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नवाब मिर्जा खान “दाग”

नवाब मिर्जा खान “दाग”

by सुधीर जोशी
in जुलाई -२०१४, साहित्य
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तदबीर से किस्मत की बुराई नहीं जाती
बिग़डी हुई तकदीर बनाई नहीं जाती

हम चाहे कितनी भी कोशिश कर लें, कितने भी प्रयोग कर लें परंतु एक बार बिग़डी हुई किस्मत को फिर से संवारा नहीं जा सकता। नसीब में जो लिखा है उसे भुगतना ही प़डता है। न जाने क्यों ऐसा लगता है कि जब नसीब दुखों की पराकाष्ठा करता है तभी शायरी में निखार आता है। जब हम उर्दू शायरी का फला-फूला वृक्ष देखते हैं और शायरों के जीवन पर गौर करते हैं तो शायद सभी का भी मत यही होगा। अनेक शायरों का जीवन इतना दुखमय था कि उसका वृत्तांत पढ़कर हम भी दुखी हो जाएं, फिर न जाने उन लोगों ने कैसे जीवन बिताया होगा। “दाग” उनमें से ही एक थे। उनके पिता का नाम था शमशुद्दीन खां। शमशुद्दीन खां ने अंग्रेजों के अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाई और तत्कालीन अंग्रेज अधिकारी से बदला लेने की योजना बनाई थी। वह योजना विफल हो गई तथा शमशुद्दीन खां को फांसी की सजा सुनाई गई। जब इसे अमल में लाया गया तब नवाब मिर्जा खां केवल चार वर्ष के थे। उनकी मां वजीर बेगम अंग्रेजों के डर से भूमिगत हो गई थीं और मिर्जा रामपुर में अपनी मौसी के यहां रहे। कुछ साल तक भटकने के बाद वजीर बेगम ने मिर्जा फखरुद्दीन से निकाह किया। फखरुद्दीन बहादुरशाह जफर के वंशज थे। वे दिल्ली के लाल किले में रहते थे। नवाब मिर्जा को भी उनकी मां लाल किले में ले गईं। “दाग”वहां अपने सौतेले पिता के साथ रहने लगे। वे दस-बारह साल बहुत अच्छे बीते। उर्दू-फारसी की शिक्षा, तलवारबाजी, घु़डसवारी इत्यादि का प्रशिक्षण लिया। उनके 22-24 साल तक की यात्रा अच्छी रही। तब तक “दाग” शायरी करने लगे थे। उस समय गालिब-मोमिन जैसे स्थापित और बुजुर्ग शायरों ने भी “दाग” की प्रशंसा की थी। पर कहते हैं ना कि जब सुख घर के अंदर खेलता रहता है तो दुख आंगन में ही ख़डा अंदर आने का इंतजार कर रहा होता है। बहादुरशाह जफर की युवा पत्नी ने फखरुद्दीन की मृत्यु के बाद “दाग” को उनकी मां के साथ लालकिले से बाहर निकाल दिया। इस समय 1857 की क्रांति चरम पर थी। “दाग” की शायरी इस सारे बवंडर में नष्ट हो गई। इस क्रांति में कई घर उज़ड चुके थे। कई लोग बेघर हो गए थे।

जमीं के हाल पे अब आसमान रोता है।
हरेक फिराक-मकीं में मकान रोता है।

जमीन पर रहने वालों की दशा देखकर मानों आसमान का भगवान भी रो रहा है। सूने प़डे मकान भी रहने वालों के वियोग में आंसू बहा रहे हैं। इस प्रकार का वर्णन “दाग” ने कर रखा है।

‘दाग’ का नसीब कुछ ऐसा था कि उसे अल्लामा इक्बाल, जिगर मोरादाबादी जैसे शायर शिष्य के रूप में मिले और जौक जैसे उस्ताद भी।

‘दाग’ की गजलें आज भी लोकप्रिय हैं, क्योंकि कई मशहूर गजल गायकों ने उन्हें गाया है और अजरामर बना दिया है। मो. रफी की गैर फिल्मी गजलों की गिनी-चुनी रिकार्ड ही बनी थी। उसमें एक ‘दाग’ की भी गजल सुनने को मिलती थी। उस आवाज और उन शब्दों ने आज भी मन में एक कोना बना रखा है।

गजब किया तेरे वादे पे एतबार किया।
तमाम रात कयामत का इंतजार किया।

कैसे पागल थे हम कि तुम्हारे आश्वासन पर भरोसा कर लिया। तुम आओगी ये सोचकर रातभर तुम्हारी राह देखते रहे। खुद से ही झग़डते रहे। और अंत तक तुम नहीं आई।

उर्दू शेरों का शब्दश: अर्थ तो सुंदर होता है, साथ भी उसके भावों में छिपा अर्थ भी अगर समझ लिया जाए तो सुनने वालों को अधिक आनंद देता है। ‘गजब किया’ इसका शाब्दिक अर्थ या शब्दकोश का अर्थ है आफत या संकट मोल लेना। तुझ पर भरोसा करके हमने संकट मोल ले लिया है और तुमने तो कमाल ही कर दिया। वादा करके भी तुम नहीं आई। दूसरी पंक्ति में ‘कयामत का इंतजार किया’ से भी दो भिन्न अर्थ निकलते हैं। एक यह अर्थ निकलता है कि उसकी राह देखने का समय इतना अधिक है कि तब तक तो शायद प्रलय (कयामत)आ जाए। दूसरा अर्थ ‘कयामत’ रूपक अलंकार भी हो सकता है उसकी प्रेमिका के लिए। उसकी प्रेमिका इतनी सुंदर है कि उसे देखते ही कोई भी बेहोश हो जाए। हो सकता है देखने वाले की ध़डकनें ही रुक जाएं और उसकी मृत्यु हो जाए। अत: प्रेमिका के लिए कयामत शब्द का प्रयोग किया है। शायरी में इस प्रकार के दो अर्थ होते हैं। यही शायरी की खासियत भी है। हालांकि सभी शायरों के शेर ऐसे हों ही यह आवश्यक नहीं है।

हम ऐसे महवे-नजास न थे जो होश आता
मगर तुम्हारे तगाफुल ने होशियार किया

किसी सुंदर दृश्य में खो जाना, मगन हो जाना हमारे स्वभाव में नहीं है। हम बेहोश ही नहीं हैं तो होश आने की क्या बात है। लेकिन तुमने जिस तरह से मेरी उपेक्षा की है उससे मैं होश में आ गया हूं। इसमें छिपा अर्थ यह है कि बेहोश होने के लिए होश में रहना जरूरी है। शायर कहना चाहता कि वह अपनी प्रेमिका के प्रेम में सुध-बुध खो चुका था। पर जिस तरह से उसकी उपेक्षा की गई उससे वह फिर होश में आ गया है।

दिल ले के मुफ्त कहते हैं कुछ काम का नहीं
उल्टी शिकायतें हुईं एहसान तो गया।

उसकी प्रेमिका उसकी केवल उपेक्षा करके नहीं रुकी। वह निष्ठुर भी हो गई। शायर ने उसे अपना दिल दिया। प्रेमिका ने उसका दिल कुछ ऐसे लिया जैसे कोई वस्तु लेता है (हम कल्पना करें की हाथ में लेकर उसे घुमाफिरा कर देखा) और कहा कि ये मेरे किसी काम का नहीं है। अर्थात शायर ने ‘दिल’ दिया इस बात का उपकार मानना तो दूर उसने ऐसी निरर्थक वस्तु देने के लिए शिकायत भी की। उसने वह दिल प्रेम करने लायक नहीं समझा।

प्रेमिका भले ही कितनी भी निष्ठुर हो जाए पर कहीं शायर (प्रेमी) प्रेम करना कम करता है भला? वह तो कोशिश करता ही रहता है। उसे उपेक्षा से भी कोई फरक नहीं प़डता।

न समझा उम्र गुज़री उस बुते-खुदसर को समझाते
पिघलकर मोम हो जाता अगर पत्थर को समझाते।

खुद की सुंदरता पर घमंड करने वाली मेरी प्रेमिका को मैं क्या समझांऊ? मेरे प्यार का विश्वास दिलाते-दिलाते मेरी उम्र ढलती जा रही है। मेरे सारे प्रयास विफल हो रहे हैं। अब तक अगर मैंने किसी पत्थर को समझाया होता तो वह भी पिघलकर मोम हो जाता। लेकिन यह मेरी प्रेमिका है कि इसका दिल तो पिघलता ही नहीं। यह मेरी और ध्यान ही नहीं देती। फिर ‘दाग’ उसे सीधे शब्दों में सुनाते हैं-

तू न कर नख़वते-शबाब बहुत
हमने देखे हैं इंकलाब बहुत

तुम अपनी सुंदरता पर इतना गर्व, इतना अहंकार, मत करो क्योंकि हमने भी कई बार ‘परिवर्तन’ होते हुए देखा है।
जरा गौर करें तो यह शेर केवल किसी सुंदर नवयौवना पर ही लागू नहीं होता। अगर शेर की गहराई समझी जाए तो ध्यान में आता है कि ‘दाग’ ने इस शेर के द्वारा हर व्यक्ति को सावधान किया है। युवा जोश में लोग घमंड लिए घूमते हैं। परंतु परिस्थितियां बदलती रहती हैं। परिवर्तन होते रहते हैं। युवावस्था में अपने माता-पिता को नकारने वाले, उन्हें तकलीफ पहुंचाने वाले भी कुछ समय के बाद वृद्ध होते ही हैं। यहां इंकलाब शब्द का अर्थ क्रांति अर्थात परिवर्तन के रूप में लेना होगा। उर्दू शेरों की खासियत एक बार फिर सामने आई। एक छोटी गजल के कुछ शेर देखते हैं।

सबक ऐसा पढ़ा दिया तूने
दिल से सबकुछ भुला दिया तूने

‘दाग’ कहते हैं, तुमने मुझे अच्छा सबक सिखाया। ऐसा सबक जिससे मैं अपने मन की सारी बातें भूल जाऊं।
यह शेर किसे ध्यान में रखकर कहा गया होगा? गौर से पढ़ें तो लगेगा कि जिंदगी, प्रेमिका या ईश्वर को ध्यान में रखकर कहा गया होगा। तीनों तरह से विचार किया जाय तो विभिन्न अर्थों के अलग-अलग रूप उससे उत्पन्न होते हैं।

लाख देने का एक देना है
दिले-बेमुद्दआ दिया तूने

मुझे ऐसा लगता है कि यह शेर ईश्वर के लिए ही कहा गया है। शायर कहता है तूने मुझे उपहार स्वरूप जो यह इच्छामुक्त हृदय दिया है वह लाखों में एक है। इच्छा अर्थात ‘काम’। मनुष्य के छ : शत्रुओं में से सबसे ब़डा शत्रु। (काम, क्रोध,…… आदि) इन इच्छाओं के कारण ही मनुष्य इस नश्वर दुनिया में फंसा रहता है। बार-बार जन्म लेता रहता है। इच्छारहित होने के लिए साधना करनी प़डती है। इसलिए यह दान लाखों में एक है।

जिस कदर मैंने तुझसे ख्वाहिश की
उससे मुझ को सिवा दिया तूने।

मैंने तुझसे जो अपेक्षा की उससे कुछ ज्यादा ही तूने मुझे दिया है।

‘दाग’ को कौन देने वाला है
जो दिया ऐ खुदा दिया तूने

‘दाग’ को जो कुछ मिला, जो कुछ दिया वह तूने ही दिया है। हे भगवान! तुम्हारे अलावा देने वाला और है ही कौन? इतना सहज, सरल और सीधा-सादा अर्थ वाला शेर भी ‘दाग’ लिखते हैं। इस शेर में तो उन्होंने सीधे ईश्वर को ही संबोधित किया है। अत: शायर का उद्देश्य स्पष्ट है। पहली पंक्ति का सूक्ष्म अर्थ समझने के बाद तो यह शेर और अधिक अच्छा लगता है। इस दुनिया मे देने वाला कौन है? जो देता है उसे परमेश्वर ने ही इतना दिना होता है कि वह औरों को दे सके। केवल इतना ही नहीं उसे दूसरों को देने की बुद्धि भी ईश्वर ही देता है। किसी के भी पास अपना कुछ नहीं होता। यह जन्म, यह जीवन, यह शरीर सभी कुछ उसी ने दिया है। देखिए यह अर्थ जीवन की कितनी ब़डी सीख है।

दिल्ली में जीवन उध्वस्त होने के बाद ‘दाग’ पुन: रामपुर वापस आ गए। परंतु अब दुख उनका पीछा नहीं छो़ड रहे थे। वे एक नर्तकी से प्रेम करते थे, जिसका नाम था हिजाब। ‘दाग’ उसकी सुंदरता पर फिदा थे पर वह एक दौलतमंद पर फिदा थी। ‘दाग’ लिखते हैं-

रंज की जब गुफ्तगू होने लगी।
आप से तुम, तुम से तू होने लगी।

जब दुख से पहचान होती है, उससे संभाषण होने लगता है तो वह आपका पीछा नहीं छो़डता। उसकी और हमारी नजदीकियां इतनी बढ़ जाती हैं कि वह पहले तो हमसे आदर से बात करता है, परंतु जब करीब आता जाता है तो आदर कम होता जाता है। पहले वह आप कहता है, फिर तुम और उसके बाद सिर्फ तू कहता है। जितनी उसकी नजदीकियां बढ़ती हैं उतना अधिक हम दुखी होते जाते हैं।

मेरी रुसवाई की नौबत आ गई
उनकी शोहरत कूबकू होने लगी

एक ओर मेरी बदनामी हो रही है, मेरा अपमान हो रहा है और दूसरी और उनकी प्रतिष्ठा हर तरफ फैल रही है।
गजलों के शेर विविध अर्थों के होते हैं। हर शेर का मूड भी अलग-अलग होता है।

अब के मिल के देखिए क्या रंग हो
फिर हमारी जुस्तजू होने लगी

वे फिर हमें ढूढ़ने लगे हैं। प्रेमिका फिर से ढूंढ़ने लगी है। देखते हैं फिर एक बार उससे मिलकर क्या नया रंग देखने को मिलता है।

‘दाग’ इतराए हुए फिरते है आज
शायद उनकी आबरू होने लगी।

अरे वा! ‘दाग’ आज ब़डी शान से घूम रहे हैं? क्या हुआ ऐसा? शायद उसकी प्रतिष्ठा में बढ़ोत्तरी हुई है। मेंहदी हसन, आबिदा परवीन, मल्लिका पुखराज गुलाम अली इत्यादि गायकों ने ‘दाग’ की गजलें गाईं। हालांकि काव्य के क्षेत्र में उनकी प्रतिष्ठा पहले ही सिद्ध हो चुकी थी

अपनी आयु के 76 बरस गुजार कर ‘दाग’ सन 1905 में हैदराबाद में चिरनिद्रा में लीन हो गए, परंतु उनकी शायरी आज भी उनके चाहने वालों के मन में जिंदा है।

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