मन तेरा जो रोग है…..

घर में भी माता-पिता और बच्चों का एक स्वतंत्र विश्व निर्माण होता दिख रहा है। एक साथ एक छत के नीचे होते हुए भी अलग-अलग होने का आभास होता है। एक ही शयन कक्ष में पूर्वाभिमुख होकर पत्नी चैट करती है और पश्चिमाभिमुख होकर पति चैट करता है। सब को अपनी ‘स्पेस’ चाहिए। क्या सारी दुनिया मुट्ठी में कैद हो गई है? या कि क्या लोग अपनी मुट्ठीभर की अलग दुनिया बना रहे हैं?

इक्कीसवीं सदी के प्रारंभ में कंप्यूटर और मोबाइल क्रांति ने मनुष्य के जीवन के सभी संदर्भ बदल दिए हैं। इसी क्रांति के द्वारा मनुष्य को जो उपहार प्राप्त हुआ है वह है ‘सोशल नेटवर्किंग’ की तकनीक। हम अगर चारों ओर नजर दौडाए तो हमारे ध्यान में आएगा कि आज ‘सोशल नेटवर्किंग’ जीने का मूल मंत्र बनता जा रहा है। यह विचार समाज में फैल रहा है कि ‘सोशल नेटवर्किंग’ का अर्थ है एक दूसरे के संपर्क में रहना। इस नयी तकनीक के कारण मानवी जीवन में कई नई परंपराएं भी स्थिर हो रही हैं। नेटवर्किंग का संबंध संपर्क में रहने तक मर्यादित भले ही हो परंतु समाज के अनेक लोगों के व्यवहार से इसका गलत अर्थ निकाला जा रहा है। इसकी तीव्रता भी झकझोर देनेवाली है। इसकी वजह से कई सामाजिक मूल्यों को चुनौती देनेवाली स्थिति भी निर्मित होती देखी जा रही है।

सुबह आंख खुलते ही कई लोगों का हाथ अनायास ही सिरहाने या तकिये के नीचे रखे मोबाइल तक पहुंच जाता है, इस आशा में कि दुनिया के किसी कोने में हमसे पहले उठे प्रियजन का ‘गुड मार्निंग’ मैसेज हमें आया होगा। इस मैसेज का रिप्लाय देने के साथ ही हमारा दिन शुरू होता है। हालांकि सुबह उठते ही हम सभी अपनी दिनचर्या में व्यस्त हो जाते है। परंतु ‘गुड मार्निंग’ जैसे दो सरल शब्दों के साथ ही सही पर हमें कोई याद कर रहा है यह भाव मन को आल्हादित कर जाता है। यही आल्हादित भाव ही एक और सुखकारक अनुभूति दे जाता है कि हमारा आज का दिन अच्छा गुजरेगा।

पहले भीड़ भरी बस, रेल इत्यादि में भी लोग हाथ में अखबार, पुस्तकें, पत्र-पत्रिकाएं लिए नजर आ जाते थे। इन सब की जगह अब मोबाइल ने ले ली है। यात्रा के दौरान समय गुजारने के लिए लोग अब मैसेज चेक करते, भेजते, चैटिंग करते या गेम खेलते नजर आते हैं। बगल में बैठे सहयात्री के चेहरे पर नजर तक नहीं डाली जाती, बात करना तो बहुत दूर की बात है। भूतकाल में हुए बम विस्फोट जैसी घटनाओं को भूलकर, चारों ओर घटित हो रही अच्छी-बुरी घटनाओं को नजरअंदाज करते हुए उंगलियां केवल मोबाइल पर ही घूमती रहती हैं। वॉट्सएप पर प्राप्त मैसेज पढ़ने और फोटो देखने में हमारी आंखें और उत्तर टाइप करने में हमारी उंगलियां व्यस्त हो जाती हैं।

चौराहे पर चार दोस्त मिलते हैं तो उनमें आपस में कोई बातचीत शायद ही होती है। क्योंकि, वे चारों तो अपने अपने मोबाइल के साथ व्यस्त होते हैं। ऐसे नजारें कई जगहों पर देखने को मिल जाऐंगे। घर में या किसी होटेल में कई बार परिवार के सदस्य या मित्र एक साथ होते तो हैं, परंतु तब भी वे मोबाइल से ही चिपके रहते हैं। घर में भी माता-पिता और बच्चों का एक स्वतंत्र विश्व निर्माण होता दिख रहा है। एक साथ एक छत के नीचे होते हुए भी अलग-अलग होने का आभास होता है। एक ही शयन कक्ष में पूर्वाभिमुख होकर पत्नी चैट करती है और पश्चिमाभिमुख होकर पति चैट करता है। सब को अपनी ‘स्पेस’ चाहिए। यह प्रश्न बार-बार दिमाग में घूमता है कि कहीं हर किसी की एक अलग दुनिया तो निर्माण नहीं हो रही है? आजकल हर किसी का दिन एक दूसरे को गुड मॉर्निग स्माइली भेज कर शुरू होता है और गुड नाइट स्माइली भेजकर खत्म होता है। विरोधाभास तो यह है कि उसी कमरे में साथ रहनेवाले अपने जोडीदार से गुड मॉर्निग या गुडनाइट बहुत कम कहा जाता है। अर्थ यह है कि सहवास तो है परंतु संवाद का अभाव है।

ई-मेल, एसएमएस, फेसबुक, व्हॉट्सएप इत्यादि सूचना तकनीक की प्रगति के आधुनिक रूप हैं। इस प्रगति के कारण बहुत कुछ घटित हुआ है। सारा विश्व मानो नजदीक आ गया है। केवल एक क्लिक के माध्यम से दूसरे से संपर्क किया जा सकता है। ऑफिस के भी कई काम प्रत्यक्ष रुप से ऑफिस न जाकर ई-मेल, व्हॉट्सएप के माध्यम से हो रहे हैं। मोबाइल कांफ्रेन्सिंग के माध्यम से कई लोग फोन पर ही अपनी मीटिंग पूरीे कर लेते हैं। तुरंत निर्णय लेने और कार्य की गति बढ़ने के कारण कई अच्छी घटनाएं हो रही हैं। व्यावावहारिक विश्व में इस नेटवर्किंग का बहुत फायदा हुआ है। एक ओर बहुत विकास होता नजर आ रहा है परंतु इसके साथ ही दूसरी ओर मानवीय रिश्ते नातों में बहुत बड़ा परिवर्तन हो रहा है।

व्हॉट्सएप और फेसबुक के कारण एक दूसरे को पहचानने और न पहचाननेवाले लोग भी एक साथ आ रहे हैं। नियमित संपर्क बढ़ रहा है। पिछले कई वर्षों से न मिले स्कूल-कालेज के मित्रों से संपर्क होने लगा है। प्रत्यक्ष संवाद के स्थान पर मोबाइल पर होनेवाला आभासी संवाद बढ़ रहा है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो नऐ संबंध बन रहे हैं। व्हाट्सएप, फेसबुक के माध्यम से होनेवाले आदान-प्रदान के कारण रिश्तों में नये मोड़ आने लगे हैं। केवल एक लाइक के कारण यह लगने लगता है कि उसने मुझे समझ लिया। इससे संपर्क की भाषा में भी खुलापन आ जाता है। व्यक्तिगत जीवन और व्यक्तिगत समस्याओं को शेयर करने से रिश्ते अधिक मजबूत बनते चले जाते हैं। भावनात्मक बंध बढ़ते जाते हैं। जीवन जीने की इच्छा पुन: जागृत हो उठती है। पति-पत्नी के संबंधों में जो भावनात्मक कमी रह जाती है वह किसी और रिश्ते से पूरा होने का आभास होने लगता है। घर के ही अंदर स्वतंत्र रूप से जीने वाले, अपनी-अपनी ‘स्पेस’ संजोनेवाले दो भिन्न-भिन्न टापू तैयार हो जाते हैं। अपने ही आभासी स्वतंत्र स्पेस में जीनेवाले मन निर्माण हो जाते हैं। परंतु संवाद की इस आधुनिक तकनीक के कारण हमारे जीवन की व्यक्तिगत हद खत्म होकर हमारा जीवन सार्वजनिक कब हो जाता है पता नहीं चलता।

भावनाओं का आदान-प्रदान, आभासी स्वप्नरंजन, स्वयं की एक अलग प्रतिमा का निर्माण और इन सभी के बीच अपना एक अलग भावविश्व निर्माण करने में हर व्यक्ति खो गया है। क्या हमारी वास्तविक दुनिया एक आभासी, काल्पनिक दुनिया में परिवर्तित हो रही है? दिन भर सोशल नेटवर्किंग करनेवाले, गुड मार्निंग गुड नाइट के मैसेज करनेवाले कितने लोग अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति करते है? उन संदेशों में उनकी भावनाएं कितनी होती हैं? हमारे मन में यह शंका उत्पन्न होती है परंतु प्रत्यक्ष सोशल नेटवर्किंग करनेवालों के मन में क्या ऐसे प्रश्न निर्माण होते हैं? अधिकतर किसी का भेजा हुआ गुड मार्निंग मेसेज ही फारवर्ड किया जाता है। घंटों तक व्हाट्सएप और फेसबुक पर व्यस्त रहनेवालों में युवाओं से लेकर ज्येष्ठ नागरिकों तक सभी का सहभाग है। स्वयं को वास्तविकता से अधिक सुंदर दिखाने के लिये सोशल नेटवर्किंग पर लोग कई झूठी बातों का सहारा लेते हैं। इससे झूठ बोलनेवाले लोग और प्रवृत्ति बढ़ रही है। सोशल नेटवर्क में हम यह दिखाने की कोशिश करते हैं कि हमारा जीवन कितना रोचक है। इस कारण हम अपने जीवन और क्रियाकल्पों के संबंध में बढ़ा-चढ़ाकर बताना शुरू करते हैं। अपने जीवन को थोड़ा रोचक बनाने के लिए झूठी बातों का सहारा लेते हैं। जिन बातों का वास्तविक जीवन में अभाव होता है उन्हें सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर दिखाया जाता है। इससे एक नकली आत्मविश्वास निर्माण होता है। यही झूठ जब बढ़ जाता है तो वह तकलीफों का कारण बनता है।

इसका अगला कदम है हमेशा सोशल नेटवर्क में रहनेवालों पर पडनेवाला मनोवैज्ञानिक दबाव। आपने मेरी फोटो लाइक नहीं की, मेरे कमेंट को लाइक नहीं किया, मेरी फ्रेन्ड रिक्वेस्ट स्वीकार नहीं की इत्यादि जैसे आरोप एक दूसरे पर लगाकर यह जताने का प्रयत्न किया जाता है आप मुझे महत्व नहीं देते। अकेलेपन के कारण मिली बोरियत को दूर करने के लिये की जानेवाली नेटवर्किंग धीरे-धीरे एडिक्शन अर्थात लत बनती जा रही है। समाज में नजर डालने पर यह चित्र साफ दिखाई देता है। खासकर फेसबुक और व्हाट्सएप ने लोगों को वास्तविकता और काल्पनिकता के बीच लटका रखा है। एक नया बोझ मन पर रहता है कि हम लगातार किसी के संपर्क में बने रहें या कोई हमसे लगातार संपर्क करता रहे। अगर यह संपर्क नहीं होता तो मन अस्वस्थ हो जाता है। संवाद, विचार और कृति जैसे सभी स्तरों पर हम अनजाने लोगों से जुड़ते जा रहे हैं परंतु साथ ही अपने परिवारजनों से दूर होते जा रहे हैं। मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि इन सोशल नेटवर्किंग के बढ़ते उपयोग के कारण अनेक लोगों का जीवन समस्याग्रस्त हो रहा है। अब बड़ी संख्या में लोग मनोवैज्ञानिकों के पास परामर्श हेतु जा रहे हैं।

हमने प्रेम के कई प्रकार, छटाएं, रूप अपने आस-पास देखे हैं। हर रिश्ते से मिलने वाला प्रेम अलग होता है। शायद इनमें भी कुछ कमी रह गई है इसलिए आजकल एक नए प्रेम का उदय हो रहा है, वह नया प्रेम है ई-प्रेम। प्रत्यक्ष रूप से मिले बिना भी किया जा सकनेवाला प्रेम। कितने ही युवक-युवतियां व्हाट्सएप और फेसबुक के माध्यम से प्रेमपाश में बंधे दिखाई देते हैं। ऐसा लगता है मानो एक नई सामाजिक पद्धति आकार ले रही है। इसे नेटवर्क का प्रेमपाश भी कहा जा सकता है। आधुनिकता का आमंत्रण लेकर आई यह तकनीक एक नवीन सामाजिक संकट निर्माण कर रही है। एक ओर काल्पनिक संवादों की गुंजाइश बढ़ रही है परंतु दूसरी ओर वास्तविक संवाद खत्म हो रहे हैं। एक ओर संवाद के माध्यम बड़ी संख्या में बढ़ रहे हैं परंतु वास्तविक रूप से जिनकी भावनाएं समझनी चाहिये, जिनके सामने दिल खोलकर बात करनी चाहिये उनसे संवाद बंद हो गया है।

लगे रहो मुन्नाभाई फिल्म की आर. जे. जान्हवी के शब्दों मे कहें तो ‘इंटरनेट से दुनिया टच में तो है लेकिन पड़ोस में कौन रहता है जानते तक नहीं। मोबाइल, लैंडलाइन सब की भरमार है, लेकिन जिगरी दोस्त तक पहुंचे ऐसी तार कहां है?’ यह आज की वास्तविकता है। प्रत्यक्ष संवाद से तन-मन की भावनात्मक आवश्यकता पूरी की जा सकती है। रिश्ते में प्रेम, अपनापन, विश्वास बढ़ता है। नेटवर्किंग के माध्यम से प्रेम करने वाले इस त्रिसूत्र को भूल रहे हैं। इन सारी परिस्थितियों को देखते हुए मुझे ‘तलाश’ फिल्म का गीत याद आता है। जो इस पर सटीक बैठता है।

मन तेरा जो रोग है, मोहे समझ न आये
पास है जो सब कुछ छोड के तू दूर को पास बुलाए
जिया लागे ना, तुम बिन मोरा जिया लागे ना।

दुनिया बदल रही है। प्रसार माध्यम नए और आकर्षक तरीके से सामने आ रहे हैं। इन्हें स्वीकार करने के साथ ही हम भी बदल रहे हैं। यहां तक तो ठीक है परंतु क्या इनके कारण रिश्तों का टूटना हमें स्वीकार होगा? पति-पत्नी का रिश्ता अत्यंत भावनात्मक होता है। अगर किसी को यह लगा कि पति अपनी किसी महिला मित्र से या पत्नी अपने किसी पुरुष मित्र से बात करने में सतत व्यस्त है तो विचारों में खलबली होना स्वाभाविक है। हम आधुनिक युग में जी रहे हैं। यह यंत्र युग है और हम अगर यंत्रों का उपयोग कर रहे हैं तो इसमें क्या बुराई है? परंतु हमारा मन ‘लॉजिक्स’ पर नहीं चलता। डर तो इस बात का है कि इनके कारण उत्पन्न होनेवाली अविश्वास की भावना कहीं हमारी कुटुंब व्यवस्था को ही न तोड़ दे। पिछले कुछ दिनों में व्हाट्सएप पर एक संदेश आया था कि एक युवक के मोबाइल का नेटवर्क कुछ समय के लिये खराब हो जाता है जिसके कारण वह सोशल नेटवर्किंग नहीं कर पाता। वह घर के लोगों से बात करता है। तब उसके ध्यान में आता है कि घर में रहनेवाले लोग भी अच्छे हैं और उनसे भी कभी-कभी बात की जा सकती है। इस संदेश के पीछे छिपी भीषण वास्तविकता पहचानना जरूरी है।

अब हमारी धारणाएं ऐतिहासिक धरोहरों, संस्कारों से नहीं बल्कि नई तकनीक के आक्रमण से गढ़ी जा रही हैं। हमारे पास इतनी स्वतंत्रता है कि इन सब का चुनाव किस मर्यादा तक किया जाये। इन्हें नकारने के लिए भी हम स्वतंत्र हैं। इस व्यवस्था के नकारात्मक परिणामों को जानने के बाद भी हम इसे स्वीकारते हैं या छोड़े नहीं सकते। यह स्थिति इस व्यवस्थो के द्वारा हमारे मन-मस्तिष्क पर पड़नेवाले प्रभाव को स्पष्ट करती है।

अभी तक के अध्ययन से यह पता चला है कि इस सोशल नेटवर्किंग में अत्यंत ऊपरी और बेकार की बातें लिखने में हम अपना अमूल्य समय और ताकत गंवाते हैं। यह कितना सही है? काल्पनिक दुनिया में रमने वाले अपने नजदीकी लोगों से दूर हो जाते हैं। सोशल नेटवर्किंग की लत ऐसे ही बढ़ती रही तो हम प्रत्यक्ष संवाद, बातचीत करना भूल ही जाऐंगे। अत: इन झंझटों में पड़ने से बेहतर है कि अपने मनपसंद व्यक्ति से सीधे संवाद साधा जाए। सोशल नेटवर्किंग उतनी ही करें जितनी झेल सकें। फेसबुक और व्हाट्सएप थोड़ा समय व्यतीत करने के लिये ठीक है, परंतु उसमें अपनी दुनिया ढू़ंढने के क्या परिणाम होंगे इसका विचार करने के लिए समाज में चारों ओर पैनी निगाह से देखना जरूेरी है। फेसबुक, व्हाट्सएप से संबंधित नजदीकी और भीषणता को देखते हुए तलाश फिल्म के उसी गीत की पंक्तियां याद आती हैं-

मैं अनजानी हूं वो कहानी
होगी ना जो पूरी
पास आओगे तो पाओगे
फिर भी इक है दूरी।
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