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पानी की उत्पादकता बढ़ाने का प्रयास हो…

पानी की उत्पादकता बढ़ाने का प्रयास हो…

by अमोल पेडणेकर
in अक्टूबर २०१५, सामाजिक
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मन को आल्हादित कर देने वाली और प्रत्येक संवेदनशील मन के तारों को छेड़ने वाली बारिश सभी के लिए आनंद का विषय होती है। उसकी अमृतधारा बरसते ही मन तृप्त हो जाता है। फसलें लहलहाने लगती हैं और प्यासे तालाब, बांध भी तृप्ति का अनुभव करते हैं। परंतु आनंद के इस अनुभव पर इस वर्ष चिंता की छाया दिखाई दे रही है। यह छाया दिन-प्रतिदिन और गहरी होती जा रही है। हमारा पारंपरिक विश्वास है कि मानसून का आगमन, उसकी कालावधि, उसका ़समय पर बरसना पहले से निर्धारित होता है। फिर भी हर वर्ष बारिश अपना स्वतंत्र चेहरा लिए होती है। बारिश के इतिहास पर नजर डालें तो वह कभी उन्मुक्त होती है, कभी उतावली होती है, कभी प्रसन्न होती है, तो कभी रूठी हुई होती है। वह कभी निश्चयी, कभी मनमौजी, तो कभी-कभी विक्षिप्त भी होती है। इस प्रकार के विभिन्न रूपों वाली बारिश इस साल कुछ रूठी हुई सी लगती है।

कई वर्षों के पश्चात इस वर्ष बारिश ने मृग नक्षत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज की। कई स्थानों पर बुआई के लिए आवश्यक बारिश का पानी मिलने के कारण किसान खुश थे। मृग नक्षत्र में बुआई करने पर उत्पादन अच्छा होता है। अत: किसानों ने जल्दी ही बुआई कर दी थी। बुआई के बाद की पहली बारिश अच्छी होने के कारण उनमें अंकुर भी आ गए। परंतु अब लगभग १५ जून के बाद से १५ सितम्बर तक तो जैसे बारिश ने बहिष्कार ही कर दिया है। प्रतिवर्ष अगहन (आषाढ़) के बाद सावन में बरसने वाली मुक्त फुहारों का हम अनुभव लेते हैं। सावन हमेशा ही मनभावन होता है। परंतु इस वर्ष जुलाई, अगस्त, सितम्बर के मध्य तक बारिश का नामोनिशान नहीं है। मौसम विभाग का मानना है कि बाकी दिनों में भी कुछ खास बारिश नहीं होगी। यही नहीं, अब मानसून भी लौट जाएगा। किसान इस उम्मीद पर थे कि शुरू के दो महीने या अब जाते-जाते ही सही, बारिश होगी। अब यह उम्मीद भी नहीं दिखाई देती। अर्थशास्त्र की लगभग हर किताब यही कहती है कि भारतीय खेती किसी जुए की तरह है। जीतने की आशा लिए भारतीय किसान हर साल यह जुआ खेलता है और द्रौपदी को दांव पर लगाने की तरह ही अपना सब कुछ दांव पर लगा देता है।

बारिश के बारे में मौसम विभाग का ताजा आकलन यह है कि अकाल की आशंका मूर्त रूप ले सकती है। जिस अल नीनो इफेक्ट के बारे में बहुत पहले से विशेषज्ञ बात करते रहे हैं, वह अब रंग दिखाने लगा है। प्रशांत महासागर के विषुवृत्तीय भाग में पानी के तापमान में असाधारण रूप से वृद्धि होती है। उसका प्रभाव दुनिया के हर हिस्से पर होता है। इसे अल नीनो कहा जाता है। मौसम विभाग का अंदाजा है कि सितम्बर में भी बारिश औसत से कम ही होगी। एक जून से अभी तक सारे देश में ६०० मिमी बारिश हुई है। यह औसत से लगभग १२ प्रतिशत कम है। अगर मौसम विभाग के अनुमान के अनुसार आगे भी बारिश नहीं हुई तो इस साल बारिश लगभग ८८ प्रतिशत से भी कम होगी। जिसका अर्थ है सबसे बड़ा अकाल।

किसान अत्यंत आशा और चिंता के साथ आसमान में नजरें गडाए बैठा है। खेतों की फसलें बारिश की नाराजगी के कारण सूख गई हैं। आने वाले महीनों में रबी फसलों की बुआई के लिए भी बारिश की जरूरत है। अगर बारिश ने निराश किया तो खरीफ और रबी दोनों फसलों पर इसका असर होगा। परिणामस्वरूप किसानों को नुकसान होगा, खेती पर आधारित ग्रामीण बाजार सुस्त हो जाएंगे। बारिश न होने के कारण भूजल स्तर भी नहीं बढ़ेगा। कुएं, कूपनलिकाएं सूख गई हैं। गावों के कुओं में भी पानी नहीं है। पालतू पशुओं के लिए तो चारा और पानी के वैकल्पिक ठिकाने स्थापित किए जाते हैं। परंतु वन्य प्राणियों का क्या होगा? जंगलों का क्या होगा? कम बारिश की सबसे अधिक मार खेती पर ही पड़ने वाली है। इसका मानवीय जीवन पर भी प्रतिकूल परिणाम होगा।

अब बारिश के बारे में फिर से खूब चर्चाएं होंगी। फिर एक बार मनुष्य की उपभोगवादी प्रवृत्ति पर लोग बहस करेंगे। उसकी गंभीरता की भी बातें होंगी। परंतु यह सोचना आवश्यक है कि इन सभी समस्यओं का हल हम किस तरह निकालते हैं। सारे क्रियाकलापों को करते समय हमें पर्यावरण से सम्बंधित समस्याओं की ओर अत्यंत संवेदनशील दृष्टिकोण अपनाना होगा। अन्यथा विकास किसके लिए और क्यों जैसे प्रश्नों का उत्तर देना कठिन हो जाएगा। ऐसा विकास बेमानी है जो विनाश को आमंत्रण देता हो। ऐसे विकास को क्या कहा जाए जो सम्पूर्ण मानव जाति को संकट में डाल रहा हो। मानवों के क्रियाकलापों से बढ़ने वाला वैश्विक तापमान पृथ्वी के विनाश का कारण बन रहा है। परंतु जो पेट्रोल और ऑटो कंपनियां इस धुंए के उद्योग पर ही टिकी हैं, वे इस सत्य को भी झुठला रही हैं और दुनिया भर के राजनेता इन कंपनियों की नाराजगी झेलने को तैयार नहीं है।

प्रकृति के आगे किसी की क्या चलेगी? यह कह देना बहुत आसान है क्योंकि इससे उत्तरदायित्व निभाने की आवश्यकता ही नहीं रह जाती। अपनी जिम्मेदारी झटक देना बहुत आसान हो जाता है। अविकसित देश इस तरह की भाषा बोल सकते हैं, परंतु महासत्ता बनने की इच्छा रखने वाला देश ऐसी बातें करके आसानी से नहीं छूट सकता। क्या हमारे यहां का आपदा प्रबंधन अकालग्रस्तों को मुआवजे के धनादेश बांटने तक ही सीमित है? आज मनुष्य जो गलतियां कर रहा है उसकी सजा आने वाली पीढ़ियों को भुगतनी होगी। प्रकृति का ध्वंस करने का विचार छोड़ कर अब नए विकल्पों के बारे में सोचना ही होगा। यह समय की मांग है। मौसम विशेषज्ञों का मानना है कि अकाल, आवश्यकता से कम बारिश आदि संकट भविष्य में आते ही रहेंगे। इस पक्ष को ध्यान में रख कर हमें अब अपना दृष्टिकोण बदलना होगा। सभी जगह अकाल की स्थिति उत्पन्न होने के बावजूद भी हम अभी भी पानी के उपयोग को लेकर गंभीर नहीं हैं। स्वतंत्रता के बाद से अब तक हमने पानी के लिए आधारभूत संरचना निर्माण करने के कामों में समय गंवा दिया है परंतु जो पानी हमें उपलब्ध है उसकी उत्पादकता बढ़ाने के संबंध में विचार करना अधिक महत्वपूर्ण है। भविष्य में परिस्थिति सुधर सकती है। बारिश मानवीय जीवन को आनंद देने वाला अनुभव बने यह स्वप्न हम सभी को देखना चाहिए और उस दिशा में प्रयत्न भी करने चाहिए।

अमोल पेडणेकर

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