तेज न्याय प्रक्रिया की जरूरत

ये कहावत मशहूर है, जिंदगी में कुछ भी हो जाए, काले कोट वालों से दूर रहे। आज चाहे पति-पत्नी के झगड़े हो, चाहे पिता-पुत्र के झगड़े हो, चाहे व्यवसायिक भागीदारों के झगड़े हो, चाहे दो व्यावसायिक कंपनियों के झगड़े हो, चाहे दो सरकारों के झगड़े हो, हर किसी को न्याय दिलाने वाला यह काला कोट इतना बदनाम कैसे हो गया। इस पहेली को सुलझाने के लिए इसकी जड़ में जाना आवश्यक है।

काला कोट धारण करने वाला वकील जब न्यायालय के समक्ष खड़े होकर अपने वादी या प्रतिवादी की तरफ से दलीलें देता है तो न्यायिक प्रक्रिया में उसका चरित्र एक सहकारी का होता है, जो न्यायाधीश को न्याय देने में सहकार्य करता है। जबकि आज वो वकील सिर्फ और सिर्फ उस दृष्टि से देखा जाता है कि वो अपने पक्षकार के लिए सच्ची या झूठी दलीलें सिर्फ और सिर्फ पक्षकार को मुकदमा जिताने के लिए करता है।

इसकी दूसरी और बहुत ही महत्वपूर्ण वजह मुकदमों में पड़ने वाली तारीख पे तारीख भी है, जो आम आदमी को न्याय पाने के लिए अदालतों में जाने से डराती है। और हो भी क्यों न, जब एक मुकदमे का फैसला आने में कई पीढ़ियां निकल जाती हैं। आज इस लेख के माध्यम से मैं आम लोगों तक इसके कारणों को पहुंचाना चाहता हूं। हमारी न्यायिक प्रक्रिया में दो प्रकार की अदालतें होती हैं, एक वे अदालतें जो केस को चलाती हैं और दूसरी वे अदालतें जो केस को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर विचार करती है।

दुर्भाग्यवश हमारे देश में कई बार न्यायालयों की संख्या के बारे में सुझाव देने के लिए समितियां बनी हैं, किंतु चालीस साल पहले बनी समिति के सुझावों को भी पूर्ण रूप से लागू करने के लिए हमारी सरकारें असफल रहीं। न्यायालयों की संख्या कम होने के कारण छोटे-छोटे प्रार्थना पत्र भी उच्च न्यायालयों में वर्षों लंबित रहते हैं और उन लंबित प्रार्थना पत्रों के कारण मुकदमे को चलाने के लिए कनिष्ठ न्यायालय उन मुकदमों में तारीख पे तारीख ही देती है।

कनिष्ठ न्यायिक दंडाधिकारी से लेकर राज्य की उच्च न्यायालयों और उच्च न्यायालयों के आदेशों पर पुनर्विचार करने वाली सर्वोच्च न्यायालय तक का सफर तय करने में एक मुकदमे को तकरीबन १०-१२ साल लग जाते हैं। और उन मुकदमों में छोटे मुद्दों पर चुनौती वाले प्रार्थना पत्र इन न्यायालयों से गुजरते हैं तो ये समय २०-३० वर्ष तक हो जाता है और वादी या प्रतिवादी के हिस्से में आती है तो तारीख पे तारीख।

       बसपा सांसद सतीश मिश्र द्वारा भारतीय न्याय प्रक्रिया पर  संसद में दिये गये भाषण के प्रमुख अंशः-

लोकसभा में जो चर्चा हो रही है, उसको पूरा देश देख रहा है। उसका पूरे देश में प्रसारण होता है। लेकिन अदालत के अंंदर क्या हो रहा है?, किस तरह की प्रोसीडींग हो रही है?, किस तरह से वकीलों के साथ बर्ताव हो रहा है, किस तरीके से निर्यण किए जा रहे हैं, वह किसी को देखने को नहीं मिलता। इसीलिए मेरी ये बिनती भी है और ये केन्द्र सरकार को देखना चाहिए कि इस तरह का एक लिस्टलेश्न लाइए, और इस तरह की व्यवस्था बनाइए, जिसमें कोर्ट की जो कार्यवाही चल रही है, वहां किस तरीके से काम हो रहा है, यह सभी को दिखाई दे। आज वकील अगर कोई बात कह देता है तो उसे अदालत की अवमानना कानून के अंतर्गत जेल हो जाती है। इनमें बार काउन्सिल, यूपी ही नहीं, बार काउन्सिल इंडिया के एक पूर्व चेयरमैन भी शामिल हैं, जिन्हें जेल की सजा हो गई थी। क्योंकि उन्होंने कुछ बात कह दी थी। अगर सत्य भी कह दिया जाए तो अदालती अवमानना कानून यह कहता है कि भले ही तथ्य को सत्य कह रहे हैं, लेकिन अगर वह अदालती गरिमा के खिलाफ है, तो आपको जेल हो जाएगी। आप दोषी हो जाएंगे और आपकी सनद छीन जाएगी। इस तरह का कानून किसने बनाया है? इस संसद ने बनाया है। हम जिम्मेदार हैं। इस तरह का अधिकार देने के लिए।  हमें सोचना चाहिए, कुछ चीजें जो हमारे अधिकार में हैं, उन्हें तो हम लोग देखें कि किस तरह से न्यायपालिका की जो बात कर रहे हैं, वह किस तरह दुरुपयोग हो रहा है, किस तरह से बर्ताव हो रहा है, किस तरह से फैसलें हो रहे हैं। आज की तारीख में जब मुकदमों के फैसलों में विलम्ब हो जाता है तो कहा जाता है कि इतनी देरी क्यों है? एक प्रणाली बना दी है भारत सरकार ने कि एक राज्य के मुख्य न्यायाधीश दूसरे राज्य में जाएंगे और दूसरे राज्य के यहां आएंगे। उस राज्य का मुख्य न्यायाधीश उसी राज्य में नहीं होगा। यह प्रणाली पूरी तरह विफल हुई है। पदों की रिक्तता का मुख्य कारण भी यही है। क्योंकि जो दूसरे राज्य से आते हैं उनकी नजर इस बात पर होती है कि हम कब सुप्रीम कोर्ट पहुंच जाए और यहां कोई ऐसा काम न करे, जिससे लोग उनके खिलाफ बोले। पद रिक्तता का कारण यही है, जो लगातार जारी है। पद रिक्तता अचानक नहीं होती है। जिस दिन न्यायाधीश की नियुक्ति होती है उसी दिन उसका निवृत्ति दिन तय होता है। उसे मालूम है कि फलां तारीख को वे ६२ साल के हाे जाएंगे तो निवृत्त हो जाएंगे। फिर भी हम उस सिस्टम को ऐसा बनाए हुए हैं कि हम उसको पेंडिंग रखना चाहते हैं, और पेंडिग रखते हैं। हम उसमें उसके भागीदार बन जाते हैं। और इस वजह से वहां पर केसेस भी पेंडिंग रहते हैं और नियुक्तियां भी पेंडिंग रहती हैं।      

मेरा मानना है कि अगर इस देश को प्रगति के साथ ही एक स्वस्थ समाज की भी रचना करनी हो तो हमारी न्यायिक व्यवस्था में मूलभूत परिवर्तन की आवश्यकता है। और यह परिवर्तन नीचे की अदालतों से न होते हुए सर्वोच्च न्यायालयों से करना होगा ताकि उन मुकदमों के आदेशों को दी जाने वाली चुनौती एक सीमित समय में समाप्त की जा सके और इनसे मुकदमों की गति में एक धार दी जा सके।

आज चाहे यूरोपीय देश हो, चाहे अमेरिका हो, वहां की तुलना में हमारे यहां अदालतों की संख्या जनसंख्या के अनुपात में बहुत ही कम है। न्यायिक प्रक्रिया में होने वाली देरी अपराधों की संख्या में बढ़ोतरी करती है। सच पूछा जाए तो हमारे देश के सामने भष्मासुर की तरह खड़ा भ्रष्टाचार भी इसी न्यायिक प्रक्रिया की देन है। एक प्रगतिशील देश और स्वस्थ समाज के लिए एक सुदृढ़ और सुव्यवस्थित न्यायिक प्रक्रिया का होना अत्यंत आवश्यक है। कहां जाता है कि ‘‘Justice Delayed is justice denied’’ आवश्यक है कि सरकार इस पहलू पर गंभीरता से विचार करें और आने वाले भारत को एक सुदृढ़ और न्यायिक प्रक्रिया प्रदान करें।

 

Leave a Reply