आरक्षण नीति पर फिर से विचार होना चाहिए। आरक्षण हो या नहीं यह मुद्दा नहीं है। इसका निर्णय हो चुका है। आरक्षण तो होगा ही। अब चर्चा इस बात पर करनी है कि आरक्षण के लाभ उचित सामाजिक घटक तक कैसे पहुंचाए जाए?
धनगर समाज ने अगस्त 2014 में महाराष्ट्र के अनेक स्थानों पर आंदोलन किए। ‘रास्ता रोको’, ‘चक्का जाम’ के कारण कई स्थानों का जनजीवन अस्तव्यस्त कर दिया। कुछ समय पश्चात् मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण ने जाहिर किया कि धनगर समाज को तीसरी सूची में शामिल करेंगे; परंतु यह आश्वासन धनगर समाज को मान्य नहीं। उनकी मांग है कि धनगर समाज को अनुसूचित जनजाति में समाविष्ट किया जाए। ‘धनगर समाज आरक्षण कृति समिति’ के संगठक एकनाथ पडलकर ने इस मांग के लिए ‘रास्ता रोको आंदोलन’ का आव्हान किया। उनके आव्हान पर महाराष्ट्र में कई स्थानों पर आंदोलन शुरू किया गया।
इस समस्या का समाधान आज तक नहीं निकला और जल्द निकलने की संभावना भी नहीं है। ऐसी समस्याओं को विचारपूर्वक सुलझाना पड़ता है। जो योजना बनाई जाएगी, आगे चलकर उसका परिणाम क्या होगा, इसका विचार पहले से ही करना पड़ता है।
धनगर समाज ने अपना आंदोलन तब शुरू किया जब महाराष्ट्र के विधान सभा चुनाव सामने थे। ऐसे में कई राजनैतिक पार्टियों को इस संबंध में अपनी ठोस भूमिका प्रदर्शित करनी ही पड़ी। कांग्रेस ने धनगर समाज का समावेश तीसरी सूची में किया तो राष्ट्रवादी कांग्रेस ने उनके लिए अलग विकल्प की मांग की है।
इस मांग के लिए धनगर समाज ने अपनी सारी राजनीतिक ताकत लगा दी है। इसमें आदिवासी समाज और धनगर समाज के मध्य संघर्ष है। महाराष्ट्र विधान सभा में आदिवासी समाज के लिए 25 प्रतिशत सीटें आरक्षित हैं। इसमें से 15 सीटोें पर कांग्रेस का वर्चस्व है। राष्ट्रवादी कांग्रेस का वर्चस्व दो या तीन सीटो पर है। शिवसेना-भाजप गठबंधन के चार विधायक हैं। भूगोल के अनुसार, धनगर समाज मराठवाड़ा और पश्चिम महाराष्ट्र में फैला है। धनगर समाज का राजनैतिक नेतृत्व ‘राष्ट्रीय समाज पक्ष’ के द्वारा किया जाता है, जिसका नेतृत्व महादेव जानकर करते हैं। यह पार्टी भाजपा- शिवसेना गठबंधन का घटक पक्ष है।
धनगर समाज के नेता यह आरोप लगाते हैं कि उनके समाज को जानबूझकर अनुसूचित जनजातियों के आरक्षण से दूर रखा गया है। अनुसूचित जनजातियों की जो सूची सरकार ने बनायी है, उसमें 36वेेंं स्थान पर धनगर जाति के लिये ‘धनगड़’ शब्द का उल्लेख किया है। धनगर समाज पहाड़ों में रहनेवाला है तथा भेड़-बकरियां पालना उसका प्रमुख व्यवसाय है। धनगर समाज के नेता यह भी कहते हैं कि देश के अन्य राज्यों में धनगर समाज का समावेश अनुसूचित जनजातियों के एक वर्ग में (प्रवर्ग) किया है, पर महाराष्ट्र में ऐसा उल्लेख नहीं। वह समावेश हो इस उद्देश्य से महाराष्ट्र में उन्होंने 15 जुलाई से आंदोलन शुरू किया था।
आजकल हमारे देश में आरक्षण से संबंधित चर्चा जोरों पर है। हाल ही में पृथ्वीराज चव्हाण सरकार ने मराठा लोगों को 16 प्रतिशत और मुस्लिम समाज को 5 प्रतिशत आरक्षण दिया। इसे तुरंत लागू करने के लिए सरकारी अध्यादेश भी निकाला। अब धनगर समाज के आंदोलन ने विशाल रूप ले लिया है। इन मांगों की बारीकियों पर विचार करना जरूरी है।
सब से पहले मुस्लिम समाज के बारे में सोचें। जब संविधान समिति के सामने इस समाज के आरक्षण मुद्दा आया तो समिति में शामिल मुस्लिम सदस्यों ने कहा था कि उनके समाज को आरक्षण की जरूरत नहीं। इसी कारण मुस्लिम समाज को आरक्षण नहीं दिया गया। इस इनकार की मुस्लिम समाज की भूमिका सैद्धांतिक थी। ‘इस्लाम में जाति व्यवस्था नहीं और अल्ला के दरबार में सब एक हैं’ यह इस्लाम की मान्यता है। उनका मानना है कि जाति व्यवस्था और उससे होनेवाले अन्याय हिंदुओं द्वारा किए गए का पाप हैं; अत: हिंदू ही इसका परिमार्जन करें। उस समय आरक्षण से इनकार करनेवाला मुस्लिम समाज 1990 के दशक से आरक्षण की मांग करने लगा। इनमें भी समूचे मुस्लिम समाज के आरक्षण की मांग करने के बदले जो आर्थिक स्तर पर पिछडे हुए हैं, उन्होंने ‘ओबीसी मुस्लिम’ के रूप में अलग गुट बनाया तथा उसके लिए आंदोलन छेड़ा। फिर दलित मुस्लिम भी संगठित हुए। 1990 के दशक की मंडल आयोग की रिपोर्ट केअनुसार महाराष्ट्र की कुछ मुस्लिम जातियों का ओबीसी की सूची में समावेश किया गया है। हालांकि यह स्थिति देश के सभी राज्यों में नहीं हैे। सारांश यह कि मुस्लिम समाज कई जगहों पर आरक्षण की नयी-नयी मांगों की पेशकश कर रहा है।
राजस्थान में मीणा और गुर्जर जातियों में शत्रुता बढ़ रही है। मीणा समाज का समावेश अनुसूचित जनजातियों में होता है। शुरुआत में अनुसूचित जनजातियों में शिक्षा का अभाव था। फलस्वरूप उस समाज में पढ़े-लिखे उम्मीदवारों की कमी थी। सरकारी नौकरियों के लिए बहुत कम उम्मीदवार मिलते थे। इससे उनमें प्रतियोगिता न के बराबर थी। पर यह बात अनुसूचित जाति के संदर्भ में नहीं थी। अनुसूचित जातियों में शिक्षा के प्रसार को बढ़ावा मिला। देखते ही देखते अनुसूचित जातियों की सीटों पर जोरदार प्रतियोगिता शुरू हुई। आज महाविद्यालयों के ग्यारहवीं विज्ञान के प्रवेश की मेरिट लिस्ट को देखें तो सामान्य और आरक्षित जाति कीसीटों के अंकों में ज्यादा फर्क नहीं होता। अगर सामान्य का प्रवेश 90% पर बंद हुआ होगा तो अनुसूचित जाति की सीटों का प्रवेश 89% पर बंद होता हुआ दिखाई देगा। अनुसूचित जनजाति में अभी ऐसा नहीं हुआ। इसलिए अब धनगर समाज जैसे कुछ अन्य समाज स्वयं को अनुसूचित जनजातियों में शामिल करने की मांग कर रहे हैं।
राजस्थान का गुर्जर समाज इसी मांग पर अड़ा है। स्वतंत्रता प्राप्ति के समय राजस्थान के गुर्जर समाज और मीणा समाज की आर्थिक स्थिति मिलती-जुलती थी। परंतु बाद में मीणा समाज ने अनुसूचित जनजातियों के आरक्षण का आधार लेते हुए तेजे गति से प्रगति की। उसकी तुलना में गुर्जर समाज पिछड़ा ही रहा। इसलिए अब गुर्जर समाज भी उनका समावेश अनुसूचित जनजाति में हो ऐसी मांग कर रहा है। इसका कारण यह है कि अभी भी अनुसूचित जनजातियों में होनेवाले आरक्षण में प्रतियोगिता शुरू नहीं हुई है। महाराष्ट्र के धनगर समाज के आंदोलन के इस पहलू को भी समझ लेना चाहिए। महाराष्ट्र के धनगर समाज को आरक्षण प्राप्त है। यह आरक्षण (नोमॅडिक ट्राइब) यानी बंजारा जनजाति के अंतर्गत है। इसके पहले धनगर समाज को आरक्षण अन्य पिछड़ी जाति (यानी ओबीसी) में था। उन्होंने उसे बदलकर अपना समावेश अनुसूचित जनजातियों में ही करवाया। अब वही धनगर समाज उनका समावेश अनुसूचित जनजातियों में हो इसलिए संघर्ष कर रहा है। अनुसूचित जनजातियों में स्पर्धा इतनी तीव्र नहीं हुई यही इसका कारण है।
धनगर समाज के आंदोलन का एक फायदा यह है कि फिर एक बार आरक्षण का विषय चर्चा में आया है। इक्कीसवीं सदी में आरक्षण के विषय पर पुरजोर चर्चा हो रही है, इसे देखकर यह कहा जा सकता है कि हमारी आरक्षण नीति सफल रही है। 1950 के दशक में जब यह नीति तय की गयी थी तब इसकी सफलता पर संदेह व्यक्त करनेवाले कई लोग थे। आरोप किया जाता था कि आरक्षण से सामर्थ्य में कमी आएगी। आज तो सभी सामाजिक घटक आरक्षण की मांग को लेकर आंदोलन कर रहे हैं।
उपरोक्त सारी घटनाओं को सामने रखते हुए आरक्षण नीति पर फिर से विचार होना चाहिए। आरक्षण हो या नहीं यह मुद्दा नहीं है। इसका निर्णय हो चुका है। आरक्षण तो होगा ही। अब चर्चा इस बात पर करनी है कि आरक्षण के लाभ उचित सामाजिक घटक तक कैसे पहुंचाए जाए? इस संदर्भ में महत्त्वपूर्ण मुद्दा यह है कि आरक्षण 50% से ज्यादा न हो, यह जो शर्त रखी गई है, उसे कैसे हटाया जाए? दूसरा मुद्दा यह होगा कि सब से ज्यादा दुर्बल घटक को आरक्षण का लाभे कैसे मिलें? तीसरा महत्त्वपूर्ण मुद्दा ‘क्रिमी लेयर’ यानी उच्च वर्ग या धनिक वर्ग के संदर्भ में होगा। आज अनुसूचित जाति में ऐसे अनेक परिवार मिलते हैं, जिनकी तीन-तीन पीढ़ियों ने आरक्षण का लाभ उठाया है। अब चौथी पीढी को भी लाभ मिलें या ऐसे परिवारों पर ‘क्रिमी लेयर’ की शर्त पर आरक्षण से वंचित कर दें? इस समस्या पर विस्तार से चर्चा होनी चाहिए। अन्यथा हम सामाजिक न्याय के नाम पर नए प्रकार के अन्याय को जन्म देंगे। यह कदापि ना हो।
धनगर समाज के आंदोलन के बहाने उपरोक्त सारी बातों पर विचार हो। पार्टी की राजनीति और चुनावी राजनीति का विचार किए बिना हों। बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री नीतिश कुमार ने दलित समाज में, महादलित वर्ग का निर्माण किया है। इसमें हमें अब ‘आरक्षण के अंतर्गत आरक्षण’ को सोचना है। केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह जब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे, तब उन्होंने समाज कल्याण मंत्री हुकूम सिंह की अध्यक्षता में समिति का गठन किया था। इस समिति को ‘आरक्षण के अंतर्गत आरक्षण’ की जानकारी (लेखा जोखा) देना था।
हमारे देश के संसाधन अधूरे हैं, और मांगनेवाले ज्यादा। यह स्थिति बरकरार रहेगी। ऐसी परिस्थिति में संसाधन योग्य रीति से बंटे यह कोशिश हो। जल्द से जल्द आरक्षण के अंतर्गत आरक्षण की दिशा में प्रयास करना चाहिए। जो आरक्षण है उसे न बढ़ाकर उपलब्ध आरक्षण को सही व्यक्तियों तक ले जाने की कोशिश करनी चाहिए। दलित समाज को सही जानकारी प्राप्त करने पर पता चलेगा कि कुछ दलितों ने आरक्षण के बहुत फायदे उठाये हैं, तो कुछ दलितों को बिल्कुल नहीं मिले। ऐसे समय अगर आरक्षण के अंतर्गत आरक्षण हो तो दलित समाज की आरक्षण न मिलनेवाली जातियों को थोडे बहुत तो फायदे मिलेंगे। ऐसा दिखाई पड़ता है कि दलित समाज की कुछ जातियां समृद्धि की ओर बढ़ रही हैं और कुछ जातियों को जरा भी फायदे नहीं मिलते। इससे अलग सामाजिक समस्याएं निर्माण होंगी। इसलिए सारे पहलुओं का विचार करके समाधान ढूंढना चाहिए। इसी कारण ‘आरक्षण के अंतर्गत आरक्षण’ पर विचार होना चाहिए।
————