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बलिदानी शूरवीरों की भूमि सिंध

बलिदानी शूरवीरों की भूमि सिंध

by रेवाचंद नारवानी
in अगस्त-२०१४, व्यक्तित्व
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वैदिक युग से भारतीय स्वातंत्र्य संग्राम तक के लम्बे कालखंड में सिेंध प्रदेश, हिन्दुस्तान की अस्मिता का ध्वजवाहक ही नहीं, प्रत्युत भारत की महान संस्कृति का प्राण-केन्द्र भी रहा है और उसी ने विश्व को सभ्यता का पहला पाठ पढ़ाया है। सिंध भारत का ऐसा सीमांत प्रदेश था, जो विदेशी आक्रमणकारियों के लिए भारत का प्रवेश द्वार था। लेकिन सिंध के शूरवीरों नेे हमेशा सजग रहकर उन आक्रमणकारियों का डट कर मुक़ाबला किया। सिकन्दर जैसे योद्धा को वापस लौटने को विवश किया। सिंध शूरवीर योद्धाओं की स्थली रही है।

स्वतंत्रता की लड़ाई में भी सिेंधी समुदाय पीछे नहीं रहा। अनेकानेक कुर्बानियां दीं। हज़ारों लोग शहीद हुए। बहुत सी गुमनाम विभूतियां हुई हैं, जिन्होंने आज़ादी की लड़ाई में काफ़ी यातनाएं सहन कीं और अपना सर्वस्व न्योछावर किया। चाहे वह लड़ाई महात्मा गांधी द्वारा प्रेरित हो या सुभाष बाबू द्वारा आज़ाद हिंद फौज। आज़ादी के बाद भी गोवा मुक्ति आंदोलन हो या चीन, पाकिस्तान के साथ युद्ध, सिंधी शूरवीर कभी पीछे नहीं रहे।

उन अनगिनित शूरवीरों शहीदों का वर्णन करना थोड़ा सा कठिन ह,ै फिर भी कुछ शहीदों के बारे में लिखना उचित समझता हूं।
(1) राजा डा_हर :

सन् 631 ई से पहले की बात है। सिंध काफ़ी विशाल प्रदेश था, जिसकी सीमा पूर्व में कश्मीर , पश्चिम में मकरान, दक्षिण में समुद्र तट थी। सिंध प्रदेश सिंधु-सौवीर के नाम से प्रसिद्ध था। उस समय राजा राय साहसी राज करते थे और चच उसका प्रधान मंत्री था। राजा को कोई संतान न थी। राजा ने अपनी मृत्यु से पहले अपनी रानी सुहान्दी को हिदायत दी कि मेरी मौत के बाद तुम मेरे प्रधान मंत्री चच के साथ शादी करना और उससे जो बच्चा पैदा हो, उसे तख़्त पर बैठाना। चच अत्यधिक बुद्धिमान, सौंदर्ययुक्त एंव कुशल प्रशासक थे। राजा राय साहसी की मृत्यु के बाद सन् 631 में राजा चच का राज्याभिषेक हुआ और उसे रानी सुहान्दी से दो पुत्र रत्न हुए। एक नाम डा_हरस्य और दूसरे का नाम डा_हरसेन था। राजा चच ने 40 वर्ष तक राज्य किया। राजा चच के निधन के बाद उसका भाई चन्दर राजा बने और केवल सात वर्ष राज कर पाए। डा_हरस्य का भी जल्द ही स्वर्गवास हो गया और पूरा सिंधु सौवीर प्रदेश साम्राज्य 12 वर्षीय डा_हरसेन के हाथों में आ गया।
उस समय सिंध देश की राजधानी अलोर थी। सम्पूर्ण राज्य में धर्म स्थलों, मठों व मंदिरों में पूजा-उपासना के कारण वातावरण धार्मिक एंव वैदिक ऋचाओं से गुंजायमान रहता था। मातृ शक्ति एंव गौवंश की रक्षा का दायित्व निर्वहन करना शासन की सर्वोच्च प्राथमिकता थी।
डा_हरसेन को नन्हा बालक समझकर अरबी लुटेरों ने सिंध पर आक्रमण किया। उन्हें बार-बार मुंह की खानी पड़ी। डा_हरसेन अर्जुन की तरह महान तीरंदाज़ थे।

सन् 711 ई में मुहम्मद बिन-क़ासिम की अगुवाई में छह हज़ार फ़ौजी सिपाहियों ने पूरी तैयारी के साथ सिंध पर धावा बोल दिया, लेकिन महाराजा डा_हरसेन की सेना ने अरबी सेना को खदेड़ दिया।

मुहम्मद बिन कासिम ने और कोई रास्ता न देखकर एक षड्यंत्र रचा। उसने देबल बंदरगाह की तरफ़ से आक्रमण किया। वहां कुछ लोगों को लालच देकर कि ले के दरवाज़े खुलवा लिये और हज़ारों निहत्थे लोगों का कत्ल करवाया। उसके बाद अरबों बे नेरुन कोट पर हमला किया। मुहम्मद बिन क़ासिम ने एक और षड़्यंत्र रचा। उसकी सेना पीछे हट रही थी तब उसने अपने सैनिकों को स्त्रियों के कपड़े पहनवा कर ़उन्हें महिलाओं की आवाज़ में चिलाने यह चिल्लाने के लिए कहा कि अरब लुटेरों से हमारी रक्षा कीजिये। यह सुनते ही महाराजा डा_हरसेन जहां से महिलाओं की आवाज़ें आ रही थी उस तरफ़ चलने लगे। मुहम्मद कासिम ने अपनी सेना को डा_हरसेन के हाथी पर अग्नि बाण चलाने का आदेश दिया। बाण हौदे पर लगते ही हौदा जलने लगा और हाथी बौखला कर पानी में जा घुसा। अनेक प्रयासों के बावजूद भी हाथी पानी से बाहर निकल नहीं पाया। अरबी सेना ने नदी के भंवर में फंसे डा_हरसेन पर तीरों की बरसात कर दी और इस तरह देश की रक्षा करते महाराजा डा_हरसेन धोखे से मारे गये और शहीद हो गये।

दूसरे दिन डा_हरसेन की पत्नी महारानी लाडी_बाई केसरिया कर अरबी सेना पर टूट पड़ी। सिंधु माता के अपूर्व कौशल से शत्रु सेना में हाहाकार मच गया। किंतु शत्रु अरबी सेना बहुत ज़्यादा थी। महारानी को युद्ध के परिणाम का आभास हो गया और अपनी सतीत्व और पवित्रता की रक्षा हेतु सिंधी वीरांगनाओं के साथ जौहर की ज्वाला में आत्माहुति दे दी। इतिहास में सती होने का यह पहला प्रसंग है ।
लेकिन दुर्भाग्य से राजा डा_हरसेन की दो कन्याएं सूर्यकुमारी और परमाल दुश्मनों के हाथ लग गई। मुहम्म्द बिन कासिम ने दोनों लड़कियों को कैद करके अपने ख़लीफे को भेंट स्वरूप भिजवा दिया। दोनों पुत्रियां बहुत ही चतुर थीं। उन्होंने खलीफा के पास पहुंच कर शिकायत की कि मुहम्मद ने उन्हें तीन दिन तक भ्रष्ट किया है और सूंघा फूल आपके किस काम का? यह सुनकर खलीफा आगबबूला हो गया और हुकम किया कि मुहम्मद बिन कासिम को गधे के पेट में सिलवाकर यहां ले आओ। इस तरह अपने पिता के क़ातिल से बदला लिया और बाद में अपने कपड़ों में छुपाई हुई कटार से अपने को शहीद कर दिया।

2)शहीद महाराजा नत्थूराम शर्मा (शहादत-20-01-1935)

यह युवक आर्य समाज से प्रेरणा लेकर “आर्य युवक समाज” का सक्रिय कार्यकर्ता बन गया। उन दिनों इस्लाम का प्रचार ज़ोरों पर था। हिन्दुओं पर ज़ुल्म हो रहे थे। वैदिक धर्म पर प्रहार और इस्लाम की प्रशंसा करने वाली पुस्तिकाएं लिखवाकर बांटी जा रही थीं। महाराज नत्थूराम ने एक ईसाई पादरी द्वारा रचित पुस्तक “इस्लाम का इतिहास” सिंधी भाषा में अनुवाद कर छपवाई। बस, फिर तो मुस्लमान लोग बिफर गये और नत्थूराम जी पर केस दायर कर दिया। केस चलते ही न्यायालय में 20 सितम्बर 1935 को एक मुस्लिम मजहबी तांगेवाले ने उसका खून कर दिया। महाराज नत्थूराम की शहादत ने सिंध के सोये हुए हिंदुओं को जागृत किया और हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए प्रेरित किया।

3) अमर शहीद कंवरराम साहेब: (शहादत 01.11.1939)

सिंधी समाज के सबसे उच्च कोटि के संत श्री कंवरराम साहेब ने सिंध की मिट्टी को पवित्र बना दिया। उनके कंठ में माधुर्य था, आवाज़ में जादू था, जो लोगों को मंत्रमुग्ध कर देता था।

कंवरराम साहेब कीर्तन या भजन का कार्यक्रम रखते थे, जो रात से लेकर सुबह 4 बजे तक चलता था। जनता भगत साहेब का कीर्तन सुनने के लिए बेताब रहती थी। कीर्तन और भजन कार्यक्रम के चलते काफ़ी धनराशि इकट्ठी होती थी। भगत साहेब उसे उसी समय दुखी, दरिद्र लोगों में बांट देते थे और अपने पास कुछ भी नहीं रखते थे। सहायता करते समय कभी भी हिन्दू-मुस्लिम का भेद नहीं रखा।
कंवरराम साहेब सखर ज़िले के जरवार गांव के रहने वाले थे। उस गांव के पास “ मंज़िल गाह” नाम का एक विशाल मैदान था। कुछ नामी मुस्लिम कट्टरपंथियों ने उस मैदान को “ मस्जिद गाह” नाम देकर हथियाने का प्रयास किया और साथ साथ सखर के प्रसिद्ध मंदिर “ साधुबेला ” को “सैयदबेला” नाम देकर मस्जिद बनाना चाहते थे और इस तरह विवाद खड़ा करने लगे। वातावरण दूषित हो गया। नफ़रत की इस आग में कई मासूमों की बलि चढ़ गई। मुस्लमानों ने झूठा इल्ज़ाम लगाया कि एक पीर के पुत्र सेे हिंदुओं ने हाथापाई की है और वे किसी प्रसिद्ध हिंदू नेता की हत्या कर बदला चुकाएंगे। इस्लाम के नाम पर यह कुप्रचार मुस्लमानों को भड़काने के लिये काफ़ी था और इस वैमनस्य ने आख़िर जान ले ली सिंध के महापुरुष संत कंवरराम साहेब की।

भगत साहेब यात्रा पर थे। रेलगाड़ी रुक नामक स्टेशन पर रुकी। कुछ मुस्लिम उग्रवादी संत के पास आए। सलाम भरा, अंगूरों की पेटी भेंट की और एक भजन सुनाने की प्रार्थना की। भगत साहेब के मुंह से अपने आप राग “मारू” (यह राग मौत के व़क्त गाया जाता है) निकल पड़ा। गाड़ी छूट पड़ी, बंदूक की गोलियां सरसराहट करती भगत साहेब के सीने में आ लगी, “मारू गीत” बंद हो गया, और यह महापुरुष शहीद हो गया।

4)अमर शहीद हासाराम पमनाणी ( शहादत 18.07.1940)

श्री हासाराम पमनाणी कांग्रेसे टिकट पर चुने हुए सिंध असेम्बली के सदस्य थे। सिंध विधान सभा का अधिवेशन चल रहा था और सदन में सिंध की बिगड़ती क़ानूनी व्यवस्था, असुरक्षा और ़फैले हुए भय पर चर्चा चल रही थी। हासाराम जी ने संत कंवरराम की शहादत के विषय में बड़ी निडरता के साथ कटु शब्दों में आलोचना की और पुलिस की लापरवाही तथा निष्क्रियता पर तीखे प्रहार किये। श्री हासाराम जी हिन्दू धर्म का प्रचार करने हेतु “ धरम दर्शन ” नाम की मासिक पत्रिका भी निकालते थे। ये सभी बातें कट्टरपंथियों को पसंद नहीं थीं। परिणाम स्वरूप उन्हें कट्टरपंथियों की गोलियों का शिकार होना पड़ा। सिंध के इस सपूत ने अपने धर्म की रक्षा और हिन्दू समाज के हितों के लिए अपना बलिदान दिया।

5) अमर शहीद हेमू कालाणी (शहादत 21.01.1943)

भारत को अंग्रेज़ी राज से मुक्त कराने के लिये भारत के हर प्रांत के लोगों ने अपनी आहुतियां दीं, कुर्बानियां दीं। सिंध प्रांत भी इसमें पीछे नहीं था और सिंधु माता के कई नामी, अनामी, गुमनाम पुत्रों और पुत्रियों ने भारत माता के लिये अपने शीश भेंट किये।
हेमू कालाणी एक ऐसा ही शूरवीर युवक था, जो अंग्रेज़ों को अपने देश से खदेड़ना चाहते था। अपने शहर सखर के अपने साथियों के साथ एक बार वह एक मिलिट्री ट्रेन को उड़ाने की कोशिश में रेल्वे लाइन के कुछ पुर्ज़े निकाल रहा था और ऐसा करते हुए पक़ड़ा गया। उनके दोस्त भागने में सफ़ल हुए। हेमू पर मार्शल लॉ के अनुसार मुक़दमा चला। जेल के एंदर उस पर बहुत भयानक अत्याचार किये गए, लेकिन हेमू टस से मस नहीं हुए और अपने दोस्तों का नाम नहीं बताया। आख़िर 21 जनवरी 1942 को हेमू को फांसी दी गई। हेमू की शहादत ने युवकों को देश की ख़ातिर दिलेरी से मर मिटने का पाठ सिखाया।

6) शहीद नेणूराम शर्मा (शहादत 30.05.1945)

सन् 1943 की बात है, नारायण कोट (हैदराबाद, सिंध) में शमशान भूमि के समक्ष मैदान में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की रात्रिे बाल शाखा चल रही थी। संघ कार्य का प्रभाव सिंध से बलूचिस्तान तक फैल चुका था। मुस्लिम कट्टर पंथियों को यह बात पसंद नहीं थी। एक दिन उन्होंने सारी सिंध से चुने हुए मुस्लिम पहलवानों को बुलाकर दंगल प्रतियोगिता का कार्यक्रम रखा। कार्यक्रम तोे केवल एक बहाना था।

इस रात्रि शाखा का आयोजन उन बच्चों के लिए किया गया था जो चौथी कक्षा से मैट्रिक तक स्कूली विद्यार्थी थे। कुछ स्वयंसेवकों को दूसरे दिन हैदराबाद से अहमदाबाद (गुजरात) जाना था। कई दिनों से बीमारी की वजह से श्री नेणूराम शर्मा शाखा में नहीं आये थे। उस दिन कार्य प्रचारक श्री टेकचंद मीरपुरी शाखा में आने वाले हैं यह सुनकर उनसे मिलने के लिए नेणूराम जी भी शाखा में आए।

नेणूराम शाखा में आए ही थे कि अचानक कहीं से “अल्लाह हो अकबर” के नारे गूंजने लगे और बाहर से बुलाए हुए शस्त्रों से लैस मुसलमान पहलवान निहत्थे स्वयंसेवकों पर टूट पड़े। नेणूराम जी बीमारी से उठे ही थे, एक लाठी लेकर बिजली की तरह इन हथियारबंद गुंडों से मुकाबला करने लगे। उन्हें छोटे-छोटे बाल स्वयंसेवकों की चिंता थी। नेणूराम जी दुश्मनों से घिर गया, तब एक गुंडे ने उसके पेट में छुरा भोंक दिया और नेणूराम जी की आंतें बाहर आ गईं। नेणूराम जी ने हिम्मत नहीं हारी। आंतों को एक हाथ से पकड़ कर दूसरे हाथ से तब तक लाठी चलाते रहे जब तक सब स्वयंसेवक सुरक्षित स्थानों पर न पहुंचाए गये। नेणूराम जी ने अकेले ही लाठी से काफ़ी गुंडों की खोपड़ियां तोड़ीं। तब पुलिस भी आ गई। कुछ गुंडे पकड़े गये। नेणूराम जी को अस्पताल पहुंचाया गया। ऑप्रेशन हुए , लेकिन नियति को कुछ और मंज़ूर था। वीर नेणूराम जी ने सदा के लिए आंखें मूंद लीं। इस हत्याकांड के समय काफ़ी स्वयंसेवक भी ज़ख़्मी हुए थे। गर्व की बात यह थी कि किसी भी बच्चे के पीठ पर ज़ख़्म के निशान नहीं थे।

(7) शहीद नारायण देव आर्य (शहादत 06.01.1948)

कराची में 6 जनवरी 1948 को ऐसी दरिंदी घटना हुई जिसे याद कर सदियों तक हम अपमान की आग में झुलसते रहेंगे और प्रतिशोध की ज्वाला भड़कती रहेगी। 15 अगस्त 1947 को भारत का बंटवारा हुआ। पाकिस्तान को बने हुए पांच महीने भी नहीं हुए थे, सिंध के हिन्दू लोग अपनी जन्मभूमि से बिछड़ रहे थे।

कराची में सिंध से निर्वासित हिन्दुओं के लिए अलग-अलग जगहों पर रहने के लिए अस्थाई कैम्प लगाए गए थे। आर्य समाज ने भी कराची में हिन्दुओं के रहने की व्यवस्था की थी।

कराची के मुस्लमानों ने इन असहाय शस्त्रविहीन हिन्दुओं पर आक्रमण करने की योजना बनाई। कराची स्थित आर्य समाज द्वारा संचालित पुत्री पाठशाला में कई असहाय हिन्दू कुटुम्बों ने शरण ले रखी थी। पाठशाला का द्वार बंद किया गया था। उस पाठशाला में नारायणदेव आर्य नामक युवक कई युवकों को कसरत, योगाभ्यास, प्राकृतिक चिकित्सा का प्रशिक्षण देता था। आज नारायणदेव के सामने ऐसी घड़ी आ चुकी थी। दो हज़ार से अधिक मुस्लमान गुंडों ने पुत्री पाठशाला पर आक्रमण बोल दिया और दरवाज़ा तोड़ने लगे। नारायणदेव ने अकेले उन बदमाशों को ललकारा। आधे घंटे तक वह युद्ध करता रहा। लेकिन वह अकेला था और सामने तलवारों, चाकुओं, अस्त्रों से लदे जानवर खड़े थे। पूरी तरह घायल, लहुलुहान होने पर वह अंतिम सांस तक लड़ता रहा और शहीद हो गये। बाद में शुरू हुआ मुस्लमानों का प्रकोप। दरवाज़ा तोड़ लिया गया। हिन्दू परिवारों को लूटा गया, मारा गया। चारों तरफ़ लाशों के ढेर लग गये।

श्री नारायण देव की पराक्रम गाथा, उसका साहसिक अंत, हिन्दुओं की सुरक्षा करते करते, तलवारें और चाकू सहते जान दे देना, ऐसा बलिदान कोई भी हिन्दू भुला नहीं पाएगा।

8. क्रांतिकारी शहीद हरकिशन: (शहादत 26 जून 1931)

शहीद हरकिशन एक गुमनाम सिंधी परिवार का लाडला था। उसने अंग्रेज़ गर्वनर पर गोली चलाई थी जिससे गर्वनर केवल घायल हुआ था। उस पर तीसरी गोली चलाई ही गई थी कि डॉ. राधाकृष्णन उसे बचाने के लिए बीच में आ गये थे। हरकिशन गुरदासमल को पकड़ा गया और 26 जून 1931 के दिन मियांवाली जेल में फांसी दे दी गई थी। बाद में उसके पिता गुरदासमल को भी गिरफ़्तार करके अनेक यातनाएं दी गईं, जिस कारण वह वीर पिता भी बलिदान हो गया। परिवार का छोटा बेटा भगतराम भी पक्का क्रांतिकारी निकला, जिसने अंग्रेज़ सरकार द्वारा घर में नज़रबंद नेताजी सुभाषचंद्र बोस को कोलकाता से निकाल कर, काबुल होते हुए जर्मनी पहुंचाने में प्रमुख भूमिका निभाई थी।

9. प्रेम रामचन्दाणी (शहादत 26.09.1965)

भारतीय वायुसेना का “फाइटर पायलट” प्रेम रामचंदाणी का जन्म हैदराबाद सिंध में 19 अक्टूबर 1941 में हुआ था। 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में 18 से 22 सितम्बर 1965 तक लगातार 5 दिन तक लाहौर पर अपने लड़ाकू विमान से बहुत ही ख़तरनाक बमबारी करके पाकिस्तानी सेना को तहस-नहस कर दिया। 22 सितम्बर को उनके विमान को काफ़ी गोलियां लगीं और उसे आग लग गई। फिर भी घायल प्रेम हिम्मत न हारकर जहाज़ को भारत की ज़मीन पर अमृतसर के पास उतारा और कूद कर जहाज़ से बाहर आये। पूरा शरीर ख़ून से लथपथ था। शरीर में गोलियों की वजह से ज़हर भर चुका था। 26 सितम्बर को आपरेशन के दौरान उन्होंने प्राण त्यागे। सिंधी समाज को और भारतीय वायु सेना को ऐसे बांके बहादुर बेटे पर नाज है।

भारत की स्वतंत्रता की लड़ाई में ऐसी अनगिनत घटनाएं घटित हुई जिनमें अनेक सिंधी वीर धर्म की रक्षा करते करते शहीद हुए। स्वतंत्रता के बाद भी सिंधी वीरों ने आक्रमणकारियों का डट कर मुकाबला किया है और कइयों ने वीर गति प्राप्त की है।
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