प्रखर राष्ट्रभक्त सरदार पटेल

“अंतरिम सरकार का गृह मंत्रालय मुस्लिम लीग को न देने पर दृढ़ता पूर्वक अड़े रहने का सवाल हो, जूनागढ़ तथा हैदराबाद रियासतों का शक्ति के साथ विलय हो, कश्मीर के मामले में पटेल का नेहरू जी से अलग दृष्टिकोण हो, सोमनाथ मंदिर के पुननिर्माण में उनकी भूमिका जैसे अनेक विषय थे, जिनके कारण सरदार पटेल पर हिन्दुवादी होने के आरोप लगे। वस्तुत: वे एक प्रखर राष्ट्रवादी थे।”

सरदार पटेल का स्मरण होते ही फौलादी इरादों वाले, बेबाकी के साथ अपने विचारों को रखने वाले, दूरदर्शी, कठोर प्रशासक, परंतु अंदर एक भावुक हृदय रखने वाले, अपने सिद्धांतों से समझौता न करने वाले प्रखर राष्ट्रवादी व्यक्ति की तस्वीर साकार हो उठती है।

बंटवारे की विभीषिका से गुजरने वाला देश अभी पूरी तरह सम्हल भी नहीं पाया था कि अंग्रेजों द्वारा स्वतंत्र घोषित देशी रियासतों ने स्वतंत्र भारत की पहली केंद्रीय सरकार पर आंखें दिखाना शुरू कर दिया। दूसरे विभाजन के भय से चिंतित राजनेता किंकर्त्तव्यविमूढ़ता की स्थिति में थे। ऐसे कठिन समय में जिस साहस, दूरदर्शिता एवं कूटनीतिज्ञता का परिचय देते हुए सरदार वल्लभ भाई पटेल ने जहां जरूरत पड़ी वहां शक्ति का प्रयोग कर और जहां जरूरत पड़ी वहां राजनीतिक चतुराई के साथ सभी देशी रियासतों का विलय किया वह दुनिया के इतिहास में एक अनुपम घटना है। इस सफलता ने सरदार पटेल को आधुनिक भारत का निर्माता बना दिया।

सरदार पटेल का जन्म 31 अक्टूबर 1875 में गुजरात के करमकर गांव में झबेर भाई पटेल और लाड़बाई दंपति के यहां हुआ। वल्लभ भाई पटेल को राष्ट्रभक्ति का भाव, अन्याय के विरुद्ध लड़ने का साहस अपने पिता झबेर भाई से विरासत में मिला था। 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के समय झबेर भाई की आयु केवल 20 वर्ष थी। उन्होंने स्वाधीनता संग्राम के लिए गृह त्याग कर दिया। स्वाधीनता सेनानियों की मदद करते हुए आखिरकार महारानी लक्ष्मी बाई की सेना में शामिल होकर अंग्रेजों के साथ युद्ध किया। इंदौर के राजा ने झबेर भाई को गिरफ्तार कर लिया। झबेर भाई की शतरंज खेल पटुता पर मुग्ध होकर राजा ने कुछ दिन बाद ही उन्हें मुक्त कर दिया। झबेर भाई अपने गांव वापस आ गए। ‘मां’ लाड़बाई एक धर्मपरायण महिला थी। म. गांधी के आहवान पर उन्होंने भी खाली समय में चरखा चलाना प्रारंभ कर दिया था। चार भाई और एक बहिन में से विट्ठल भाई और वल्लभ भाई आगे चलकर स्वतंत्रता संग्राम के महानायक बने।

अपने निर्भीक स्वभाव एवं अन्याय के विरुद्ध लड़ाकूपन के कारण बचपन से ही वल्लभ भाई की अपने शिक्षकों से तनातनी बनी रहती थी। इसी के चलते नडिया़द जैसी छोटी जगह से बेहतर पढ़ाई के लिए बड़ौदा में पढ़ने आए वल्लभ भाई पटेल को स्कूल छोड़ पुन: नडिया़द वापस आना पड़ा। परंतु उनकी शिक्षा के प्रति लगन में कोई कमी नहीं आई। उन्होंने आगे की पढ़ाई पूरी मेहनत के साथ जारी रखी। यह महत्वाकांक्षी युवक विलायत जाकर वकालत की पढ़ाई करना चाहता था, परंतु प्रतिकूल आर्थिक परिस्थितियां उनके मार्ग में बाधा बन कर खड़ी थी। उन्होंने स्वावलंबन से धन कमाने का निश्चय किया। 1900 में मुख्तारी की परीक्षा पास कर वकालत प्रारंभ की। धीरे-धीरे उनकी गिनती सफल वकीलों में होने लगी। मेहनती वल्लभ भाई की वाकपुटता एवं अकाट्य तर्कों से अंग्रेज अधिकारी एवं पुलिस वाले आतंकित रहा करते थे। उनके वकालत जीवन के अनेक ऐसे किस्से मशहूर थे।

1910 में वल्लभ भाई विलायत गए और अपनी वकालत की पढ़ाई की महत्वाकांक्षा को अंजाम देने में जुट गए। लगनशील वल्लभ भाई ने एक अच्छे स्कॉलर होने के कारण दो टर्म की छूट के साथ ऑनर्स श्रेणी में 50 पौंड का पुरस्कार प्राप्त करते हुए ससम्मान वकालत की परीक्षा उत्तीर्ण की।

स्वदेश लौटने पर उन्होंने अहमदाबाद में अपनी प्रैक्टिस प्रारंभ की। यह 1918 का कालखण्ड था जब म. गांधी दक्षिण अफ्रीका से स्वदेश वापस लौट चुके थे। शुरुआती दौर में वल्लभ भाई म. गांधी से किंचित भी प्रभावित नहीं थे। वे म.गांधी का मजाक उड़ाते हुए कहते कि ‘म. गांधी तो अंग्रेजों के सामने ब्रह्मचर्य का राग अलापते रहते हैं।’ म. गांधी ने चम्पारण में सेवाकार्य के द्वारा जिस प्रकार लोगों का दिल जीता उससे भयभीत होकर अंग्रेजों ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। इस समय म. गांधी ने जिस दृढ़ता का परिचय दिया उससे वल्लभ भाई पटेल बहुत प्रभावित हुए और म. गांधी के अनन्य भक्त के रूप में सामाजिक गतिविधियों में सक्रिय हो गए।
इसी बीच दिल्ली में भयंकर दंगे भड़के। महात्मा गांधी को दिल्ली जाते हुए गिरफ्तार कर लिया गया। इस गिरफ्तारी ने आग में घी काम किया। गुजरात सहित पूरे देश में जगह-जगह दंगे भड़क उठे। सरकार ने इस बार अत्याचार की हद पार कर दी। जलियांवाला बाग काण्ड अंग्रेजी बर्बरता के इतिहास का काला अध्याय बन गया।

महात्मा गांधी सहित सभी नेता इन परिस्थितियों से बहुत दुखी हो गए। सरकार के विरुद्ध पूर्ण असहयोग आंदोलन की घोषणा कर दी गई। ब्रिटिश सरकार की समस्त उपाधियां लौटा दी गईं। सरकारी नौकरियों, स्कूल कॉलेजों व विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार किया गया। वल्लभ भाई पटेल ने भी अब खादी पहननी प्रारंभ कर दी, वकालत छोड़ दी, पुत्र-पुत्री का स्कूल छुड़वा दिया। पूरी निष्ठा के साथ आंदोलन को सफल बनाने में जुट गए।

1921 में अहमदाबाद कांग्रेस अधिवेशन में वल्लभ भाई पटेल को स्वागताध्यक्ष बनाया गया। उनके नेतृत्व में इस अधिवेशन की व्यवस्था की गई। अधिवेशन सफल रहा। म. गांधी ने स्वयं सविनय कानून भंग संबंधी प्रस्ताव रखा। इसी अधिवेशन में सविनय कानून भंग के आंदोलन के सारे अधिकार म. गांधी को दिए गए। चौरा चौरी की हिंसक घटना, गांधीजी द्वारा आंदोलन वापस लेना, जालियांवाला काण्ड, गांधीजी की गिरफ्तारी ऐसी घटनाएँ थीं जिनसे देश में निराशा का वातावरण फैल गया। परंतु ऐसे समय में भी वल्लभ भाई पटेल रचनात्मक कार्य में लगे रहे। उन्होंने इस माहौल में भी गुजरात विद्या पीठ के लिए 10 लाख रूपये इकट्ठे कर लिये।

सेठ जमनालाल बजाज व सरदार वल्लभ भाई पटेल ने सरकार द्वारा कांग्रेस की झण्डा रैलियो पर लगाये गये प्रतिबंध को तोड़ कर सत्याग्रह प्रारंभ किया। अंतत: पटेल को गवर्नर के द्वारा बातचीत के लिये बुलाना पड़ा। 1923 में सभी सत्याग्रही बंदी निशर्त रिहा कर दिये गये। 1923 में बोरसद परिषद की प्रजा पर लगे आतंकवादी प्रश्रय के आरोप का विरोध हो, चाहे आणंद के किसानों पर लगाये गये अतिरिक्त कर का विरोध हो, इन आंदोलन को वल्लभ भाई ने सफलता पूर्वक अंजाम दिया और सरकार को झुकना पड़ा। सरदार पटेल की त्याग, ईमानदारी व सेवाभाव का ही परिणाम था कि गुजरात के भयंकर बाढ़ से हुई हानि को देखने के लिये सरदार पटेल के आग्रह पर स्वयं वायसराय आए। वायसराय ने एक करोड़ की राशि सहायता के रूप में दी। यह चमत्कार केवल सरदार वल्लभ भाई ही कर सकते थे।

बारडोली गुजरात का एक संपन्न क्षेत्र था। वहां ब्रिटिश सरकार ने 30 प्रतिशत कर बढ़ा दिया। इधर किसानों की माली हालत ऐसी न थी कि 30 प्रतिशत वृद्धि को सहन कर पाते। वल्लभ भाई पटेल ने कांग्रेस के जांच दल को परिस्थिति का आंकलन करने भेजा। रिपोर्ट मिलने पर स्वयं वहां गए। बारडोली के किसानों की हालत देखकर पटेल को बहुत पीड़ा हुई। वे किसानों के इस दर्द को दूर करने के लिए आगे आए। उन्होंने किसानों के बीच जाकर सत्याग्रह की अलख जगाई। किसानों ने अपनी विशाल सभा में 30 प्रतिशत बढ़ा लगान कम होते तक लगान नहीं देने का प्रस्ताव पास किया। परिणाम स्वरूप अंग्रेज अधिकारियों का किसानों पर अत्याचार बढ़ता गया। जमीन जायदाद कुर्क की जा रही थी, पशु जब्त किए जा रहे थे। सरकारी नौकरियां छिनी जा रही थीं लेकिन किसानों का निश्चय अटल था, लगान का एक भी पैसा जमा नहीं हो रहा था। संगठित किसानों का नैतिक बल बढ़ता जा रहा था। उधर सत्याग्रह के सामने सरकार कमजोर पड़ रही थी। यह सरदार पटेल के कुशल नेतृत्व का परिणाम था कि सरकार ने सत्याग्रहियों की मांग स्वीकार कर ली। बारडोली का आंदोलन केवल एक क्षेत्र का आंदोलन नहीं था, पूरा देश इससे प्रभावित था। इसकी सफलता ने सत्याग्रह के प्रति देश में विश्वास का वातावरण उत्पन्न किया। राष्ट्रीय समाचार पत्रों में इस सत्याग्रह के कई किस्से सुर्खियों में प्रकाशित हुये, अब वल्लभ भाई पटेल पूरे देश के नेता हो गए।

महात्मा गांधी ने पटेल की संगठन कुशलता, अप्रतिम साहस, वक्तृत्वकला को इस सत्याग्रह के दौरान बड़ी गहराई से अनुभव किया। उन्होनें वल्लभ भाई को ‘सरदार’ की उपाधि से सम्मानित किया। तब से सरदार शब्द वल्लभ भाई पटेल के नाम के पहले लगाने का प्रचलन शुरू हो गया। अब वे सरदार वल्लभ भाई पटेल हो गए। वल्लभ भाई ने अपने कृतित्व से अपनी इस उपाधि को सार्थक कर दिखाया।

1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के समय सरदार पटेल का स्वास्थ्य ठीक नहीं था। फिर भी पूरे भारत का उन्होंने दौरा किया। देश की जनता को भावी आंदोलन के लिये मानसिक रूप से तैयार करने के लिए उन्होने देश में धूम-धूम कर आग उगलने वाले भाषण दिये। इस अवसर पर वे कहा करते ‘इस लड़ाई में केवल वे ही लोग शामिल हो जो अपने सिर पर कफन बांध कर आए हो। यदि अब पूछे कि इस लड़ाई में शामिल होने से क्या मिलेगा तो मैं कहूंगा कुछ नहीं। यदि ऐसा निश्चय हो तबी लड़ाई में शामिल हो अन्यथा अपने घर में आराम से बैठे।’ पूरे देश में आंदोलन की आंधी चली। सरदार पटेल 68 मेरीन ड्राइव से उनकी पुत्री मणीबेन के साथ बंदी बना लिए गए। उनके पुत्र डाह्या भाई पटेल को भी बाद में बंदी बना लिया गया। इस दौरान पूरा परिवार जेल के सीखचों के पीछे था।

दूसरे महायुद्ध के समय जब महात्मा गांधी अंग्रेजों को निशर्त समर्थन देने के पक्षधर थे। वही सरदार पटेल सशर्त समर्थन देना चाहते थे। उन्होंने गांधी से कहा मैं आपकी अहिंसा के सिद्धांत का पूर्ण समर्थक हूं। लेकिन मैं यह नहीं मानता कि भारत को पूर्ण स्वायत्तता देने की शर्त पर इंग्लैड का युद्ध में समर्थन न किये जाने से किसी भी तरह से मेरी अहिंसा की प्रतिज्ञा भंग होगी। फिर भी यदि आप आज्ञा देंगे तो मै अपना मत एक ओर रखकर आपकी आज्ञा का पालन करूंगा।

देशी रियासतों को भारत में मिलना एक कठिन काम था। देश में अराजकता की स्थिति थी। सरदार पटेल की सुझ-बुझ से जूनागढ़, हैदराबाद तथा कश्मीर को छोड़कर सभी राज्यों ने भारत में विलय की संधि पर हस्ताक्षर कर दिए। जूनागढ़ का नवाब पाकिस्तान में विलय चाहता था। परन्तु वहां की हिन्दू बहुल जनता ने पाकिस्तानी उपद्रवियों के अत्याचारों के बावजूद सांवलदास गांधी के नेतृत्व में विद्रोह कर दिया। विद्रोह इतना जबरदस्त था कि नवाब को पाकिस्तान भागना पड़ा। हैदराबाद का निजाम अपने राज्य को स्वतंत्र बनाए रखने के लिए षड्यंत्र करता रहा। इसके लिए उसने पाकिस्तान व चोको स्वालिया की सहायता लेने की कोशिश भी की। सरदार पटेल अधिक दिन तक मूक दर्शक बने नहीं रहना चाहते थे। उन्होंने निजाम के विरुद्ध सैनिक कार्यवाही करने का निर्णय लिया। 108 घंटे की सैनिक कार्यवाही के बाद निजाम को समझौते पर हस्ताक्षर करने पर मजबूर कर दिया गया।

कश्मीर का मामला स्वयं पंडित जवाहर लाल देख रहे थे। सरदार पटेल न तो कश्मीर के मामले को राष्ट्रसंघ में ले जाने के पक्षधर थे न ही अलग संविधान के पक्षधर थे। पटेल तो चाहते थे कि कश्मीर में पाकिस्तान से आए शरणार्थियों को बसाया जाए। यदि ये बातें मान ली गई होतीं तो कश्मीर में आज की विस्फोटक स्थिति का सामना नहीं करना पड़ता।

सोमनाथ के प्रसिद्ध मंदिर की संपदा को आक्राताओं ने बार-बार लूटा। 1024 में महमूद गजनवी ने इसे ध्वस्त ही कर दिया था। सरदार पटेल ने पंडित जवाहर लाल नेहरू जैसे दिग्गज नेताओं के असहमति के बाद भी इस मंदिर के पुननिर्माण के लिए सौराष्ट्र सरकार के राजप्रमुख के नेतृत्व में ट्रस्ट का गठन करवाया, जिसमें के. एम. मुंशी व गाड़गिल सदस्य थे। 11 मई 1951 को डॉ. राजेंद्र प्रसाद के हाथों पूरे विधि विधान के साथ मूर्ति की स्थापना की गई। यद्यपि यहां भी नेहरूजी नहीं चाहते थे कि एक राष्ट्राध्यक्ष के रूप राजेन्द्र प्रसाद इस कार्यक्रम में भाग ले।
अंतरिम सरकार का गृह मंत्रालय मुस्लिम लीग को न देने पर दृढ़ता पूर्वक अड़े रहने का सवाल हो, जूनागढ़ तथा हैदराबाद रियासतों का शक्ति के साथ विलय हो, कश्मीर के मामले में पटेल का नेहरू जी से अलग दृष्टिकोण हो, सोमनाथ मंदिर के पुननिर्माण में उनकी भूमिका जैसे अनेक विषय थे, जिनके कारण सरदार पटेल पर हिन्दुवादी होने के आरोप लगे। वस्तुत: वे एक प्रखर राष्ट्रवादी थे। आज की तरह उस समय भी राष्ट्रवाद को हिन्दुवाद के रूप में देखने का कुछ लोगों का दृष्टिकोण था।

सरदार पटेल और महात्मा गांधी जैसे नेताओं ने देश विभाजन की योजना को पहले तो अस्वीकार कर दिया परंतु अंग्रेजों की कुटिल चाल में फंसे मुस्लिम नेताओं की हठधर्मिता के कारण उत्पन्न हिंसा के चलते मजबूरी में देश विभाजन के प्रस्ताव को स्वीकार करना पड़ा। 14 जून 1947 की कांग्रेस महासमिति की बैठक में उपस्थित सरदार पटेल ने इस पर भारी दुख प्रकट किया और कहा कि इसके अलावा कोई रास्ता भी नहीं बचा है। उनके उस वक्तव्य से एक सच्चे राष्ट्र भक्त की पीड़ा मुखर हो रही थी।

देशी रियासतों के विलय की कार्यवाही चल रही थी, सरदार पटेल राजस्थान हवाई जहाज से जा रहे थे, विमान में खराबी आने पर कुशल विमान चालक ने नदी किनारे रेत पर विमान को सुरक्षित उतार लिया। जयपुर में व्ही. पी. मेनन को समाचार मिलते ही वे भावविभोर होकर पटेल से पूछने लगे ‘आप स्वस्थ्य तो है न?’ भारत की अखण्डता के लिए समर्पित सरदार ने कहा ‘जब तक भारत को एकता के एक सूत्र में न पिरो दूं तब तक मैं मरूंगा नहीं।’

उनके निजी सचिव श्री व्ही. शंकर के शब्दों में कहे तो-

“…इतिहास में शायद की कोई ऐसी मिसाल मिले जब किसी राजनीतिज्ञ या राजनिर्माता को सत्तर वर्ष का होने पर अपने जीवन के आखिरी तीन-चार वर्षों में इतनी बड़ी सफलताएं मिली हों और उसकी जिन्दगी महान् कार्यों से भरी पूरी रही हो और अगर इसके साथ यह बात भी जोड़ दी जाए कि इन वर्षों में उन्हें हृदय-रोग भी घेर चुका था और उनके पेट की बीमारी भी भयंकर हो चली थी तो उनके जीवन के चार वर्षों की चर्चा कर स्तब्ध रह जाना पड़ता है।”
———-

Leave a Reply