बिखर कर फिर खड़ी हुई कौम

सन 1947 में भारत का विभाजन एक ऐसा भूकम्प था, जिसने समृद्धशाली सिंधी जाति को तहस-नहस कर दिया। इस बंटवारे का सबसे अधिक प्रभाव सिंधी जाति पर प़डा, क्योंकि पंजाबियों को आधा पंजाब और बंगालियों को आधा बंगाल मिला, जबकि पूरे सिंध प्रांत को पाकिस्तान में मिला दिया गया। फलस्वरूप सिंधी जाति के बासिंदे ज़ड से उख़डे पे़ड के पत्तों की तरह हवा में उ़डते पूरे भारत में इधर-उधर गिरकर बिखर गए। विभाजन की विभीषिका इतनी भयंकर थी कि सिंधियोें को अपनी सम्पूर्ण धन-दौलत, जायदाद, खेत-खलिहान, कल-कारखाने सिंध में ही छो़डकर खाली हाथ, अपनी जान बचाकर भारत में आकर शरण लेनी पड़ी और शरणार्थी कहलवाना प़डा।

अजनबी धरती, नया प्रदेश, भिन्न प्रकार की जलवायु, प्रांतीय भाषाओं से अनजान, खाली हाथ सिंधी शुरू में तो स्तब्ध रह गए, पर हताश न हुए। प्रारंभिक दौर में उन्हेें समझ में नहीं आ रहा था कि वह कहां जाएं और क्या करें। छोटे-छोटे मासूम बच्चे, जवान होती ल़डकियां, शर्मीली पत्नियां और वृद्ध मां-बाप इन सबको लेकर वे कहां जाएं? किंतु प्रशासन के सहयोग और स्थानीय लोगों की सहृदयता ने उनमें साहस भर दिया। जयपुर, जोधपुर और सौराष्ट्र आदि के कुछ तत्कालीन शासकों ने अपने दरवाजे इन लोगों के लिए खोल दिए, सरकार ने अंग्रेज फौज द्वारा खाली की गई बैरकों में ‘कैम्प’ के रूप में इन्हें बसाकर उनकी ‘छत’ की समस्या को हल करने का कुछ हद तक प्रयास किया। स्थानीय लोगों ने भी थो़डी ना- नुकुर के बाद उन्हें अपने नजदीक स्थान दिया।

मरकर जिंदा होने वाले फीनिक्स पक्षी की तरह सिंधी फिर उठ ख़डे हुए, संघर्ष करने के लिए। सिंध के रेलवे और पोस्ट ऑफिस के कर्मचारियों को इन्हीं के विभागों में नियुक्तियां दी गईं। युवाओं को जो छोटी-मोटी सरकारी गैर सरकारी नौकरी मिली, वे करने लग गए। किशोरों ने भी कमर कसी और गली, कूचों, फुटपाथों और चबूतरों पर खोमचा लगाकर और रेल गा़िडयों में फेरी लगाकर सस्ता सामान बेचने लगे। महिलाएं भी पीछे नहीं हटीं- पापड़, कचरी, खींचे आदि बनाकर आसपास के घरों में जाकर बेचने लगीं।

परिश्रम और स्वावलंबन का यह कारवां एक बार जो चल प़डा तो फिर उसने पीछे मु़डकर नहीं देखा। सिंधियों ने स्थानीय भाषा सीख ली। स्कूलों-कॉलेजों में शिक्षा ग्रहण करने लगे। व्यवसाय में भी प्रविष्ट हुए। व्यापारिक प्रतिष्ठानों में कुशल सेल्स मैन बन गए और अपने वाक्चातुर्य, व्यवहार कुशलता और बुद्धिमत्ता से धीरे-धीरे स्थानीय व्यापार में अपनी पैठ जमा ली। इस बीच विदेशों में पहले से ही स्थापित ब़डी-ब़डी फर्मों ने भी सिंधी युवाओं को अपने यहां नौकरी करने के अवसर दिए और देखते ही देखते हजारों की तादाद में सिंधी भारत से बाहर पहुंच गए और धन अर्जित कर अपने परिवार को भेजने लगे। यह स्पष्ट है कि सिंधियों ने किसी के आगे हाथ नहीं फैलाया और श्रम व आत्मसम्मान से अपने पांवों पर ख़डे हो गए।

सिंधी समुदाय में हर वस्तु ‘स्वयं की’ होने की एक नैसर्गिक प्रवृत्ति है। अत: सिंधी व्यापारियों ने मौके के स्थानों पर अपनी दुकानें और अपने व्यापारिक प्रतिष्ठान खोलने शुरू किए। देखते ही देखते सिंधी दुकानदारों की कतारें लग गईं। वे किसी भी हालत में दुकान पर आए ग्राहकों को लौटाते नहीं थे। उन्होंने ‘कम मुनाफा-अधिक ग्राहक’ का सिद्धांत अपना रखा था। वे पूरे बाजार में छा गए और स्थानीय व्यापारियों को पछा़ड दिया। जैसे ही उन्हें जानकारी मिलती कि अमुक शहर में अच्छे व्यापार की संभावना है, वे तुरंत वहां पहुंच जाते और अपना धंधा शुरू कर देते। कालांतर में हर नगर में ब़डी-ब़डी दुकानों, प्रतिष्ठानों में उनका आधिपत्य हो गया। इसी प्रवृत्ति के आधार पर आज दुबई, स्पेन, अफ्रीका, हांगकांग, इंडोनेशिया, थाइलैंड और अब चीन में भी सिंधी व्यापारियों की भरमार है।

सिंधियों की एक और अच्छी प्रवृत्ति है ‘अपनी छत’ होने की। न मालूम उन्हें किराए के मकान क्यों नहीं सुहाते। जहां भी अवसर मिला, उन्होंने अपनी कालोनियां बना लीं। सरकार या आवासी मंडलों ने जहां भी कालोनियां विकसित कीं, वहां सिंधियों ने मकान लेकर खुद को स्थापित कर लिया। अच्छी-अच्छी पॉश कालोनियों और अपार्टमेंट्स में भी वे अपना मकान खरीदने से नहीं चूकते। इसी प्रकार अच्छा पहनावा, अच्छा दिखावा, अच्छा खान-पान और वैभव, विलासिता व ऐश्वर्य का जीवन बिताना उनका चारित्रिक गुण है। बच्चों को ब़िढया, महंगी और बेहतरीन शिक्षा देना भी वे अपना धर्म समझते हैं। धार्मिक प्रवृत्ति के होने के कारण वे हर धर्म गुरू की इज्जत करते हैं और उनके धार्मिक संस्थानों में बढ़-चढ़ कर दान देते हैं।

आज उद्योग जगत में भी सिंधियों का उच्च स्थान है। ऐसा कोई उद्योग नहीं है, जिसकी जिम्मेदारी किसी सिंधी के कंधे पर न हो। विज्ञान और तकनीकी क्षेत्र में सिंधी युवाओं की भरमार है। गुडगांव और बेंगलुरु की बहुराष्ट्रीय कम्पनियों में अच्छे पदों पर सिंधी हैं। वर्तमान में सिंधियों के पास सब कुछ है। यह कहा जा सकता है सिंधी कौम ने मात्र साठ वर्ष की अवधि में एक जादुई करिश्मा कर दिखाया है और अपनी तीव्र बुद्धि, चतुराई, परिश्रम, लगन और आत्मविश्वास से उन्होंने न सिर्फ शरणार्थी से परमार्थी बनकर दिखाया है, बल्कि लोगों को अपनी क्षमता और प्रतिभा से आश्चर्यचकित कर दिया है। सिंधी जाति न केवल संभली है, बल्कि पहले की अपेक्षा अधिक कद्दावर और सबल बनकर उभरी है। सभी लोग व्यापार में उनका लोहा मानते हैं, व्यावसायिक जगत में उन्हें सर्वोपरि स्थान देते हैं और उनकी उन्नति और प्रगति का गुणगान करते हैं।

इसलिए अब हमें सिंधी कहलवाने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए। गर्व से कहें कि हम सिंधी हैं।
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