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बदनसीब शायर -बहादुरशाह जफ़र

बदनसीब शायर -बहादुरशाह जफ़र

by संगीता जोशी
in जून -२०१४, साहित्य
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न किसी की आंख का नूर हूं न किसी के दिल का करार हूं।
जो किसी के काम न आ सके मैं वो एक मुश्ते-गुबार हूं॥

ये पंक्तियां मुग़ल बादशाह बहादुरशाह जफ़र की हैं। बहादुर शाह जफ़र भारत में अंग्रेजों के शासन से पहले का अंतिम बादशाह था। जफ़र की इतनी अवहेलना की गयी थी कि वे सोचते थे कि उनसे से तो शतरंज का बादशाह अच्छा है। दुर्भाग्य हाथ धोकर उनके पीछे पड़ा था अतः उनकी शायरी भी दुखों से ओतप्रोत, आर्त और करुण थी। उपरोक्त पंक्तियों में उन्होंने अपने निराश जीवन का वर्णन किया है।

वे कहते हैं- मैं किसी को प्रिय नहीं हूं, मुझे देखकर किसी को आनंद नहीं होता। किसी के मन को मैं दिलासा नहीं दे सकता। किसी को सुख नहीं दे सकता। मैं किसी के लिए उपयोगी नहीं हूं। मेरा जीवन मुट्ठी भर धूल के समान है।
जफ़र आगे लिखते हैं –

मेरा रंग रूप बिगड़ गया, मेरा यार मुझसे बिछड़ गया।
जो चमन खिजां से उजड़ गया, मैं उसी की फस्ले-बहार हूं॥

मेरे अपने मुझसे बिछड़ गए हैं। मेरा सारा जीवन ध्वस्त और रंगहीन हो गया है। किसी जमाने में बाग़ में अर्थात लाल किले में आनेवाले बसंत ऋतु की सारी निशानियां मिटनेवाला शिशिर ऋतु आ गया है। मैं वही गुजरा हुआ बसंत हूं।

पए-फ़ातेहा कोई आए क्यों, कोई चार फूल चढ़ाए क्यों।
कोई आके शम्मा जलाए क्यों, मैं वो बेकसी का मज़ार हूं॥

मेरा जीवन तो गुजरे बसंत जैसा ही है, मेरी मौत के बाद मेरी कब्र भी ऐसी ही उदास होगी क्योंकि वो मेरी अर्थात एक गम में डूबे हुए इंसान की कब्र है। वहां पए-फ़ातेहा (मृतात्मा की शांति के लिए पढ़ी जानेवाली आयत) पढ़ने कौन आएगा? वहां दीप जलाने कौन आएगा? फूल चढ़ाने कौन आएगा? क्योंकि –

मैं नहीं हूं नग्मे-जां-फिजां, मुझे सुनके कोई करेगा क्या।
मैं बड़े बिरोग की हूं सदा, मैं बड़े दुखों की पुकार हूं॥

अभी भी मैं कोई ऐसी शायरी नहीं लिख सकता जो लोगों के मन को आनंदित कर सके। तो मेरी कौन सुनेगा? मेरी शायरी, वो दुःख, वो आवाज कौन सुनेगा?

न तो मैं किसी का हबीब हूं न तो मैं किसी का रकीब हूं।
जो बिगड़ गया वो नसीब हूं, जो उजड़ गया वो दयार हूं॥

न तो मैं किसी का प्रेमी हूं और न ही किसी का प्रतिस्पर्धी। मैं वो नसीब हूं जिसे दुर्भाग्य के थपेड़े पड़े हैं। अतः मेरा मन किसी उजड़े हुए शहर के जैसा हो गया है।

अंग्रेजों ने हिन्दुस्तान पर कब्ज़ा कर लिया था। उन्होंने दिल्ली से मुग़लकाल के अंश भी मिटा दिए थे। बादशाह का सिंहासन तो गया ही थी उसे कैद भी कर लिया गया था। ये अत्याचार भी शायद कम ही थे कि मेजर हडसन ने जफ़र के बेटे नौरोज़ का शीश काट कर उसे एक थाल में सजाकर जफ़र को ही उपहार स्वरूप पेश किया था। कितने क्रूर थे अंग्रेज! उनकी इस क्रूरता से सारा भारत हैरान हो गया था तो दिल्ली क्या चीज़ है। इसलिये जफ़र ने लिखा-

लगता नहीं है दिल मेरा उजड़े दयार में
किसकी बनी है आलमे-न पाएदार में

अब मेरा मन इस उजड़े हुए शहर में नहीं लगता। इस नश्वर जगत में किसी का भी अस्तित्व नहीं टिकता तो शाश्वत क्या होगा? यह मान लेने के बाद भी मुझ पर जो बीत रहा है वो अब मैं सहन नहीं कर सकता।

इसमें कोई शक नहीं कि जफ़र का कवि मन तड़प रहा था। जिस लाल किले में ग़ालिब, मोमिन, ज़ौक़ जैसे समकालीन शायरों के साथ जफ़र ने शायरी का आनंद लिया था वहीं उसकी बेड़ियों कि ध्वनियां सुनाई दे रही हैं। इससे भी ज्यादा दुःख यह था कि देश दूसरों के कब्जे में जा रहा था और वह खुली आंखों से यह सब देखने को मजबूर था।

कह दो इन हसरतों से कहीं और जा बेस।
इतनी जगह कहां है दिले-दागदार में॥

ये इच्छाएं, आकांक्षाएं क्यों अभी तक यहां मंडरा रही हैं? कोई इन्हें बता दो कि कहीं और जाकर आसरा ढूंढ लें। दुःख और निराशा से भरे मेरे ह्रदय में इनके लिए जगह कहां होगी?

उम्र-ए-दराज़ मांग के लाये थे चार दिन
दो आरजू में कट, गए दो इंतज़ार में

अल्लाह से मैंने चार दिन की लम्बी उम्र मांगी थी। उसमें से दो दिन अभिलाषा करने में चले गए और दो उन अभिलाषाओं कि पूर्ति होने के इंतज़ार में। इस बात का दुःख है कि मैं अपनी ज़िन्दगी में कुछ नहीं कर पाया।

बुलबुल को पासबां से न सैयाद से गिला
किस्मत में कैद थी लिखी फसले-बहार में

बुलबुल पक्षी के नसीब में बसंत ऋतु में भी कैद ही लिखी थी। फिर बाग़ के रखवाले या शिकारी से शिकायत करके क्या फायदा? जो नसीब में लिखा था वही हुआ।

ज़फर शायद यह भी जानते थे कि किस्मत में और भी कुछ बुरा होना लिखा है। इसलिए उन्होंने लिखा –

कितना है बदनसीब ’ज़फर’, दफ्न के लिए
दो गज़ ज़मीन न मिली कू-ए-यार में।

हाय रे ज़फर तू कितना बदनसीब है! अपनों की गली में अर्थात जहां तेरे अपनों को दफ़न किया गया है वहां तुझे दफ़न करने के लिए दो गज़ ज़मीन भी नहीं मिली। यह तेरा कितना बड़ा दुर्भाग्य है।

वास्तविकता में हुआ भी वही। अंग्रेजों ने ज़फर पर मनचाहे आरोप लगाकर उन्हें दोषी ठहराया और आजन्म कारावास का दण्ड सुनाया। दण्ड भोगने के लिए उन्हें उस ज़माने के ब्रह्मदेश (रंगून) में भेज दिया गया। वहां से उन्हें अंडमान ले जानेवाले थे परंतु रंगून में ही उनकी मृत्यु हो गयी। आजन्म कारावास के दण्ड से उन्हें मृत्यु ने ही मुक्त किया।

अंतिम क्षणों तक ज़फर के मन में देशप्रेम की ज्वाला जलती रही। अंग्रेजों ने जब उन्हें मुसलमान होने की और हिंदुस्तान में बाहर से आने की याद दिलाई तो उन्होंने अंग्रेजों को दमदार जवाब देते हुए कहा कि मैं पहले हिंदी हूं क्योंकि मैं हिंदुस्तान में रहता हूं, मुसलमान बाद में।

एक अंग्रेज जिसे उर्दू आती थी ने ज़फर से कहा-

दमदमे में डैम नहीं अब खैर मानगो जान की
ऐ ज़फर, बस हो चुकी शमशीर हिंदुस्तान की

ज़फर अब मोर्चे बन्धन बंद कर दो और खुद की जान बचाओ। युद्ध की तैयारी भूल जाओ। इस हिंदुस्तान की तलवार में अब डैम नहीं बचा है।

ज़फर इस बात पर चिढ कर कहते हैं-

हिंदियों में बू रहेगी जब तलक ईमान की
तख्ते-लन्दन पर चलेगी तेग हिंदुस्तान की

क्या कहते हो कि हिंदुस्तान कि तलवार में डैम नहीं रहा? जब तक हिंदी लोगों के मन में जाज्ज्वल्य देशनिष्ठा है तब तक हम लन्दन के सिंहासन पर तलवार उठाने में भी संकोच नहीं करेंगे।

देशनिष्ठा की यह विरासत यूं ही आगे बढ़ती रहे यह संदेश इस शेर से मिलता है। देशनिष्ठा सर्वोपरि है। जातपात, धर्म सब बाद में। इक़बाल की शायरी में भी यही निष्ठा देखने को मिलती है। उनका लिखा गीत आज भी लोगों की जुबान पर है-

सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा
हम बुलबुलें हैं इसकी ये गुलिस्तां हमारा
हिंदी हैं हम वतन है हिंदोस्ता हमारा

ज़फर के कुछ और शेर देखिये-

खाक का पुतला है इंसा ऐ ज़फर उसके लिए
सरकशी अच्छी नहीं ख़ाक़सारी चाहिए

मनुष्य क्या है? केवल राख या मिट्टी का पुतला ही है। मानव को हमेशा यह बात ध्यान में रखनी चाहिए। बेकार में गुस्सा किसी काम का नहीं होता। स्वभाव में नम्रता होनी ही चाहिए। समाज में उठते बैठते समय यह बात हमेशा ध्यान में रखनी चाहिए।

न थी हाल की जब हमें अपने खबर
रहे देखते औरों के ऐब-ओ-हुनर
पड़ी अपनी बुराइयों पर नज़र
तो निगाह में कोई बुरा न

जब तक हमें यह मालूम नहीं था कि हम कैसे हैं तब तक हमें दूसरों के दोष दिखाई देते थे। फिर जब हमने आत्मपरीक्षण किया तो हमारे अंदर के ऐब हमें दिखाई देने लगे। फिर दुनिया की ओर देखने का हमारा दृष्टिकोण ही बदल गया। दुनिया में कोई भी बुरा नहीं होता। सभी में कुछ गुणदोष होते ही हैं। ये हमने आत्मपरीक्षण करने के बाद ही जाना। ज़फर की शायरी में देशप्रेम, सामाजिक परिस्थिति, तत्वज्ञान इत्यादि सभी विषय मिलते हैं। उर्दू शायरी के स्थायी भाव ’मुहब्बत’ को क्या ज़फर ने अपनी शायरी में जगह नहीं दी? ऐसा कैसे हो सकता है। परंतु यह सही है तात्कालिक स्थिति को देखते हुए वह भाव बहुत कम होगा। उनकी बहुत सी रचनाएं सन 1857 की क्रांति में नष्ट हो गयी थीं।

’ज़फ़र’ क्या पूछता है राह मुझसे उसके मिलने की
इरादा हो अगर तेरा तो हर जानिब से रास्ता है

प्रेमिका से मिलने का रास्ता मुझसे क्या पूछ रहे हो? अगर तुम्हारा इरादा पक्का है तो तुम्हें कहीं से भी रास्ता मिल जायेगा। उससे मिलने का एक जरिया पत्र भी था।पर पत्र लिखने का भी कोई फायदा नहीं था क्योंकि

लिख के भेजे उनको हम क्या ख़ाक ख़त?
बिन पढ़े कर डालते हैं चक ख़त

उसे क्या पत्र लिखकर भेजूं? वह तो बिना पढ़े ही उसे फाड़ देती है।
ज़फर कट्टर सूफी थे। अर्थात उनका भगवन पर विश्वास था। हिन्दू और इस्लाम दोनों धर्मों के तत्व समान हैं इस पर भी उनका विश्वास था। बचपन से ही प्रतिकूल परिस्थितियों में जीवन जीने के कारण उनकी प्रतिभा योग्य रूप से सामने नहीं आ सकी। फिर भी उनकी शायरी में संवेदनशील मन को स्पर्श करने की ताक़त है। वैसे भी वह एक ऐसे सम्राट की शायरी है जिसे अगर नसीब का साथ मिला होता तो उसने इतिहास बदल दिया होता और साहित्य को आगे बढ़ाया होता।
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