फिल्मी पुरस्कार बन गए मनोरंजन के उत्सव

फिल्मी दुनिया में इस समय इस तरह का उत्साही और हिसाबी वातावरण है कि हम ‘अपनी भूमिका’ जैसे हो करते रहे, फिर भी कोई न कोई फिल्मी पुरस्कार अवश्य मिल ही जाएगा। यह कोई नई बात नहीं है, इसे आप भी जानते ही हैं। कभी-कभी तो हिंदी फिल्म पुरस्कारों के बारे में सवाल भी मन में उठते हैं। ये सवाल हैं- 1. इतने पुरस्कार हो गए हैं कि वे किस कलाकार को और कैसे मिलते हैं इसके विवरण अथवा संदर्भ के बारे में पूरी उत्सुकता ही खत्म हो गई हैं। क्यों? 2. जिसे ये पुरस्कार नहीं मिलते वह भी सोच लेता है कि सालभर में कहीं न कहीं अवश्य ही पुरस्कार मिलेगा, यह ‘सुविचार’ रखकर वह संवेदनशून्य हो चुका है। क्यों? 3. बहुत से पुरस्कार उत्सव चैनलों के लिए मानो ‘टी वी शो’ हो चुके हैं। क्यों? 4. ऐसे पुरस्कारों को लेने-देने की अपेक्षा उस ‘इवेंट’ में नाच-गाना ही महत्वपूर्ण बन गया है। क्यों? 5. दो नृत्यों के बीच ‘खाली समय पूरा करने के लिए’ ही फिल्मी पुरस्कारों का यह नाटक होता है। क्यों? 6. कुछ कलाकार तो यह शर्त रखते हैं कि आप ‘सम्मान पुरस्कार’ देना ही चाहते हो तो पुरस्कार वितरण समारोह में नृत्य-अदाकारी अवश्य होनी चाहिए। क्यों? 7. कुछ आयोजक पुरस्कार विजेता तय करते समय किसी भी नियम आदि का पालन नहीं करते और केवल अपने हितों को देखकर ही काम करते हैं। क्यों? 8. 1 जनवरी से 31 दिसम्बर की अवधि में सेंसर से स्वीकृत अथवा प्रदर्शित फिल्में शामिल करने के नियम का पालन करने वाली कुछ संस्थाएं हैं; लेकिन उसका भी कड़ाई से पालन होता है या नहीं, पता नहीं? इत्यादि- इत्यादि अनेक प्रश्न हैं।

ऐसे संदेहों और प्रश्नों के ‘रियलिटी शो’ को केवल और केवल राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार और दादासाहेब फालके पुरस्कार अपवाद हैं। 1952 में इन महत्वपूर्ण पुरस्कारों की शुरुआत हुई। उन पुरस्कारों का स्तर और विश्वसनीयता कायम है। इनमें देश की हिंदी व सभी प्रादेशिक भाषाओं की फिल्मों में से सर्वोत्तम फिल्म चुनी जाती है और उसे राष्ट्रपति का स्वर्ण कमल पुरस्कार के रूप में दिया जाता है। पहले वर्ष में ही आचार्य अत्रे निर्देशित ‘श्यामची आई’ नामक भावपूर्ण मराठी फिल्म को यह पुरस्कार मिला था। इसके बाद मराठी फिल्म के लिए यह पुरस्कार पाने के लिए 50 वर्षों की अवधि बीती। 2004 में संदीप सावंत निर्देशित ‘श्वास’ को राष्ट्रपति का स्वर्ण कमल मिला। इस पुरस्कार की प्रतिष्ठा बहुत होने से ‘श्वास’ को मिले इस पुरस्कार से मराठी फिल्मी दुनिया में नवचैतन्य पैदा हुआ। ‘सुखाचा क्षण’ से मराठी फिल्मी दुनिया में नई राहें खोजी जाने लगीं, मराठी फिल्में अधिक बनने लगीं। राष्ट्रीय पुरस्कारों में हर भाषा की सर्वोत्तम फिल्म के लिए पुरस्कार दिया जाता है। इसके अलावा गीतकार, संगीतकार, अन्य तकनीकविदों को भी राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया जाता है। केंद्र सरकार की ओर से दिए जाने वाले इन पुरस्कारों में दादासाहेब फालके प्रतिष्ठित पुरस्कार का भी समावेश है। वह भारतीय फिल्मी दुनिया में कला की सेवा करने वाले मान्यवर को दिया जाता है। इस वर्ष यह पुरस्कार गीतकार गुलजार को दिया गया है।

राष्ट्रीय पुरस्कार व दादासाहेब फालके पुरस्कार इन दो पुरस्कारों की गंभीरता व विशेषता कायम है। इन पुरस्कारों के लिए चयन के बारे में बहुत विवाद नहीं होते। इन पुरस्कारों का वितरण राष्ट्रपति के हाथों होता है, जिससे उसकी प्रतिष्ठा भी बढ़ी है।

फिल्म फेयर पुरस्कार के बारे में काफी समय तक प्रतिष्ठा और लोकप्रियता कायम थी। राष्ट्रीय पुरस्कारों के लिए कला फिल्मों व फिल्म फेयर पुरस्कार के लिए परम्परागत लोकप्रिय फिल्मों का विचार किया जाता है, यह आम धारणा थी। वह उचित भी था। इस वर्ष किसे फिल्म फेयर पुरस्कार मिलेगा इस बारे में हिंदी फिल्मी दुनिया, प्रसार माध्यमों व फिल्मी प्रेमियों में बहुत पहले से चर्चा होती थी और पुरस्कार विजेता का आत्मविश्वास प्रचंड मात्रा में बढ़ता था। इस पुरस्कार के लिए भारी स्पर्धा होती थी। आज भी फिल्म फेयर पुरस्कार अपना ग्लैमर, विशेषता व आकर्षण बनाए हुए है। हिंदी फिल्मी दुनिया आज भी इस पुरस्कार को अपना मानती है। इसीसे इसकी खासियत स्पष्ट होती है।

इसके साथ महाराष्ट्र सरकार द्वारा दिए जाने वाले मराठी फिल्म पुरस्कारों की विश्वसनीयता व विशेषता कायम है। कई लोगों को प्रोत्साहन मिले इसलिए राज्य सरकार ने पुरस्कारों की संख्या भी बढ़ाई है। सर्वोत्तम फिल्म को आर्थिक रूप में पुरस्कार भी दिया जाता है। राज्य सरकार ने चित्रपति वी. शांताराम व राज कपूर के नाम से पुरस्कार आरंभ किए हैं। इससे इन पुरस्कारों के प्रति भी उत्सुकता बढ़ गई है।

इस तरह इन तीन पुरस्कारों की दीर्घ काल से प्रथा चल रही है। इसमें इस दशक में बड़ी मात्रा में नए पुरस्कारों को भी जोड़ा गया है। कुछ संस्थाओं, पत्रिकाओं और चैनलों आदि ने भी पुरस्कारों को जन्म दिया है। उनकी संख्या अल्पावधि में ही बढ़ गई। हिंदी फिल्मों को विदेश की कुछ प्रतिष्ठित संस्थाएं भी पुरस्कार देने लगी हैं। फलस्वरूप इन पुरस्कारों की संख्या तेजी से बढ़ गई है। पुरस्कारों की बढ़ती संख्या के कारण पुरस्कार वितरण समारोह अब सालभर रंग जमाने लगे हैं। इसलिए कभी-कभी किसी कलाकार को निश्चित रूप से किस वर्ष के लिए पुरस्कार दिया गया है यह शायद अब माने नहीं रखता। कभी कभी इसमें अलग प्रकार ही देखने को मिलते हैं। एक जगह पुरस्कार पाने वाले किसी कलाकार को अन्य दस जगह नामांकन तक नहीं मिलता। कुछ फिल्मों या कलाकारों को कई जगह नामांकन मिलता है, लेकिन अंतिम दौर में उसकी पराजय होगी यह भी स्पष्ट होता जाता है। कुछ जगह तो फिल्म वालों की उपस्थिति निश्चित होने पर ही उसे पुरस्कार दिया जाता है, ऐसा लगता है। कुछ सर्वोत्तम फिल्मों, कलाकारों या तंत्रज्ञों को पुरस्कार क्यों दिया गया यह आशंका होती है। इस पर पक्ष-विपक्ष में चर्चा होती है। यह चर्चा जारी ही रहती है तब तक और कोई पुरस्कार समारोह होता है। इन समारोहों में मनोरंजन का भरपूर मसाला होता है। क्योंकि, कुछ चैनलों के पुरस्कारों में ‘एंटरटेनमेंट’ पर विशेष ध्यान दिया जाता है। ऐसे जुगाड़ भी होते हैं कि किसी समारोह में शाहरुख खान का मनोरंजन शो हो तो उस समारोह के प्रक्षेपण के अधिकार अपने चैनल को ही मिलें। ऐसे संदेहों के लिए ‘स्थान’ है। शायद उसमें ‘उल्टी चाल’ भी हो। कोई अभिनेत्री पुरस्कार समारोह में नृत्य पेश करते समय वह किसी चैनल से प्रसारित होगा इसका पता शायद पहले से ही कर लेती होगी। कुल मिलाकर पुरस्कार का महत्व व आवश्यकता दोयम होती जा रही है, इस प्रकार का फिलहाल माहौल है। अर्थात, अब कलाकृति, कलाकार, तंत्रज्ञ आदि के गुणों का पुरस्कारों के बारे में मूल्यांकन होता है या नहीं यह प्रश्न निर्माण हो सकता है। इन पुरस्कारों की भीड़ में राष्ट्रीय पुरस्कार व दादासाहेब फालके पुरस्कार अपनी विशेषताओं के कारण ध्यान आकर्षित करते हैं। अर्थात, पुरस्कारों की परिस्थिति अथवा अस्तित्व के लिए इस तरह के जुगाड़ चलते रहते हैं। फिर भी इस गड़बड़ी में भी कुछ आयोजकों के पुरस्कार अवश्य अपवाद होंगे। उनके पुरस्कार व उसका रंगीन समारोह उचित और सद्हेतु से होता होगा भी। लेकिन, पुरस्कार समारोहों में कुल मिलाकर बदले रंगबिरंगे रूप व संस्कृति में उचित आयोजक व उनके सद्हेतु पुरस्कार दुर्भाग्य से अलग-थलग पड़ गए हैं। उनका अपने अस्तित्व का संघर्ष चलता है। उन्हें हम अपनी शुभेच्छाएं दे दें। लेकिन, पुरस्कारों का खेल इस तरह चल रहा है, यह निश्चित है। पुरस्कारों की कसौटी आदि में न पड़ने के बजाय, पुरस्कारों के इवेंट से मनोरंजन का टेस्टी मसाला एंजॉय करें यही बेहतर है। वैसे भी हिंदी फिल्में और उनकी संस्कृति अर्थात दो घड़ी भरपूर मनोरंजन ही माना जाता है। पुरस्कारों की यह बदली हुई संस्कृति उसके अनुकूल ही है। इसे अपवाद साबित होने वालों की हम अवश्य सराहना करें। इसमें कुछ छोटी संस्थाएं/पत्रिकाएं भी हैं। उनका ईमानदार हेतु कायम रहे और वे भी राष्ट्रीय पुरस्कारों की तरह अपना मार्गक्रमण करते रहे, यही शुभकामनाएं!
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