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हीरो की सामाजिक बुद्धि

हीरो की सामाजिक बुद्धि

by दिलीप ठाकुर
in अक्टूबर-२०१४, सामाजिक
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“…जब फिल्मी सितारे किसी सामाजिक समस्या पर अपनी राय व्यक्त करते हैं, किसी के अनशन आदि का समर्थन करते हैं; तब भी उन्हें कोई गंभीरता से नहीं लेता। इन सितारों की चमकती छवि उनके सामाजिक कर्तव्यों के आड़े आ जाती है।

बॉलीवुड स्टार अब आम लोगों के बीच आने लगे हैं। पढ़ कर आश्चर्य हुआ? भौंहें तन गईं? पर अगर आप जय हो, हॉली डे, किक जैसी फिल्में देखेंगे तो आप इस सामाजिक रियल्टी शो के बारे में समझ जाएंगे। इन फिल्मों के सर्वगुणसंपन्न हीरो (सलमान खान, अक्षय कुमार) पटकथा के एक बिंदु पर आम नागरिकों की तरह व्यवहार करते दिखाई देते हैं। अपनी बुद्धि पर जरा जोर डालकर देखिए। क्या आपको ऐसा कुछ याद आया?

अब ‘जय हो’ की हीरोगिरी देखिये। इतना डैशिंग और दमदार हीरो किसी भी आम आदमी की मदद करता है। वह आदमी हीरो को ‘थैंक्स’ कहता है। यह सुनकर आक्रामक हीरो के अंदर का ‘इंसान’ जाग उठता है और कहता है ‘मुझे थैंक्स कहने के बजाय आप तीन लोगों की मदद करें। उन तीनों से कहें कि वे और तीन लोगों की मदद करें। इस तरह तीन के गुणाकार से यह संख्या लाखों तक पहुंच जाएगी। इस तरह समाज अधिक सुखी होगा।’ ‘जय हो’ का हीरो पूरी फिल्म में पांच छह बार मदद करते समय यह बात दोहराता है।

फिल्म का उद्देश्य गलत नहीं है। मनोरंजन के माध्यम से समाज प्रबोधन का प्रयत्न करना ही फिल्म जैसे सशक्त, प्रभावी और दूर तक पहुंचे माध्यम की विशेषता होनी चाहिए। परंतु अपनी ‘लार्जर दैन लाइफ’ या परदे से बड़ी इमेज बनाने वाले हीरो के इस सामाजिक गुण को क्या दर्शक गंभीरता से लेंगे? किक, हॉली डे जैसी फिल्मों में भी सामाजिक पंच दिखाई दिया।

हालांकि यह गलत नहीं है परंतु ये हीरो लोग आम इंसानों जैसा व्यवहार क्यों करने लगे? फिल्मों के माध्यम से हर तरह के मनोरंजन का डोज देने के साथ ही सामाजिक जिम्मेदारी का भी ध्यान रखना चाहिए। यह बात पटकथाकार, निर्देशक और शक्तिशाली हीरो को क्यों लगने लगा? सलमान खान अपनी ‘ह्यूमनबीइंग’ नामक सामाजिक संस्था के माध्यम से अत्यंत गरीब और जरुरतमंद लोगों को मदद करते हैं। शायद अपने पटकथाकार पिता सलीम खान से ही उनमें यह गुण आया होगा। सलीम खान और सलमान खान पिछले दो दशकों से इस तरह लोगों की मदद कर रहे हैं। इस खान परिवार का पनवेल (नवी मुंबई) के पास एक फार्म हाउस है। इस फार्म हाउस के आसपास के आदिवासी इलाकों में धुआंधार बारिश, कड़ाके की ठंड और चिलचिलाती धूप से बचने के लिये यह परिवार स्थानीय लोगों की मदद करता है। सलमान खान को जब भी वक्त मिलता है वे मंदबुद्धि बच्चों से मिलते हैं और उनका मनोरंजन करते हैं। उन्हें भरपूर आनंद देते हैं। शायद इन्हीं अनुभवों और भावनाओं के कारण सलमान में सकारात्मक परिवर्तन हुआ होगा और फिल्मों में भी उन्होंने कुछ सामाजिक होने की बात सोची होगी।

अक्षय कुमार भी कुछ सामाजिक संस्थाओं की मदद करते हैं। परंतु इन सितारों के ग्लैमर, इनसे जुड़ी अफवाहों, गॉसिप, कारोबार के दो सौ करोड़ों के आंकड़ों, उनके अफेयर इत्यादि मसालेदार बातों के कारण इन सितारों को कोई गंभीरता नहीं लेता।

यही नहीं, जब ये सितारे किसी सामाजिक समस्या पर अपनी राय व्यक्त करते हैं, किसी के अनशन का समर्थन करते हैं तब भी उन्हें कोई गंभीरता से नहीं लेता। इन सितारों की चमकती छवि उनके सामाजिक कर्तव्यों के आड़े आ जाती है। आम नागरिकों की यही भावना होती है कि ये लोग सुख और ऐशोआराम की जिंदगी जीते हैं तो उनका सामाजिक कर्तव्यों के प्रति ध्यान कैसे होगा?

इन सितारों का दृष्टिकोण बदलने का एक और कारण हो सकता है। वह यह है कि टीवी चैनलों पर होनेवाले गेम शो, रियलिटी शो के माध्यम से ये सितारे आम नागरिकों से मिलने लगे। बड़े परदे के ये ग्लैमरस चेहरे भी लोगों में घुलने-मिलने लगे।

इस परिवर्तन की शुरूआत लगभग 12 वर्ष पहले अर्थात सन 2000 में हुई। तब अमिताभ बच्चन ‘कौन बनेगा करोड़पति’ के माध्यम से सामान्य लोगों से संवाद साधने लगे। उन्हें समझने की कोशिश करने लगे। धीरे-धीरे शो मेें हर तरह के सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक स्तर के लोगों का आगमन होने लगा। इन अनुभवों से बिग बी को सामान्य नागरिकों के दृष्टिकोण, जीवनशैली और सुख-दुख की पहचान होने लगी।

सलमान खान ने ‘बिग बॉस’ में सेलिब्रिटीज को संभाला तो अक्षय कुमार ने ‘खतरों के खिलाड़ी’ में साहस से मुकाबला किया। सोनाली बेन्द्रे ने ‘इंडियाज बेस्ट ड्रामेबाज’ में देश के विभिन्न भागों से आये सामान्य लोगों के करतब और मेहनत को परखा। इन सब से उनका सामाजिक दृष्टिकोण बदलता गया। हमारे कार्यों के माध्यम से हमें जाने-अनजाने जो शिक्षा मिलती है वह बहुत महत्वपूर्ण होती है। कई बड़े कलाकारों को यह शिक्षा छोटे परदे ने दी है।

प्रसार माध्यमों अर्थात मीडिया को भी इन कलाकारों की चटपटी, मसालेदार, सनसनीखेज खबरें बताने के अलावा उनकी सामाजिक जागरुकता और उनमें होने वाले परिवर्तनों को भी बताना चाहिए। समाज का एक वर्ग ऐसा भी है जो सोचता है कि इसकी कोई ‘मार्केट वैल्यू’ नहीं है। यह मीडिया में नहीं चलता। परंतु यह वर्ग इसी तरह सितारों और उनकी सामाजिक जिम्मेदारियों के एहसास की ओर ध्यान नहीं देता तो उनका बहुत नुकसान होगा। कलाकार केवल सेलिब्रिटिज नहीं होते उनका सामाजिक दृष्टिकोण भी सामने आना ही चाहिए।
अमिताभ बच्चन को अत्यंत नाटकीय ढंग से अपने सामाजिक कर्तव्य का संज्ञान हुआ। क्या आप जानते हैं कैसे?

सन 1984 के लोकसभा चुनावों में यह शहंशाह अपने मित्र और तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी की सक्रिय मदद करने के लिये तथा उनका ‘हाथ’ मजबूत करने के लिये राजनीति में उतरा। तब लोगों पर अमिताभ की फिल्मों का जादू था। एक से लेकर दस तक सभी क्रमांकों पर अमिताभ हैं, ऐसा माना जाता था। अपनी लोकप्रियता के आधार पर अमिताभ बच्चन ने इलाहबाद लोकसभा क्षेत्र से समाजवादी पार्टी के हेमवती नंदन बहुगुणा को भारी वोटों से हराया। परंतु अपने अर्थपूर्ण आवेशपूर्ण संवादों से लोगों पर प्रभाव डालनेवाले अमिताभ सांसद के रूप में असफल रहे। लोकसभा में हमेशा चुप रहने के कारण उन्हे ‘मौनी सांसद’ के रूप में पहचाना गया।

अपनी इस छवि को सुधारने के लिए उन्होंने मीडिया के सामने आना शुरू कर दिया। फिल्म की शूटिंग छोड़ कर साक्षात्कार देने लगे। इसी दौरान फिल्म के माध्यम से सामाजिक कर्तव्य व्यक्त करने के कदम उन्होंने उठाए। टीनू आनंद ने उनकी छवि स्वच्छ बनाने के लिए ‘मैं आजाद हूं’ नामक फिल्म बनाई। इस फिल्म में ‘एंग्री यंग मैन’ काफी शांत दिखा। वह काफी सोशल नजर आया। अब तक अन्याय के विरोध में लड़ने के लिये शस्त्र उठानेवाला और ऐसा करने को प्रेरित करनेवाला अब शांति से आंदोलन करने का संदेश दे रहा था। यह फिल्म आज से पच्चीस साल पुरानी है; परंतु वर्तमान सितारों और हीरो को भी सामाजिक कर्तव्यों का भान होने लगा है यह अच्छी बात है। पहले लोग यह समझते थे कि फिल्म के हीरो-हीरोइन किसी दूसरी दुनिया से आए हैं और उन्हें सामान्यों से कोई लेना-देना नहीं होता। उस समय की परिस्थिति, वातावरण फिल्में सब अलग था। तब से अब तक हमने लंबी यात्रा कर ली है।

क्या यह कहा जा सकता है कि मनोज कुमार की उपकार, पूरब और पश्चिम, रोटी, कपड़ा और मकान इत्यादि में जो डायलॉगबाजी की गई है वह बेकार नहीं गई?

फिल्मों के माध्यम से कुछ भडकाऊ विषय भी सामने आते हैं। शायद उन फिल्मों के लिये भीड़ इकट्ठी करना, प्रमोशन मिलना आदि इसके कारण हो सकते हैं; परंतु कुछ विषय तो ऐसे होते हैं जो जल्दी नजर नहीं आते। अत: उन्हें ढूंढ़ना आवश्यक होता है।
जय हो…!
———–

दिलीप ठाकुर

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