संगीत मुक्ति का साधन

संगीत ईश्वर का दिया हुआ एक ऐसा दिव्य उपहार, एक ऐसा वरदान है जिसके माध्यम से इस भव जगत को भी पार किया जा सकता है। संगीत का प्रयोजन-फल इस प्रकार कहा गया है, “दान, यज्ञ, स्तुति,व्रत, व्द्वग्द्व, प्ाूजा आदि सभी साधन धर्म, अर्थ और काम त्रिवर्ग-फल प्रदान करते हैं, परंतु एकमात्र संगीत-विज्ञान ही ऐसा है जो धर्मार्थकाममोक्ष रूपी चतुर्वर्ग-फल प्रदान करता है ।”

संगीत दामोदर में विशेष रूप से कहा गया है कि सुरम्य मनोहर संगीत से जिसके चित्त में सुख का उदय नहीं होता, वह इस संसार में वृषभ सदृश है एवं विधाता से वंचित है। अर्थात संगीत इस भव जगत को पार करने की नैया तथा भगवत प्राप्ति का एक सबसे सीधा और सरल माध्यम है। एक शोध के जरिए सिद्ध किया जा चुका है कि संगीत का प्रभाव चर तो क्या अचर प्राणियों में भी होता है।

देखा जाए तो संगीत सृष्टि के प्रारंभ काल से ही अस्तित्व में रहा है और ये एक ऐसी कला है जिससे मानव तो क्या पशु-पक्षी तक, यहां तक कि पे़ड-पौधे और लताएं भी प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकतीं।

500 वर्ष प्ाूर्व भगवान श्रीकृष्ण के प्ाूर्ण अवतार श्री चैतन्य महाप्रभु ने संकीर्तन के माध्यम से हरे कृष्ण आंदोलन को नगर-नगर, ग्राम-ग्राम में प्रचारित कर लोगों को कृष्ण भावनाभावित किया।

वेद शास्त्रों के अनुसार संगीत की उत्पत्ति वेदों के निर्माता ब्रह्मा जी द्वारा हुई, ब्रह्मा जी ने यह कला शिव जी को दी और शिव जी के द्वारा देवी सरस्वती जी को प्राप्त हुई। सरस्वती जी को इसीलिए वीणा-प्ाुस्तक धारिणी कहकर संगीत और साहित्य की अधिष्ठात्री देवी माना है। सरस्वती जी से संगीत कला का ज्ञान नारद को प्राप्त हुआ। नारद जी ने स्वर्ग के गंधर्व, किन्नर तथा अप्सराओं को संगीत की शिक्षा दी। वहां से ही भरत, नारद और हनुमान आदि ऋषि संगीत कला में पारंगत होकर भूलोक पर संगीत कला के प्रचारार्थ अवतीर्ण हुए।

एक ग्रंथकार के अनुसार नारदजी ने अनेक वर्षों तक योग साधना की तब महादेव जी ने उन्हें प्रसन्न होकर संगीत कला प्रदान की। पार्वती जी की शयन मुद्रा को देखकर शिव जी ने उनके अंग-प्रत्यंगों के आधार पर रूद्रवीणा बनाई और अपने पांच मुखों से पांच रागों की उत्पत्ति की, तत्पश्चात दस राग पार्वती जी के श्रीमुख से हुआ। शिव प्रदोष स्त्रोत में लिखा है कि त्रिजगत की जननी गौरी को स्वर्ण सिंहासन पर बैठाकर प्रदोष के समय शूलपाणि शिव जी ने नृत्य करने की इच्छा प्रकट की। इस अवसर पर सब देवता उन्हें घेरकर ख़डे हो गए और उनका स्तुति गान करने लगे। सरस्वती जी ने वीणा, इंद्र ने वेणु तथा ब्रह्मा जी ने करताल बजाना आरंभ किया, लक्ष्मी जी गाने लगीं और विष्णु भगवान मृदंग बजाने लगे। इस नृत्यमय संगीतोत्सव को देखने के लिए गंधर्व, यक्ष, पतंग, उरग, सिद्धि, साध्य, विद्याधर, देवता और अप्सराएं आदि सब उपस्थित थे। संगीत दर्पण के लेखक दामोदर पंडित के मतानुसार भी संगीत की उत्पत्ति सृष्टि के प्रथम जीव ब्रह्माजी से ही आरंभ होती है; उनके अनुसार-

द्रुहिणेत यदन्विष्टं प्रयुक्त भरते न च। महादेवस्थ प्ाुरतेस्तन्मार्गाख्यं विमुत्तदम्॥

अर्थात- ब्रह्माजी (द्रुहिण) जिस संगीत को शोधकर निकाला, भरत मुनि ने, महादेव जी के सामने जिसका प्रयोग किया तथा जो मुक्तिदायक है वह मार्गी संगीत कहलाता है। इस प्रकार संगीत के दो भेद हुए एक मार्गी और दूसरा देशी संगीत।

संगीत पारिजात में कहा गया है कि मार्गी और देशी के भेद से संगीत दो प्रकार का है। मार्गी संगीत स्वयं ब्रह्माजी ने भरत मुनि को बताया। ब्रह्मा से अध्ययन कर भरत ने अप्सराओं और गंधर्वों द्वारा उनका प्रयोग शिवजी के सामने किया वह मुक्ति का साधन है। देश-देश में जो संगीत प्रचलित है, अर्थात जो मात्र जनमन रंजन है वह देशी संगीत कहलाता है।

गीत और वाद्य दोनों नादात्मक हैं; गीत, वाद्य के अधीन और नृत्य भी। नाद से वर्ण की उत्पत्ति होती है, वर्ण से पद बनते हैं और पदों से वाक्य। नाद के दो प्रकार हैं- 1, आहत नाद 2, अनाहत नाद। गुरु के उपदेश के मार्ग से उद्भूत अनाहत नाद मुनियों के लिए मुक्ति का साधन बनता है। आहत नाद लोगों का रंजन करने वाला होता है और श्रुतियों द्वारा वह ईश्वर एवं संसार को प्रसन्न करने वाला साधन होता है। सरस्वती जी की कृपा से श्रेष्ठ नाद विद्या प्राप्त कर कवल (कंबल) और अश्वतर नाग शिव जी के कुंडल बन गए। नाद से पशु-पक्षी, हरिण, बालक आदि सब संतुष्ट होते हैं, इसलिए नाद की महिमा, महात्म्य का वर्णन कौन कर सकता है। संगीतसार में कहा गया है- गीत ही प्रथम अभीष्ट है, किंतु नाद के बिना वह सिद्ध नहीं होता अत: नाद के बिना गीत नहीं, नाद के बिना स्वर नहीं, नाद के बिना राग नहीं हो सकता। अत: यह संप्ाूर्ण जगत नाद के ही अधीन है नादात्मक है नादरूप है, अर्थात परम जयोतिरूप ब्रह्मा भी नाद रूप हैं और स्वयं भगवान विष्णु भी नाद रूप हैं।
नाद की उत्पत्ति आग्न वायु से होती है आकाश-आग्न-वायु से भी नाद की उत्पत्ति होती है। नाद की उत्पत्ति स्थान नाभि है। नाभि के ऊर्ध्व स्थान में विचरण कर वह मुंह से व्यक्त होता है। नाद की उत्पत्ति के कई प्रकार हैं।

संगीतसार के अनुसार- न-नकार का अर्थ है प्राणवायु, द-दकार का अर्थ है आग्न, इन दोनों से उत्पन्न होने के कारण इसे नाद कहा जाता है अर्थात नाद प्राण और आग्न से उत्पन्न होता है।

व्यवहार में नाद तीन प्रकार का होता है। ह्रदय में प्रकट होता है या हृदय से उत्थित होता है उसे मंद्र कहते हैं। कंठ से उत्थित या प्रकट होने वाला मध्य है और मस्तक (मूर्द्ध) से प्रकट होने पर वह नाद तार कहलाता है।

कहते हैं रास मंडल में श्रीकृष्ण ने श्रुतियों को प्रकट किया। नाद से कई श्रुतियां प्रकट होती हैं। वह नाद वायु से आहत होकर बाईस श्रुतियों में परिणत होता है। ह्रदय में ऊर्ध्व और वक्र बाईस ना़िडयां हैं। यह सर्व विदित है कि जितनी ना़िडयां हैं उतनी ही श्रुतियां हैं । (भक्ति रत्नाकर)

अत: श्रुति का बल नाद है और श्रुति कला पर निर्भर करती है।
श्रुति स्थाने स्वर यैछे ब्रह्माओ ना जाने।
संगीतज्ञगण मात्र लक्षण बखाने ॥

अर्थात- इन श्रुतियों के अलावा भी कई श्रुतियां हैं जिसे ब्रह्मा भी श्रुति स्थान के अभ्यंतर से उत्पन्न स्वर के तत्व को नहीं जानते संगीतज्ञ तो उसके लक्षण मात्र का वर्णन करते हैं। श्रुति स्थान को कौन जान सकता है? रास में सुरम्य श्रुतियां व्यक्त होती हैं जिस प्रकार श्री कृष्ण श्रुतियों का प्रदर्शन करते हैं, श्री राधिका उसी प्रकार चमत्कार प्ाूर्ण ढंग से व्यक्त करती हैं। ललिता आदि सखियों को परम आनंद की अनुभूति होती है। देवगण विस्मित होकर प्ाुष्प वृष्टि करते हैं। श्रुतियां अपने-अपने भाग्य को सराहती हैं और स्वरों के साथ श्रुतियां सबका चित्त आकृष्ट करती हैं।

“तीनों लोकों में रहने वालों के मन जिनसे अनुरंजित होते हैं, उन्हें राग कहा जाता है” ऐसा भरतादि मुनियों का कथन है। भगवान श्री कृष्ण ने मुरलीनाद से मोहित करने वाला संगीत आरंभ किया और गोपियों ने कृष्ण के सानिध्य में एक-एक गाना आरंभ किया, उससे सोलह हजार राग उत्पन्न हुए। इनमें से छत्तीस राग जगत में प्रसिद्ध हैं। कुछ मुनिजन कहते हैं कि मेरू पर्वत के चारों दिशाओं में वे राग प्रसिद्ध हैं।

ब्रह्मा जी ने वेदों से संगीत की श्रृष्टि की। भरत, नारद, रंभा, हूहू, तुंबरू इन पांच शिष्यों को शिक्षा देकर ब्रह्मा जी ने संगीत का प्रचार किया। संगीत सार में संगीत की उत्पत्ति का वर्णन इस प्रकार है –

“ब्रह्मा जी ने चारों वेदों से सारभूत बातें लेकर संगीत के इस पांचवें वेद की श्रृष्टि की।” किस-किस वेद के क्या-क्या लिया गया कहते हैं – श्रृग्वेद से वाच्य, सामवेद से गीत, यजुर्वेद से अभिनय और अथर्व वेद से रस की सृष्टि की गई अथवा उन्हें ग्रहण किया गया।

संप्रदाय को शुद्ध परंपरा कहते हैं – ब्रह्मदेव, शंकर, नंदी, भरत, दुर्गा-शक्ति, नारद, कोहल, रावण, वायु, रंभा संगीत के प्रचार करने वाले हुए हैं। संगीत की प्रशस्ति कहते हैं- वेद शास्त्र, प्ाुराण, स्मृति आदि विविध शास्त्रों का पंडित होते भी संगीत नहीं जानते वे दो पैरों वाले पशु हैं।

संगीत दामोदर में कहा गया है- सुरम्य मनोहर संगीत से जिसके ह्रदय में सुख का उदय नहीं होता, वह इस संसार में मनुष्यों में वृषभ सदृश है; विधाता से वंचित है। हरिण, पक्षी एवं सर्प भी संगीत से बंध जाते हैं, शिशु भी रोते नहीं। संगीत परमानंदवर्द्धक है, अभीष्ट फलदायक, वशीकरण, सबका चित्तहरण करने वाला और मुक्ति का बीज स्वरूप है। संगीत का प्रयोजन फल इस प्रकार कहा गया है- दान, यश, स्तुति, व्रत, व्द्वग्द्व, प्ाूजा आदि से तीन फल मिलते हैं, यथा- धर्म, अर्थ और काम, लेकिन संगीत ही ऐसा है जो चतुर्वर्गे यानि धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चारों प्ाुरुषार्थ प्रदान करता है।
विष्णु प्ाुराण में कहा गया है- सब काव्य, सब गीत आलाप आदि शब्दमूर्ति धारण करने वाले विष्णु के ही अंश हैं। शास्त्रों में कहा गया है कि भगवान को गीत, वाद्य और नृत्य अति प्रिय हैं, अत: विष्णु की प्रसन्नता के लिए उनके सामने इनका अनुष्ठान करना चाहिए।

भगवान देवर्षि नारद से कहते हैं-

नाहं तिष्ठामि वैकुण्ठे, योगिनां ह्रदयेषु वा ।
तत्र तिष्ठामि नारद यत्र गायन्ति मद्भक्ता: ।

अर्थात- हे नारद! न तो मैं वैकुंठ में रहता हूं, न योगियों के ह्रदय में रहता हूं। मैं तो उस स्थान में वास करता हूं जहां मेरे भक्त मेरे पवित्र नाम का कीर्तन करते हैं और मेरे रूप, लीलाओं तथा गुणों की चर्चा चलाते हैं।

अत: संगीत एक ऐसा माध्यम है, एक ऐसी सी़ढी है जिसके द्वारा हम भव जगत को पार कर भगवान के परम धाम को प्राप्त कर सकते हैं जिस प्रकार संत हरिदास, मीराबाई, संत तुकाराम, बैजू-बावरा तथा संत सूरदास ने अपनी भक्तिप्ाूर्ण संगीत साधना के बल पर भगवान के परम धाम को प्राप्त क र अपने जीवन को सफल बनाया।

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