीपी जाती थीं और उसे खाद के रूप में इस्तेमाल किया जाता था, क्योंकि उसमें हरे साग-पात के सड़े तत्व और अन्य प्राकृतिक पोषक तत्व होते थे।

लेकिन हमारी वर्तमान जल नीति (अगर ऐसी कोई नीति है तो) किसी और ही दिशा में बढ़ चली है। नलकूप, कुएं और तालाब जैसी किफायती छोटी परियोजनाओं की पूरी उपेक्षा की गयी है। बस बड़े-बड़े बांध बन रहे हैं। इन बांधों का कितना ही भव्य और सुंदर बखान किया जाता हो, पर वास्तविकता तो यही है कि हर साल बाढ़ और सूखे का जो दौर चलता है और वह जो भारी कहर ढाता है, उसे ये बांध जरा भी नहीं थाम पाये हैं।

देश में जल प्रबंध की स्थिति का अंदाजा सिर्फ इसी से लग जाएगा कि आज तक ऐसा एक भी विस्तृत सर्वेक्षण नहीं हो सका है कि देश में सचमुच कितना पानी है।

देश की जल-कुण्डली

हालत दिन-ब-दिन ज्यादा से ज्यादा बिगड़ती जा रही है, फिर भी हम अपने जल संसाधनों का उपयोग इतनी लापरवाही से कर रहे हैं मानो वे कभी खत्म ही नहीं होने वाले हैं।

राष्ट्रीय कृषि आयोग के श्री बी. एस. नाग और श्री जी. एन. कठपालिया ने देश के जल चक्र का एक खाका खींचा है। इसके अनुसार 1974 में 40 करोड़ हेक्टेयर मीटर पानी बहा, लेकिन उपयोग में केवल 3.80 करोड़ हेक्टेयर मीटर (क. हे. मी.) 9.5 फीसदी ही आया। सन 2025 तक यह 10.5 करोड़ क. हे. मी. (26 प्रतिशत) हो सकेगा। श्री नाग और श्री कठपालिया के अनुसार 10.5 करोड़ हेक्टेयर मीटर हमारी अधिकतम उपयोग क्षमता का सूचक है।

हमें हर साल जो 40 करोड़ हेक्टेयर मीटर पानी मिलता है, उसका खर्च तीन प्रकार से होता है। 7.00 क. हे. मी. भाप बन कर उड़ जाता है, 11.5 क. हे. मी. नदियों आदि से होकर बहता है और बाकी 21.5 क. हे. मी. जमीन में चला जाता है। फिर इन तीनों के बीच परस्पर कुछ लेन-देन भी चलता है। आखिर में सारा पानी वापस वातावरण में लौट जाता है।

जमीन में जाने वाले पानी का बहुत सा हिस्सा पेड़-पौधों के काम आता है। सतही और भूमिगत दोनों प्रकार के पानी का उपयोग घरों में, सिंचाई में, उद्योगों आदि में होता है।

सतह पर बहने वाले सालाना पानी में कुछ (11.5 क. हे. मी.) सीधे प्राप्त होता है, कुछ (2 क. हे. मी.) दूसरे पड़ोसी देशों से नदियों के द्वारा आता है। कुछ भूमि के नीचे से खींचा जाता है। यह सब कुल मिलाकर 18 क. हे. मी. होता है। इस कुल पानी में से 1.5 क. हे. मी. पानी को उसका रास्ता मोड़कर और सीधे पम्पों से काम में लाया जाता है। बाकी 15 क. हे. मी. पानी वापस समुद्र में या पड़ोसी देशों को चला जाता है। अनुमान है कि सन 2025 तक सतही पानी की मात्रा बढ़कर 18.5 क. हे. मी. होगी, जिसमें से (3.5 क. हे. मी.) भण्डारण द्वारा और सीधे पम्पों से (4.5 क. हे. मी.) याने कुल 8 क. हे. मी. पानी का उपयोग किया जा सकेगा। इसके अलावा सतही सिंचाई को बढ़ाकर लगभग 50 लाख क. हे. मी. अतिरिक्त पानी फिर दुबारा उपयोग के लिए प्राप्त किया जा सकेगा।

पिछले कुछ वर्षों से भूमिगत जल का भयानक गति से उपयोग बढ़ता जा रहा है। इससे नदी से पानी का रिसाव बढ़ेगा। सिंचाई के बढ़ने से भी खेतों का पानी जमीन से ज्यादा जाने लगेगा। इस प्रकार अंत:स्राव की बढ़ती मात्रा से सालाना भूमिगत भण्डार में जुड़ने वाले पानी का प्रमाण भी बढ़कर लगभग 8.5 क. हे. मी. हो जाएगा। मिट्टी के संरक्षण के लिए किये जाने वाले उपायों से, जैसे फिर हरियाली बढ़ाने या मेड़बंदी आदि से जमीन में ज्यादा पानी जाएगा। इस अतिरिक्त भूमिगत जल से सीधे उपयोग के लिए ज्यादा पानी मिल सकेगा और पास की नदियों में भी बहाव बढ़ेगा।

भूमिगत पानी की इस पुनर्वृद्धि का कई तरह से क्षय होता है- बहुत-सा पानी भाप बनकर उड़ जाता है, खुले कुओं और नलकूपों में से पानी खींचा जाता है, जमीन के भीतरी स्रोतों से अपने आप पास की नदियों में चला जाता है। इन रूपों में जितने पानी का उपयोग नहीं होता है, वह पानी की सतह को ऊंचा करता है और उससे वाष्पीकरण बढ़ता है। अंदाज है कि सन 2025 तक भूमिगत पानी को ऊपर खींचने का प्रमाण आज के 1.3 क. हे. मी. से बढ़कर 3.5 क. हे. मी. होने वाला है।

पानी की मांग

पानी की मुख्य मांग सिंचाई के लिए है। 1974 में देश में जितना पानी इस्तेमाल हुआ, उसका 92 प्रतिशत सिंचाई में गया। बचे 8 प्रतिशत से घरेलू और औद्योगिक जरूरतें पूरी की गयीं। देहातों में या तो पानी है नहीं, या पानी उनकी पहुंच में नहीं है, इसलिए कम से कम पानी से उन्हें का चलाना पड़ता है। अगर मान लें कि सन 2025 तक घरेलू और औद्योगिक आवश्यकताओं के अनुसार पूरा और पर्याप्त प्रबंध होता है, तो कुल पानी का 73 प्रतिशत सिंचाई के काम में आएगा।
मान लें कि 10.5 क. हे. मी. पानी मिलने लगेगा, तो भी सन 2025 में, याने आज से 40 साल बाद पानी की जो नाना प्रकार की मांगें बढ़ेंगी, उनकी पूर्ति इतने पानी से हो नहीं सकेगी।

दुनिया में एशिया सबसे ज्यादा विपदा ग्रस्त क्षेत्र है और उसमें भी हमारा देश सबसे ऊपर है। 1960 और 1981 के बीच हमारे यहां 96 विपदाएं आयीं जिनमें कुल 40,000 लोग (तूफानों से 25,000 और बाढ़ से 15,000) मारे गये। विश्व के आंकड़ों के अनुसार, 1960 और 1981 के बीच बाढ़ के शिकार होने वाले 70 प्रतिशत लोग भारत और बांग्लादेश के थे।

प्राकृतिक विपदाओं में सूखे से सबसे ज्यादा लोग पीड़ित होते हैं। विश्व के आंकड़े बताते हैं कि 60 और 70 के दशक में सूखे के शिकार लोगों में भारत के लोग ज्यादा थे। 70 के दशक को पश्चिमी अफ्रीका के सहेल के सूखे का दशक माना जाता है, पर सूखे से पीड़ित लोगों में 80 प्रतिशत भारत के थे।

हमारे यहां बाढ़ का प्रकोप अक्सर गंगा और ब्रह्मपुत्र के क्षेत्र में ज्यादा रहता है। अकेले गंगा थाल में बाढ़ की क्षति कुल क्षति के 60 प्रतिशत तक है। 50 और 60 के दशकों में बिहार, पश्चिम बंगाल, उत्कल और असम में बाढ़ों से तीन-चौथाई क्षति दर्ज की गयी थी। लेकिन 1976 और 1978 के बीच आंध्र प्रदेश, राजस्थान और कुछ हद तक गुजरात और हरियाणा भी, जो बाढ़ के क्षेत्रों से काफी दूर हैं, देश की कुल बाढ़ की क्षति के आधे हिस्सेदार हो गये। आमतौर पर जहां बाढ़ आया करती है उस पश्चिम बंगाल जैसे इलाकों में तो हालत और भी ज्यादा खराब हो गयी, क्योंकि बाढ़ वाले मैदानों में खेती की जाने लगी, ज्यादा आबादी बसी, शहरीकरण बढ़ा और बाढ़ वाले क्षेत्र का अनियोजित ‘विकास’ किया गया।

बाढ़ का हल ढू़ंढने का केन्द्रीय तथा राज्य सरकारों का रवैया बड़ा अजीब है। बाढ़ वाले क्षेत्र निर्धारित करने के लिए बनाया गया विधेयक 1974 से अभी तक इधर से उधर ‘बह’ रहा है। कानून बनाने के लिए अनुकूल मसविदे के रूप में उसे केन्द्र ने राज्यों को भेजा था ताकि वे बार-बार बाढ़ ग्रस्त होने वाले इलाकों को बचाने का कार्यक्रम चला सकें लेकिन किसी भी राज्य सरकार ने इस विधेयक में कोई रुचि नहीं ली।

भूमिगत जल

जिस देश को आज से 20 साल बाद पानी के भयंकर संकट का सामना करना पड़ेगा, उसके लिए भूमिगत पानी का सही उपयोग करना बहुत ही महत्त्वपूर्ण है; पर इस मामले में भी देश की भूमिगत जल सम्पदा और उसके उपयोग से सम्बंधित पूरे आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं। फिर भी कुछ अनुमान इस प्रकार है: बताया जाता है कि 300 मीटर गहराई में लगभग 3 अरब 70 क. हे. मी. पानी का भण्डार मौजूद है, जो यहां की सालाना बारिश से लगभग 10 गुना ज्यादा है। इस खजाने का ज्यादा हिस्सा दुबारा भरा नहीं जा सकेगा।

सन 1972 के दूसरे सिंचाई आयोग ने अंदाज बताया था कि बारिश तथा रिसाव के द्वारा लगभग 6.7 क. हे. मी. पानी फिर भरा जाता है। पानी का प्रबंध आज से बेहतर हो और फिर भरे जाने की इस प्रक्रिया को बढ़ाया जाये तो यह आंकड़ा भी बढ़ सकता है। हाल के परीक्षणों से मालूम हुआ है कि भारतीय प्रायद्वीप जिन ‘कड़ी चट्टानों’ का बना है- देश की भूमि का लगभग 70 प्रतिशत हिस्सा वहीं है- उन चट्टानों के नीचे पहले के अनुमान से कहीं ज्यादा पानी मौजूद है। इस प्रकार केन्द्रीय भू-जल बोर्ड के ताजा आंकड़ों के अनुसार सालाना 4.23 क. हे. मी. पानी काम में लाया जा सकता है, जबकि आज केवल 1 क. हे. मी. ही काम आ रहा है।

भूमिगत जल के उपयोग का लोकप्रिय तरीका है नलकूप। देश में नलकूपों का प्रचलन कोई 50 साल पहले हुआ। 30 के दशक में उत्तर प्रदेश के मेरठ जिले में सार्वजनिक नलकूपों से सिंचाई का सिलसिला शुरू हुआ। 1950-51 में देश भर में 5,000 नलकूप तैयार करने की योजना बनायी गई थी। तब खुले कुएं 39 लाख थे। 60 के दशक में देश भर में सूखा पड़ा, अकाल की-सी हालत हो गयी तो धड़ाधड़ नलकूप खुदने लगे। जहां 50 के दशक में 2,000 और 60 के दशक में 50,000 नलकूप बने, वहां 60 के दशक के बाद एक ही साल में 1, 72, 000 निजी नलकूप बन गये।

बढ़ता दुरुपयोग

नलकूपों की संख्या बढ़ने का अर्थ है भूमिगत पानी का ज्यादा उपयोग। जो हाल दूसरे सभी संसाधनों के शोषण का है, वही पानी का भी है। उसका बेहिसाब दुरुपयोग होता है। इस कारण से भी पानी की सतह नीची होती जा रही है। कुदरती तौर पर जितना पानी भूमिगत भण्डार में भरता है, उससे ज्यादा पानी नलकूप बाहर खींच लाते हैं। इसका मतलब यह कि यह कीमती भण्डार हमेशा के लिए घटता जा रहा है। इस घाटे की मात्रा के बारे में कोई अधिकृत तथ्य प्राप्त नहीं है।

पानी की सतह के घटने से साधारण किसान बड़ी परेशानी में पड़ जाते हैं। पैसे वाले किसान तो अपने कुएं गहरे करवा कर कुछ समय के लिए खतरे से बच जाएंगे, पर जो लोग खुले कुएं काम में लाते हैं और परम्परागत पद्धति से पानी खींचकर अपना और मवेशियों का गुजारा करते हैं, उन पर कहर टूट पड़ता है।

योजना आयोग के एक सलाहकार कहते हैं, ‘सिंचाई के लिए भूमिगत पानी का अति उपयोग एक अभिशाप है।’ ज्यादा पानी की जरूरत वाली फसलों के लिए भूमिगत पानी के अति-शोषण का परिणाम महाराष्ट्र में दिखाई देने लगा है। वहां पीने के पानी की और खाद्यान्न की कमी पड़ी क्योंकि ज्यादातर पानी तो गन्ने की नकदी फसल पी बैठी है।

भू-जल और ऊपरी पानी के अनियोजित प्रबंध का ही यह नतीजा है कि आज गांवों की तो बात छोड़िये छोटे-बड़े शहरों में व राजधानियों तक में पीने के पानी का संकट बढ़ता ही जा रहा है। हैदराबाद के लिए रेलगाड़ी से पानी पहुंचाया जा चुका है। मद्रास, बैंगलुरू भी छटपटा रहे हैं। जिस शहर के पास जितनी राजनैतिक ताकत है, वह उतनी ही दूरी से किसी और का घूंट छीनकर अपने यहां पानी खींच लाता है। दिल्ली यमुना का सारा पानी पी लेती है, इसलिए अब गंगा का पानी लाया गया है। इंदौर ने अपने दो विशाल तालाब पी डाले हैं, इसलिए वहां नर्मदा का पानी आया। वह भी कम पड़ने लगा तो वहां नर्मदा चरण-2, चरण-3 की भी तैयारी हो गयी हैं।

भूमि के सम्बंध में जो लोग ‘अति चराई’ जैसे शब्द निकाल सकते हैं, उन्हें शहरों की इस ‘अति पिवाई’ के बारे में भी सोचना होगा।

भूमिगत पानी के अति उपयोग का नतीजा यह भी हो सकता है कि उसमें खासकर समुद्र तट के इलाकों में, खारा पानी मिल जाये। इससे फिर रहा-सहा पानी भी पीने या सिंचाई के लायक नहीं रह पाएगा।

देश के पूर्वी तट पर गोदावरी, कृष्णा और कावेरी के मुहाने भूमिगत पानी के भण्डार से समृद्ध रहे हैं। पहले साधारण कुंओं से पानी खींचा जाता था। उनमें भीतर के स्रोतों से पूरा पानी वापस भर जाता था। लेकिन अधिक उपज वाली किस्मों के आने से और कई-कई फसलें लेने से उन स्रोतों का शोषण बेहद बढ़ गया है। तमिलनाडु में सूखे का सिलसिला शुरू हुआ, उसकी वजह से समुद्र तटीय इलाकों में खूब गहरे बोरवेल बड़ी संख्या में खोदने पड़े। इसके कारण खारे पानी के घुस आने का अंदेशा, खासकर मद्रास शहर के आसपास के छोटे-छोटे तटीय जल भण्डारों में बढ़ गया है।

तालाब

बारिश या किसी झरने के पानी को रोकने के लिए बनाये जाने वाले तालाबों का चलन हमारे यहां बहुत पुराना है। देश में ऐसे हजारों पुराने तालाब आज भी मौजूद हैं। हाल ही में इलाहाबाद के पास श्रंगवेरपुर में 2,000 साल जे ज्यादा पुराना तालाब मिला है।

दक्षिण भारत के अनेक राज्यों में अनेक पुराने तालाबों से आज भी सिंचाई की जाती है। बेल्लारी जिले में तुंगभद्रा नदी के किनारे जो पंपा सागर तालाब है, शायद यही रामायण में वर्णित ‘पपासर’ है। धान और तालाबों के क्षेत्र तेलंगाना में भी अनेक पुराने तालाब मौजूद हैं। वारंगल और करीम नगर जिलों के गांव पाखाल, रामप्पा लकनावरम और शनीग्राम के तालाब 12 वीं और 13 वीं सदी में तत्कालीन राजाओं ने बनवाये थे। कट्टागिरी में ऐसे तालाबों की एक लम्बी शृंखला का वर्णन है। ये तालाब पनढाल के अलग-अलग स्तरों पर बने हैं।

अंग्रेजी राज के प्रारम्भिक दौर में अनेक ब्रितानी विशेषज्ञ सिंचाई की हमारी परम्परागत पद्धति को देख चकित रह गये थे। यह बात अलग है कि फिर उन्हीं के हाथों इसकी उपेक्षा प्रारम्भ हुई जो बाद में उनके द्वारा रखे गये ‘आधुनिक’ राज की नींव के बाद बढ़ती ही गयी। आजादी के बाद भी यह उपेक्षा जारी रही, क्योंकि आज का ‘लोकतांत्रिक’ ढांचा भी उसी आधुनिकता वाली नींव पर खड़ा है।

आजादी के बाद नये तालाब खुदवाने की बात तो दूर, पुराने तालाबों की देखभाल करने में भी बहुत उपेक्षा बरती गयी। बंगाल के अकाल की छानबीन करने के लिए, 1944 में गठित ‘फेमिन एन्क्वायरी कमीशन’ ने जोरदार सिफारिश की थी कि ढेर सारे तालाब खुदवाये जायें और उनकी सही देख-रेख को लाजिमी बनाने के लिए कानून बनाये जायें। 1943 में चलाये गये ‘अधिक अन्न उपजाओ’ अभियान में और बाद में उसी से जुड़ी पहली पंचवर्षीय योजना में भी टूटे तालाबों की दुरुस्ती और मरम्मत पर खास जोर दिया गया था। इसके लिए कर्जे और अनुदान के लिए बड़ी रकम उपलब्ध की गयी। 1958-59 तक पूरे देश के कुल सिंचित क्षेत्र में तालाबों से चिंचित जमीन का प्रमाण सबसे ज्यादा 21 प्रतिशत तक हो गया था, लेकिन 1978-79 में यह घटकर दस प्रतिशत रह गया।

एक तो नेतृत्व और योजनाकारों के दिमाग पर बड़ी योजनाओं का भूत सवार था ही, साथ ही कुछ और भी कारण जुड़ते गये और ये तालाब खत्म होते गये। डीजल और बिजली से चलने वाले पम्प मिलने लगे, नलकूपों का आकर्षण बढ़ा भी और बढ़ाया भी गया।

जमींदारी उन्मूलन

समाजवादी माने गये दौर में जमींदारी प्रथा के खत्म होने के बाद तालाबों की देखरेख, पानी का बंटवारा और तालाबों की मरम्मत आदि की जिम्मेदारी सार्वजनिक प्रशासन संस्थाओं पर आ गयी है पर सबसे खर्चीली व्यवस्था के इन ढांचे के पास ‘धन की कमी’ थी। आंध्र प्रदेश के एक अध्ययन के अनुसार देखरेख का खर्च तालाब बनवाने की लागत से एक प्रतिशत का भी तिहाई आता था। लेकिन धीरे-धीरे सिंचाई वाले तालाबों का आधार ही खत्म हो गया। परम्परा से तालाब ग्राम पंचायत के (सरकारी ग्राम पंचायत के नहीं) साधन थे और उनकी मरम्मत में हाथ बंटाना हर परिवार अपना स्वधर्म मानता था। तमिलनाडु, गोवा जैसे कुछ भागों में ये परम्पराएं बची रहीं, वहां तालाबों की हालत आज भी अपेक्षाकृत अच्छी है।
अनुसंधानों ने सिद्ध किया है कि फसलों को तालाबों से अगर अतिरिक्त पानी मिल जाता है तो प्रति हेक्टेयर एक टन से ज्यादा पैदावार बढ़ती है। बाढ़ों को रोकने में भी तालाब बड़े मददगार होते हैं। उनसे कुओं में पानी आ जाता है और ज्यादा बारिश के दिनों में अतिरिक्त पानी की निकासी की भी सुविधा हो जाती है।

सामान्य नियम यह होना चाहिए कि ‘पानी जमीन के हिसाब से नहीं, लोगों के हिसाब से मिलना चाहिए। हर परिवार को, चाहे वह बेजमीन ही क्यों न हो, पानी पर समान हक मिलना चाहिए। तालाबों के पानी के समान वितरण के लिए ‘पानी समितियां’ बननी चाहिए। उन्हें पनढाल की रक्षा का तथा वहां की घास आदि पैदावार के बंटवारे का भी जिम्मा सौंपा जाना चाहिए। चराई से पनढाल की रक्षा न की जाये तो तालाब में गाद जल्दी भर जाएगी। दुख इस बात का है कि पहले व्यवस्था ऐसी ही हुआ करती थी। लद्दाख जैसी जगहों में, जहां आधुनिक विकास के चरण अभी नहीं पड़े हैं, आज भी हर घर के हर खेत को पानी पहुंचाने का प्रबंध परम्परागत संगठनों के माध्यम से होता है।

आज गांव के लिए फिर से तालाब की बात करने वाले विशेषज्ञ यह भी जोड़ देते हैं कि शायद घनी आबादी वाले क्षेत्रों में याने शहरों में तालाब सम्भव नहीं होंगे। उन्हें शायद मालूम नहीं कि अभी कुछ ही बरस पहले तक देश में न जाने कितने शहरों में तालाब और झील हुआ करती थीं। मध्य प्रदेश के जबलपुर शहर में ‘चेरी ताल’ से ‘रानी ताल’ तक अनगिनत तालाब थे और ज्यादातर मुहल्ले इन्हीं के नाम से जाने जाते थे।

सरकार ने कई बार तालाबों और जल संरक्षण के महत्व का ढोल पीटा है। दूसरे सिंचाई आयोग ने भी कुएं और तालाबों को बड़ा महत्व दिया है पर इन सुझावों पर कोई ध्यान नहीं दिया गया। दरअसल, देश में तालाबों की स्थिति का कोई व्यवस्थित अध्ययन भी नहीं हुआ है। सरकार की दिक्कत साफ है, तालाबों के बारे में सोचने का अर्थ है छोटी-छोटी बातों पर ध्यान देना और खुद को पीछे रखकर लोगों को आगे लाना। ये दोनों बातें हमारे राजनेताओं के लिए बड़ी मुश्किल हैं।
(हमारा पर्यावरण, गांधी शांति प्रतिष्ठान, नई दिल्ली से साभार)
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