संसार के सर्वश्रेष्ठ संतों में एक पूज्य संत साधु वासवाणी

‘मां मैं दुनियादारी की बातों से दूर रहकर प्रभु के चरणों में भक्तिपूर्ण अपनी जिंदगी बिताना चाहता हूं।’-बेटा
‘हे प्यारे बच्चे, जब तक मैं जिंदा हूं तब तक तुझे सांसारिक कर्तव्य भी निभाने होंगे।’-मां
मां के इस आज्ञावान पुत्र ने इस वचन का पूर्ण पालन किया। यह सच्चा सपूत था साधु वासवाणी। उनका जन्म 25 नवंबर 1879 ई. में सिंध प्रांत के हैदराबाद शहर में हुआ था। उनका पूरा नाम थांवरदास लीलाराम वासवाणी था।

बचपन से ही वे अत्यंत होशियार थे। उन पर उनके गुरु साधु हीरानंद के व्यक्तित्व का गहरा प्रभाव था। उन दिनों, जब लोग कठिनाई से मैट्रिक उत्तीर्ण करते थे, तब साधु वासवाणी ने अच्छे अंकों से एम. ए. उत्तीर्ण किया एवं कॉलेज में प्रोफेसर बने। बाद में वे उसी कॉलेज के प्राचार्य बन गए।

कुछ समय के बाद उनकी माताजी का स्वर्गवास हो गया। उन्होंने कॉलेज के सारे पदों से त्यागपत्र देकर फकीरी स्वीकार की। लेकिन उन्होंने अन्य साधुओं की तरह जंगल एवं हिमालय का मार्ग नहीं अपनाया। उन्होंने पूर्ण जीवन ब्रह्मचारी रहकर ‘कर्म योगी संन्यासी’ का उदाहरण प्रस्तुत किया।

उन्होंने भारतीय संस्कृति एवं विशेषकर वेदों का बहुत गहन अध्ययन किया। फिर वेदों की विशेषताओं से दुनिया का सरल परिचय करवाया। वर्ष 1910 में जर्मनी में हुए विश्वधर्म सम्मेलन में धर्म पर आपके व्याख्यान की सारे यूरोपवासियों ने जोरदार प्रशंसा की। उन्होंने आध्यात्मिक ज्ञान के साथ-साथ लोक कल्याण के कई प्रभावी एवं आवश्यक काम किए। स्त्री शिक्षा का प्रचार किया। इसके लिए वर्ष 1939 ई. में आपने ‘सखी संगति’ एवं ‘मीरा हलचल’ की स्थापना की। वे कहते थे कि एक बालिका को शिक्षा देने का अर्थ है दो कुटुंबों को शिक्षित करना!

विभाजन के बाद साधु वासवाणी पुणे में आकर बस गए। वहां उन्होंने कई स्कूल, कॉलेज एवं हॉस्पिटल खुलवाए। सेवा करने वाली अनेक संस्थाएं स्थापित कीं। वे अत्यंत आध्यात्मिक, विनम्र एवं सेवाभावी संत थे।

साधु वासवाणी असीम ज्ञान के सागर परमात्मा के रहस्य के जानकार शायर भी थे। उन्होंने अनेक ग्रंथ लिखे। उनका रचा हुआ ‘नूरी’ ग्रंथ आध्यात्मिक जगत का अनमोल खजाना है।

उनके मन में सभी धर्मों के लिए सम्मान था। वे मानते थे कि धर्म मात्र पूजा-पाठ, सिर टेकने आदि में नहीं है; बल्कि दया, नम्रता, कर्तव्य परायणता, पवित्रता एवं प्रत्येक प्राणी में एक ब्रह्म को देखकर समभाव से सेवा करने में है।

आपके मन में केवल मनुष्य के लिए नहीं, वरन सभी प्राणियों के लिए दया भाव था। इस कारण उनका जन्मदिन 25 नवम्बर को ‘शाकाहारी दिवस’ के रूप में मनाया जाता है।

उन्हें 16 जनवरी 1966 ई. में पुणे में जीवन मुक्ति प्राप्त हुई। उनका बोया बीज आज बढ़कर वृक्ष हो गया है। आपका आध्यात्मिक प्रतिनिधि बनकर दादा जशन वासवाणी उसी कार्य को उतनी ही तीव्रता, पवित्रता एवं प्रभावपूर्ण रीति से आगे बढ़ा रहे हैं। देश-विदेश के कोने-कोने में जाकर दादा जशन वासवाणी, वासवाणी मिशन द्वारा प्रेम एवं शिक्षा का संदेश दे रहे हैं। ‘धर्म के साथ सेवा’ यही उनका मूल मंत्र है।

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