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गंजों की शिकायत और उन्हें सलाह

गंजों की शिकायत और उन्हें सलाह

by ज्वाला प्रसाद मिश्र
in जून -२०१४, साहित्य
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राहुल गांधी का बचपना उनकी उम्र के अनुपात से बढ़ता ही जा रहा है। असावधानी वश या नातजुर्बा बीमारी से या जोश में जैसे ही वे कहीं मुंह खोलते हैं, किसी न किसी की नाराज कर देते हैं। अब देखिये बिला वजह, बैठे-बिठाए उन्होंने गंजों से अकारण पंगा ले लिया। क्या वे भूल गए कि राजनीति का क्षेत्र गंजों से पटा पड़ा है। निकिता क्रुश्चेव, गांधी, नेहरू, टंडन, बोस, पटेल, आइज़न हावर, मनमोहन सिंह, करुणानिधि यहां तक कि स्वयं राजीव गांधी भी गंजे थे

गंजे सदा से ही चुटकुले बाजों मे पसंदीदा चरित्र रहे हैं, जैसे कि सास, सरदार, वकील आदि। उन पर कई मुहावरे भी प्रचलित हैं यथा, भगवान गंजों को नाखून नहीं देता। समाज के हर वर्ग में गंजों को महत्व दिया गया है; चाहे वह साहित्य हो, सिनेमा हो या राजनीति।

पहले साहित्य को लें। 7-8 दशक पूर्व, जब टी. वी. जैसे मनोरंजन के साधन नहीं थे और राजा-रईस कवियों, कलाकारों का पालन-पोषण करते थे, तब समस्या-पूर्ति का बहुत चलन था। रईसों की बैठकों में, बारातों में, जनवासों में, राजदरबारों में पेशेवर आशुकवियों को एक काव्यात्मक पंक्ति दी जाती थी और उनसे उस पर एक पूरा छंद तत्काल लिखने को कहा जाता था। उत्तर प्रदेश मे एक रईस के चारणनुमा कवि माधौदास थे, जो कि गंजे थे। एक आशुकवि आया तो माधौदास ने उसे समस्यापूर्ति हेतु यह पंक्ति दी- ‘कहु कैसे बजी एक हाथ पै तारी’। आशुकवि ने तुरंत भरी बैठक में माधोदास की सुचिक्कन खोपड़ी पर एक चांटा रसीद किया और समस्या पूर्ति की-

‘माधौ के सीस चटाक दे मारी।
ऐसे बजी एक हाथ पै तारी।’

एक और काव्यात्मक कहानी बचपन में सुनी थी, जिसमें एक गंजा व्यापारी रात्रि में अपने घोड़े को मेख (खूंटी) में बांधकर सो गया। एकाएक डकैतों के आने का अहसास होने पर व्यापारी बदहवासी में घोड़े की पीठ पर बैठ गया और चाबुक फटकारते हुए ऐड़ लगा दी। घोड़ा मेख उखाड़ कर भागा तो वह मेख उछल-उछल कर व्यापारी के सिर पर लगने लगी। कविता में दो पंक्तियां थीं-

‘उछल-उछल कर मेख, झडाके से झड़ती थी।
घुटी-घुटाई साफ, खोपड़ी पर पड़ती थी॥’

बेहद खफ़ा हैं गंजे राहुल की टिप्पणी से। किंतु मैं उन्हें याद दिलाना चाहूंगा कि उनके परनाना पं. मोतीलाल नेहरु ने एक बार किसी अनुष्ठान में साधु-संतों को जिमाया था। एक ढोंगी साधु को जब वे दक्षिणा में सिक्के देने लगे तो उसने कहा, ‘मैं धातु को स्पर्श नहीं करता।’ मोतीलालजी ने उससे पूछा,’ तो अपनी खोपड़ी आपने जूतों से मु़ंडवाई थी।’

पं. द्वारकाप्रसाद मिश्र कांग्रेस के कद्दावर नेता थे। एक दफा उनकी सभा में भगदड़ मच गई और नेतागण व श्रोता अपने जूते-चप्पल छोड़ कर भागे। पं. मिश्र के एक विरोधी ने किसी पत्रिका में उन पर व्यंग्य किया कि महान मिश्र जी अपने जूते छोड़ कर भागे। मिश्र जी पलटवार न करें यह कैसे हो सकता था। सो उन्होंने ‘सारथी’ पत्रिका में लिखा, ‘मैं उनकी याददाश्त की दाद देता हूं, कि उन्होंने मेरे उन जूतों को इतने अरसे बाद भी पहचान लिया जो कभी उनकी खल्वाट खोपड़ी पर पड़े थे।’

एक और रोचक प्रसंग याद आया। चीन ने हमारे क्षेत्र के बड़े भू भाग पर कब्जा कर लिया था। कांग्रेस के ही सांसद श्री महावीर त्यागी पं. नेहरू पर प्रहार कर रहे थे। पंडित जी ने कहा, वह भूमि बर्फीली बंजर है, उस पर घास तक नहीं ऊगती। तो गंजे त्यागीजी ने कहा, ‘मेरी खोपड़ी भी बंजर है तो क्या वह बेकार की चीज़ है?’
फिल्म जगत में भी गंजों को यथेष्ट महत्व दिया गया है। ‘विक्टोरिया नंबर 203’ में एक गंजे अपराधी की राजा (अशोक कुमार) और राणा (प्राण) तारीफ़ करते हैं। ‘अब दिल्ली दूर नहीं’ में एक बच्चा किसी परेशान व्यक्ति से पूछता है, ‘अंकल, दरियागंज कहां है?’ वह व्यक्ति बोलता है, ‘दरिया वो (यमुना नदी) और गंज ये (उसका सिर)।’ एक फिल्म में महमूद का मुंडन किया जा रहा था, तब उसने बड़ा ही हास्योत्पादक गीत गाया था। लेकिन फिल्म ‘बूट पालिश’ में जान चाचा (डेविड) को, जो कि गंजे हैं, जेल में बंद कर दिया जाता है। वहां अनेक गंजे कैदी हैं और जान चाचा गाते हैं कालजयी गीत ‘लपक-झपक तू आ रे बदरवा। सर की खेती सूख रही है, झटपट तू बरसा रे बदरवा।’ राजकुमार, देवानंद गंजे थे, महानायक अमिताभ बच्चन भी गंजे हैं और विग लगाते हैं।

प्रसिद्ध लोगों में सलमान खान, हर्ष भोगले और सौरव गांगुली ने तो केश प्रत्यारोपण करवा लिया है।
तो साहब, यदि गंजे न हों तो हज़ारों केश तेल, क्रीम, शैंपू निर्माताओं, विग बनाने वालों, हेयर ट्रांस्प्लांटेशन करने वालों की रोजी-रोटी कैसे चलेगी, जिनके विज्ञापन हम प्रतिदिन सभी समाचार पत्रों एवं पत्रिकाओं में देखते है। गंजों के कारण ही अनेक उद्योग चल रहे हैं, लोगों को रोजगार मिल रहा है। और आज कल तो सिर मुड़ाना फैशन हो गया है।

अस्तु गंजा होना कोई अपराध नहीं है। इसके लिये शर्मिन्दा होने या हीन भावना से ग्रस्त होने की कोई वजह नहीं है। एक से बढकर एक महान और प्रणम्य गंजे संसार में हो चुके हैं, हैं और होते ही रहेंगे। एक बच्चे का मुंडन हुआ था और अन्य शिशु उसे चिढ़ा रहे थे, तो बच्चे के पिता ने उसे प्यार करते हुए कहा ‘मुड़वा मूड़ सोने का टीका। बाप कहै मोर मुड़वै नीका।’ भव्य ललाट, प्रशस्त मस्तक बुद्धिमान, सहिष्णु, विचारक और धार्मिक होने का द्योतक है। इसीलिये आजकल रजनीकांत तथा आलोकनाथ पर इतने चुटकुलों की वर्षा हो रही है, क्योंकि वे दोनों टकले हैं

तो मार्क्स के नारों की भांति ‘दुनिया के गंजों एक हो जाओ’ या ’तुम्हारे पास खोने के लिये बाल भी नहीं है’, राहुल गांधी की बात को नज़रअंदाज करो और 86 वर्षीय, चुस्त-दुरुस्त गंजे नेता आडवानीजी के नेत्तृत्व में अपनी आवाज़ बुलंद करो, ‘करो सिंहासन खाली कि गंजे आते हैं- आते हैं।’ सभी यशस्वी, कर्मयोगी गंजों को हमारी शुभकामनाएं।
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