न आंख दिखाकर न आंख झुकाकर बात करने वाली विदेश नीति

अपने शपथ ग्रहण समारोह में नरेंद्र मोदी ने दक्षिण एशिया क्षेत्रीय सहयोग संगठन (सार्क) के शासनाध्यक्षों को बुलाकर एक सराहनीय कूटनीतिक पहल की है। अब तक विदेश नीति का मतलब अमेरिका के साथ संबंध माना जाता था। इस अवधारणा को तोड़ते हुए सार्क के सभी सदस्य देशों को समुचित प्राथमिकता देना हमारी विदेश नीति में एक नए अध्याय की शुरुआत है।
वैसे मोदी की इस पहल का थोड़ा बहुत विरोध भी हुआ। भाजपा की सहयोगी पार्टी शिवसेना ने शपथ ग्रहण समारोह में शरीफ के निमंत्रण पर नाराजगी जताई थी। इसी तरह श्रीलंका के राष्ट्रपति महिंद्रा राजपक्षे को आमंत्रित किए जाने का भी विरोध हुआ। एनडीए में शामिल एमडीएमके और पीएमके सहित तमिलनाडु के द्रमुक और अन्ना द्रमुख ने राजपक्षे को बुलाए जाने पर सख्त एतराज जताया। इनकी शिकायत थी कि राजपक्षे ने अपने देश के तमिलों का हक मार रखा है। इस राजनीति की आंच श्रीलंका तक भी पहुंची। राजपक्षे ने जब तमिल बहुल उत्तरी प्रांत के मुख्यमंत्री को शपथ ग्रहण समारोह में चलने को कहा तो उन्होंने साफ मना कर दिया। यह बात बहुत साफ है कि सार्क नेताओं को शपथ ग्रहण समारोह में आने का निमंत्रण देना विश्व में भारतीय लोकतंत्र की शक्ति का जश्न मनाना है। उसे देशोें के बीच द्विपक्षीय मुद्दे के चश्मे से कतई नहीं देखा जाना चाहिए। इसके जरिए भारत ने पड़ोसी देशों को यह संदेश देने की कोशिश की है कि वह उन्हें साथ लेकर चलना चाहता है। भारत किसी भी पड़ोसी देश से न आंख दिखाकर बात करना चाहता है और न आंख झुकाकर।

हालांकि एक जैसे निमंत्रण सभी सार्क देशों के प्रमुखों को भेजे गए थे, लेकिन हर किसी की नजर भारत और पाकिस्तान के प्रधानमंत्रियों की मुलाकात पर लगी थी। किसी भी भारतीय प्रधानमंत्री के लिए पाकिस्तान से रिश्ते यक्ष प्रश्न की तरह होते हैं, क्योंकि वह देश भारत के खिलाफ अपना आतंकी रवैया बंद नहीं कर पाता और भारत बंदूकों के साए में बात करने को तैयार नहीं हो सकता। इसलिए पाकिस्तान के साथ रिश्ते किस रास्ते आगे बढ़ाए जाएंगे इस पर पूरी दुनिया की निगाहें रहती हैं। तीन दिनों की ऊहापोह की स्थिति के बाद आखिरकार नवाज शरीफ ने मोदी की मेहमानवाजी कबूल कर ली। देश विभाजन के बाद यह पहला मौका था जब इन दोनों देशों के किसी के प्रधानमंत्री ने दूसरे देश के प्रधानमंत्री पद के शपथ ग्रहण समारोह में हिस्सा लिया। नवाज शरीफ ने रिश्तों की नई पारी की शुरुआत यह कहकर की कि यह एक बड़ा मौका है, जहां से हम प्रधानमंत्री वाजपेयी द्वारा 1999 तक पहुंचाई गई स्थितियों में आगे बढ़कर एक नया अध्याय शुरू कर सकते हैं।

पहली बार ऐसा हुआ कि पाकिस्तान का कोई नेता भारत आया और उसने जोरशोर से कश्मीर का राग नहीं अलापा। भारत ने नवाज शरीफ के भारत दौरे की जमीन इस तरह तैयार की थी कि कश्मीरी हुर्रियत नेताओं से नवाज शरीफ से मिलने की गुंजाइश न बने। ज्ञातव्य है कि नवाज शरीफ ने अपना पिछला भारत दौरा राजीव गांधी की अंत्येष्टि के दौरान किया था और उस वक्त उन्होंने हुर्रियत नेताओं को अपने उच्चायोग में बुलाकर उनसे मुलाकात की थी।

प्रधानमंत्री मोदी से बातचीत के दौरान नवाज शरीफ ने जम्मू-कश्मीर का मामूली जिक्र किया, जबकि उन्हें आतंकवाद पर भारत की लंबी शिकायतें सुननी पड़ीं। नरेंद्र मोदी से बातचीत के दौरान नवाज शरीफ ने मोदी के सख्त रवैए के बावजूद काफी नरम जवाब दिया। इस तरह मोदी और नवाज शरीफ की बातचीत के बाद 26 नवंबर 2008 से दोनों देशों के बीच रिश्तों पर जमी बर्फ में कुछ दरारें देखी जा सकती हैं तथा बर्फ पिघलाने वाली बातचीत के लिए दोनोें देशों के विदेश सचिवों को ड्यूटी पर लगा दिया गया है।

एक बिजनेसमैन होने के नाते नवाज शरीफ को भलीभांति पता है कि रिश्ते सामान्य होने के क्या मायने हैं। भारत से रिश्ते बेहतर होंगे तो पाकिस्तान के आर्थिक हालात बेहतर होंगे। भारत के उद्योगपति पाकिस्तान में निवेश के लिए जाएंगे तो दूसरे देशों के निवेशक भी पाकिस्तान जाने का साहस कर सकेंगे। आपसी कारोबार दोनों देशों के लिए फायदेमंद रहेगा। जहां तक मोस्ट फेवर्ड नेशन का मुद्दा है तो इसे अब नए नाम नॉन डिस्क्रिमिनेटरी मार्केट एक्सेस के जरिए भारत को मुहैया कराया जा सकता है।

सभी पाकिस्तानी जानते हैं कि उनके देश की अर्थव्यवस्था विदेशी अनुदानों पर चलती है, जो कि उसे आंतकवादी तत्वों से लड़ने के नाम पर मिलती है। इस अनुदान का एक बड़ा हिस्सा पाक सेना को भी जाता है। पाक सेना अपने हित और अस्तित्व को बचाने के लिए आतंकवादी गुटों को सक्रिय रखना चाहती है। मोदी-शरीफ बातचीत को हम इस परिप्रेक्ष्क मे देखें तो यह अनुमान लगाया जा सकता है कि पाक सेना भारत-पाक बातचीत को एक सीमा तक ही बढ़ने देगी। अतीत में शरीफ ने जब भारत के साथ दोस्ती की खातिर कदम बढ़ाया तो पाक सेना ने उन्हें सत्ता से बेदखाल कर दिया। इसलिए इस बार भारत आने से पहले उन्होंने अपने सेना प्रमुख रहील शरीफ से मंजूरी ली। पाकिस्तान की आर्मी ने भारी राजनीतिक दबाव में नवाज के भारत दौरे को मंजूरी दी। इसके लिए नवाज शरीफ को आर्मी की खुशामद भी करनी पड़ी। नवाज के भाई और पंजाब के मुख्यमंत्री शाहबाज शरीफ ने पालक के आर्मी चीफ रहील शरीफ से लाहौर मे आर्मी के गेस्ट हाऊस में जाकर मुलाकात की। आधे घंटे तक उन्होंने नवाज को भारत जाने की जरूरत समझाई, तब जाकर आर्मी चीफ ने इस दौरे को अपनी सहमति दी। जिस तरह नवाज शरीफ को अपने इस दौरे के लिए आर्मी चीफ को मनाना पड़ा है उससे उनकी सीमाएं और मजबूरियों उजागर होती हैं।

पाकिस्तान में जनतांत्रिक सरकार होने के बावजूद वहां कि कड़वी सचाई यह है कि भारत संबंधी विदेश और रक्षा नीति पर पाक सेना का विटो रहता है। अब दारोमदार काफी हद तक पाक सेना पर है वह आतंकवाद के मसले पर कैसा रुख अख्तियार करती है। भारत ने तो अपना रवैया साफ कर दिया है कि बम और बंदूक की आवाज के बीच बातचीत की आवाज सुनाई नहीं देती है। आतंकवाद के मसले पर पाकिस्तान की जनतांत्रिक सरकार को पहले अपनी सेना के साथ बैठकर दो टूक बात करनी होगी। पाकिस्तान के हुक्मरानों की यह बात ध्यान रखनी चाहिए कि पाक के लिए जितना बड़ा खतरा तालिबान है, उससे बड़ा कोई खतरा बाहर से नहीं है। मोदी नवाज शरीफ मुलाकात के दौरान भारत की ओर से आतंकवाद और मुंबई पर आंतकी हमले का मुद्दा उठाया गया। 26/11 के मुंबई पर हुए आतंकी हमले के कई आरोपी पाकिस्तान में हैं। इस हमले में सैकड़ों निर्दोष जाने गई थीं। इस हमले के जख्म भारतीयों के दिलो-दिमाग पर आज भी बने हुए हैं। इस प्रकरण में दोषी और पाक में बैठे आतंकियों को सजा दिलवाने में पाक को समुचित पहल करनी ही होगी।

मोदी-नवाज बैठक के दो दिन पहले अफगानिस्तान के हेरात स्थित भारतीय वाणिज्य दूतावास पर लश्कर ए तैयबा का हमला निश्चित तौर पर पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई के ही इशारे पर करवाया गया था। आईएसआई की कमान पाक सेना प्रमुख के हाथों में होती है। इसलिए हेरात हमले की पीछे मोदी-नवाज बैठक में विघ्न डालने का उनका इरादा बिल्कुल साफ था।

नवाज शरीफ के विदेश और रक्षा नीति के सलाहकार सरताज अजीज ने जिस तरह पाकिस्तान लौटकर मोदी के साथ नवाज की बैठक को कामयाब बताने की कोशिश की है, उससे दोनों देशों के राष्ट्राध्यक्षों की बातचीत का सिलसिला एक मुकाम तक पहुंचाने की उम्मीद बनती है। ऐसा लगता है कि नवाज इस बार गंभीरता से आगे बढ़ना चाहते हैं। लेकिन पहले उन्हें अपने मुल्क में समुचित माहौल बनाना होगा। इस दिशा मेें भारत की ओर से एक अच्छी पहल की जा चुकी है अब गेंद पाकिस्तान के पाले में है।

पाकिस्तान द्वारा 151 भारतीय मछुआरों की रिहाई किए जाने को एक सकारात्मक घटना माना जा सकता है। इसी तरह श्रीलंका के राष्ट्रपति महिंद्रा राजपक्षे ने भी श्रीलंका की जेलों में बंद सभी भारतीय मछुआरों को रिहा करने के आदेश दिए हैं।
अगले छह महीनों के दौरान नरेंद्र मोदी अंतरराष्ट्रीय रंगमंच पर कैसा किरदार निभाते हैं, बदलते शक्ति समीकरण में भारत की हैसियत इसी पर निर्भर होगी। जुलाई के मध्य में प्रधानमंत्री को ब्रिक्स शिखर बैठक की भागीदारी के लिए ब्राजील के शहर फोर्तोलेजा शहर जाना होगा। ब्रिक्स की बैठक में नरेंद्र मोदी को पहली बार महाशक्तियों के साथ मिलने का मौका मिलेगा। यहां उनकी मुलाकात और नेताओं के अलावा रूसी राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन और चीनी राष्ट्रपति शी चिन फिंग से होगी। मोदी के कूटनीतिक कौशल की यह पहली परीक्षा होगी। इस दौरान उन्हें अंतरराष्ट्रीय मीडिया के सवालों के जवाब देने होंगे और दक्षिण चीन सागर तथा यूक्रेन-रूस टकराव जैसे ज्वलंत मसलों पर भारत की राय समझानी होगी। अमेरिकी राष्ट्रपति ने उन्हें अमेरिका यात्रा का निमंत्रण दिया है, जिसे मोदी ने स्वीकार कर लिया है। फिलहाल चीन से लेकर रूस, अमेरिका और यूरोपीय संघ तक तमाम बड़ी आर्थिक ताकतें मोदी के साथ रिश्तों में मिठास घोलने की कोशिश करेंगी ताकि उन्हें भारत के विशाल उपभोक्ता बाजारोें तक पहुंच हासिल हो। अब यह मोदी के कूटनीतिक कौशल पर निर्भर करेगा कि वे कैसे इस परिस्थिति का इस्तेमाल भारत के अधिकतम हित के लिए करते हैं।

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