सिंधी समाज के प्रमुख संत

सम्पूर्ण सृष्टि के रचयिता परम पिता परमात्मा अपनी सर्वश्रेष्ठ कृति मानव को नर से नारायण बनाने के लिए, श्रेष्ठ मुक्तिदायी मार्ग पर चलाने के लिए मार्गदर्शक के रूप में संतों/महात्माओं को इस धरती पर भेजते हैं। ये पूज्य संत प्रभु संदेश के वाहक हैं। वे परमात्मा के देवदूत हैं। प्रभु की रोशन मशालें हैं जिनके प्रकाश में मनुष्य सत्य के मार्ग पर चलकर अपने परम लक्ष्य को, मोक्ष को प्राप्त कर सकता है। यह सत्य है कि संत/महात्मा किसी एक समुदाय के नहीं होते। वे तो सम्पूर्ण मानव जाति; यहां तक कि चर-अचर सम्पूर्ण विश्व के होते हैं। फिर भी भाषा, स्थल, सरलता आदि की दृष्टि से कुछ समुदाय में उनकी मान्यता अधिक होती है। इसी कारण उन्हें उस समुदाय विशेष से जोड़कर देखा जाता है।

हर समाज में अनेक श्रेष्ठ संत-महात्मा हुए हैं जैसे कि सूरदास, तुलसीदास, ज्ञानदेव, तुकाराम, समर्थ रामदास, रामकृष्ण परमहंस आदि। उन्होंने स्वयं तो परमात्मा का साक्षात्कार किया ही, जन-मानस को भी उसी मार्ग पर ले गए जो सब से अधिक महत्वपूर्ण बात है। इसी प्रकार सिंधी समाज में भी ऐसे महान संत हुए। उन्होंने भी सम्पूर्ण मानव जाति के कल्याण के लिए कार्य किया। जनमानस को आत्मा और परमात्मा का साक्षात्कार कराया। सिंधी समाज में ऐसे अनेक संत हुए हैं जिनके आगे श्रद्धा से स्वयं सिर झुक जाता है। सभी संतों के बारे में लिखें तो कई ग्रंथ रचने पड़ेंगे। यहां केवल कुछ प्रमुख संतों की संक्षिप्त जानकारी दी जा रही है।

वेदांती संत एवं कवि ‘सामी’

सिंधु नदी का तट एवं सिंध भूमि वेदांत एवं सनातन धर्म की भूमि मानी जाती है। वेद सृष्टि के संपूर्ण ज्ञान के मूल माने जाते हैं। उसी वेद ज्ञान से ही सनातन धर्म की स्थापना हुई। सिंध भूमि पर सब से पहले वेद मंत्रों का स्वर गूंजा। वेदों की इस वाणी को सिंधी समाज को उनकी ही मातृभाषा सिंधी में सुनाने वाला संत कवि था ‘सामी।’ उनका जन्म सिंध के शिकारपुर में वर्ष 1743 में हुआ। ‘सामी’ का मूल नाम भाई बचेलाल चैनराइ बचोमल लुब्ड था। बचपन से ही चैनराइ का झुकाव आध्यात्मिकता की ओर था। उनके गुरु सामी मेघराज थे। गुरु के सानिध्य में उन्होंने संस्कृत में महारत हासिल की। वेदों, उपनिषदों, गीता, रामायण, भागवत आदि ग्रंथों का गहरा अध्ययन किया। ‘सामी’ वेदों का यह कल्याणकारी ज्ञान सामान्य सिंधी समाज तक पहुंचाना चाहते थे। लेकिन संस्कृत सभी नहीं जानते थे। इसलिए ‘सामी’ वेद-ज्ञान को जनसाधारण की भाषा सिंधी में देना चाहते थे। अतः वेद-ज्ञान के हजारों श्लोकों को उन्होंने सिंधी में रचा और इस ज्ञान को जनसाधारण तक पहुुंचाया। उनका आध्यात्मिक ज्ञान असाधारण था। वे मानते थे कि सभी क्रियाशील शरीरों में एक ऐसा तत्व है जो पंचतत्वों के शरीर को क्रियाशील रखता है। वह तत्व है आत्मा। वह निकल जाने से शरीर निष्क्रिय हो जाता है। सब में आत्मा समान रूप से है; यह समझ में आने पर समानता के भाव जागृत होते हैं। राग, द्वेष, मोह सब मिट जाते हैं। ‘सामी’कहते हैं-

बिन आत्मज्ञान, ममता ना मिटे मन की
चाहे सब साधन कटें, पढ़ें वेद पुराण,
गीता में भगवान, अर्जुन को यूं कहा।

‘सामी’ कहते हैं कि इस चल-अचल को संचालित करने वाली परमशक्ति ही परमात्मा है। वे इसे समझाते हुए श्लोक में लिखते हैं कि समुद्र में हजारों बुलबुले उठते हैं, वे फूटकर उसी में समाते हैं। वे बुलबुले पहले भी पानी थे और बाद में भी पानी हो गए। इसी प्रकार सर्वव्यापक वह शक्ति है जिसमें से सब कुछ प्रकट होकर उसी में समा जाता है।

सामी जी कहें हे सतगुरु, कहां से जगत हुआ?
यह और कुछ नहीं हुआ, पानी बुदबुदा पानी सिवाय

संत भगत कंवर राम

संत भगत कंवर राम ऐसे महान संत थे, जिन्होंने अक्षरश: अपना सर्वस्व, अपनी हर सांस तक प्रभु चरणों में समर्पित कर दी थी। उनका जन्म वैशाख मास के दि. 8 विक्रम संवत 1942 अर्थात सन 1885 में सिंध के एक साधारण परिवार में हुआ। बचपन से ही परमात्मा के प्रति अगाध श्रद्धा एवं भक्ति थी। उनके स्वर में कमाल का जादू था। उनके स्वर-माधुर्य एवं भक्ति से प्रभावित होकर गुरु संत सत्यराम दास ने उन्हें गुरु मंत्र दिया था। सिंधी समाज के भक्ति मार्ग में अमृत डालने की महान प्रभावी परंपरा है, कंवर राम उसके सर्वश्रेष्ठ संत माने जाते हैं। जब आप भगत (साग्रसंगीत आराधना) करते थे तो आपके स्वर एवं नृत्य के प्रभाव से लोगों पर ऐसा जादू छा जाता था कि लोग पूरी-पूरी रात बैठे रहते थे। किसी का भी उठने का मन नहीं करता था। वे ब़डे चमत्कारिक संत थे, लेकिन रत्ती भर भी चमत्कार दिखाने की इच्छा नहीं रखते थे। उनका बच्चों को बाहों में लेकर झूला झुलाते हुए लोरी गाना सारे सिंध में प्रसिद्ध था। जिन बच्चों को ऐसी लोरी मिल जाए, लोग उन बच्चों को और उनके मां-बाप को भाग्यशाली समझते थे।

एक बार एक मां ने अपना मृत बालक कपड़े में लपेट कर संत की गोद में दे दिया। लोरी के बाद कंवर राम ने बच्चा मां को वापस किया। मां ने बच्चे की ओर देखकर कहा- भगत जी यह बच्चा तो हिलता-डुलता नहीं है। संत कंवर राम समझ गए। उन्होंने बच्चा फिर गोद में लिया, प्रभु प्रार्थना की ‘प्रभु मेरी लाज रखो’ और लो़री गाने लगे। चमत्कार हो गया; बच्चे की किलकारी की आवाज सुनाई दी। उन्होंने बच्चा महिला को लौटा दिया और कहा, ‘फिर किसी संत की ऐसी परीक्षा मत लेना।’ उस दिन से बच्चों को लोरी तो देते थे, लेकिन बच्चा गोद में नहीं लेते थे। उन्होंने एक कुष्ठ रोगी को भी ईश्वर नाम देकर एवं हवन की राख देकर ठीक किया था। उनके गीतों को ‘हिज मास्टर्स वॉयस’ वालों ने जगह-जगह जाकर रिकॉर्ड किया था, जो सिंधी समाज की धरोहर है। वैष्णवों का गीत ‘वैष्णव जन तो तेने कहिए जो पीर पराई जाणे रे’ संत कंवर राम पर शत-प्रतिशत ठीक बैठता है। वे एक बार किसी कार्यक्रम में जाने के पूर्व भोजन कर रहे थे। बीच भोजन में ग्रास हाथ से छूट गया। संत कंवर राम ने थाली छोड़ दी और कहा कि यही मेरे जीवन का अंतिम भोजन था। उसी दिन रेलवे गा़डी में बैठकर वे कार्यक्रम के लिए जा रहे थे तो रुकु स्टेशन पर दो मुसलमानोें ने उन पर कई गोलियां चलाईं। 9 नवंबर 1939 को वहीं संत भगत कंवर राम शहीद हो गए।

साधु टी. एल. वासवाणी

दादा वासवाणी महान निष्काम कर्मयोगी थे। संसार से विरक्त थे। सब कुछ होते हुए भी उन्होंने संन्यास धारण किया। महान ज्ञानी थे। उसी परमार्थ ज्ञान से लोगों को प्रभु भक्ति में लगाते थे, साथ ही सैकड़ों सेवा कार्य एवं विशेष रूप से शिक्षा के कार्य करते थे। स्वामी विवेकानंद की तरह ही 29 वर्ष की आयु में वे बर्लिन में विश्व धर्म सम्मेलन में गए थे एवं सनातन धर्म की सम्पूर्णता का प्रभाव स्थापित किया था। उनका लिखा ‘नूरी’ ग्रंथ अत्यंत प्रसिद्ध है। उनके शिष्य साधु दादा जशक वासवानी 96 वर्ष की आयु में भी धर्म प्रचार, शिक्षा प्रसार एवं सेवा कार्यों में लगे हैं। पुणे उनका केंद्र है।

स्वामी लीला शाह

स्वामी लीला शाह सिंधियों के ब्रह्मज्ञानी, ब्रह्मनेष्ठी वेदांती संत माने जाते हैं। वेदांत के सिद्धांतों का प्रचार उनका प्रमुख कार्य रहा। उनके मार्गदर्शन एवं प्रेरणा से ‘तत्वज्ञान’ एव ‘आत्मदर्शन’ दो ज्ञानवर्धक मासिक पत्रिकाएं प्रकाशित हुईं। सामाजिक कुरीतियों को मिटाने में उनका बहुत योगदान है। सामूहिक विवाह एवं सामूहिक यज्ञोपवीत समारोहों के वे प्रणेता थे। गुजरात आदिपुर एवं नैनीताल में आपके विशाल पवित्र श्रेष्ठ आश्रम हैं। आपकी सबके लिए प्रार्थना है, “हे भगवान! इसे सद्बुद्धि दो, शक्ति दो, स्वास्थ्य दो ताकि अपना- अपना कर्तव्य पालन करके सुखी रहें।”

सत्गुरु स्वामी शांति प्रकाश

स्वामी शांति प्रकाश सिंध प्रदेश से स्थापित आध्यात्मिक प्रेम प्रकाश मंडल के महान आचार्यों, आचार्य स्वामी टेऊंराम एवं स्वामी सर्वानंद महाराज के पश्चात उनके उत्तराधिकारी थे। महान ज्ञानी तत्वविद वेदांती ब्रह्मज्ञानी संत थे। वे स्वयं नेत्रहीन थे, लेकिन उन्होंने लाखों लोगों को आत्म प्रकाश दिया, रोशनी दी। उन्होंने उल्हासनगर में स्वामी टेऊंराम आश्रम की स्थापना की। आज यह आश्रम एक तीर्थ स्थान बन चुका है जहां से हर प्रकार के हजारों उच्च कोटि के विशाल कार्य हो रहे हैं। राधेश्याम गौशाला में 1200 से अधिक गायें हैं। वृदांवन और कृष्ण का साक्षात दर्शन हो जाता है। सर्व सुविधा युक्त वृद्धाश्रम हैं। कई स्कूल हैं। हर श्रेष्ठ कार्य के लिए कार्यशालाएं हैं। भक्ति धाम एवं कर्मशाला साथ-साथ हैं। स्वामी शांति प्रकाश 15 अगस्त 1992 की सुबह प्रभु के धाम चले गए।

हर समाज की तरह सिंधी समाज के अन्य भी कई संत हैं। सभी वंदनीय एव पूजनीय हैं। स्थान की कमी के कारण सब को इस संक्षिप्त जानकारी में शामिल करना संभव नहीं था।
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