सुबह आंख खुली। मैं बाहर आकर टहलने लगा। थोड़े समय बाद देखा। एक छोटी बालिका पीठ पर टाट का बड़ा-सा बोरा लटकाए धीरे-धीरे चलते हुए प्लास्टिक की थैलियां और कागज उठाकर बोरे में डालते हुए बढ़ रही है। मेरे करीब पहुंचकर उसने कागज उठाए बोरे में डाले। सामने एक ओर प्लास्टिक की बड़ी थैली में कचरा भरा देख वह उस ओर गई। थैली उठाई झटका कर कचरा फेंका। थैली बोरे में भरकर बढ़ने लगी। मैंने आवाज देकर उसे बुलाया। उसके आने पर बोला-देखो! तुमने अपने लालच के लिए कचरा वहीं झटकार दिया। कितना अच्छा होता कि कचरा पेटी में कचरा डाल देती। मेरी बात सुन फीकी-सी हंसी होंठो पर आई और वह बोली-बाबूजी! तुम्हारी बात ठीक है। चलो तुम्हारी बात मान कर कचरा पेटी में कचरा डाल देती। पर क्या होगा….? तुम ही सोचो, तुम और तुम्हारे जैसे समझदार लोगों को भी तो कचरा इस तरह प्लास्टिक में भरकर यहां-तहां नहीं फेंकना चाहिए। हमारा काम तो प्लास्टिक और कागज इकट्ठा करना है। वे चाहें कहीं भी मिले, अगर कचरा पेटी में भी होंगे तो उठाने में कोई शरम नहीं आएगी। उसके द्वारा की जा रही समझदारी की बातें सुन मुझे आश्चर्य हो रहा था। वह आगे बढ़ने लगी। मैं बोला-दिखने में तो तुम छोटी हो पर बातें तो बड़ों जैसी करती हो। यह सब कहां सीखा? वह हंसी और बोली-बाबूजी!
गरीबी और लाचारी इंसान को सब सीखा देती है। अगर तुम मेरी जगह होते तो यही बाते कहते। उसकी इस तरह की बातों और भोलापन मुझे बहुत अच्छा लग रहा था। मैं चाह रहा था कि वह मेरे साथ बैठे और इस तरह की बातें करती रहे। उसे रोकने के हिसाब से मैं बोला-एक दिन में तुम कितना कमा लेती हो? वह बोली बाबूजी! यही कोई पच्चीस-तीस रुपए….! इतनी मेहनत और भागा-दौड़ी करते है तब जाकर मिलते है। दिनभर यहां-वहां जहां-तहां भटककर दो-तीन बोरे प्लास्टिक और कागज इकट्ठा करते हैं। बेचने को ले जाते है उनमें से कितने दुकानदार प्लास्टिक और कागज सड़े-गले समझकर फेंक देते है। सुबह से लेकर शाम तक की दौड़भाग में इतना ही कमा पाते हैं और जो भी रुपये आते है घर के सामान लाने मेें खर्च हो जाते हैं। क्यों घर में तुम्हारे मां-बाप नहीं है? उदास-सी वह बोली- मां-बापू तो है। बापू मजदूरी करता है। मां अक्सर बीमार रहती है। बापू जुआरी और शराबी है जितने भी रुपये कमाता है जुएं और शराब में फूंक देता है। उससे चोरी-छुपे मैं और मेरे भाई-बहन ये काम करते हैं। अगर उसे मालूम हो जाए तो वह हमसे रुपए छीनने लग जाए। मैंने पूछा-तुम इतनी सुबह घर से निकलती हो तुम्हारे बापू को मालूम नहीं पड़ता। वह बोली उसके कोई ठिकाने नहीं रहते। कबी जुएं में हार जाता है और ज्यादा शराब पी लेता है तो कहीं भी पड़ जाता है और होश आने पर घर आता है। जब हममें से कोई न कोई तो उसे मिल ही जाती है। उसके द्वारा पूछे जाने पर मां झूठ बोल देती है। इस तरह चल रहा है। मैं बोले-तुम काम तो कर रही हो पर यह तुम्हारे लायक नहीं है।
अभी तुम्हारे खेलने-खाने और पढ़ने के दिन है। वह फीकी सी हंसी में बोली-बाबूजी! गरीब के लिए खेलना और पढ़ना सपने समान है। उसके लिए काम ही सब कुछ है जिससे पेट तो भर जाता है। मैं बोला-थोड़े दिन में प्लास्टिक और प्लास्टिक के उत्पादनों पर प्रतिबंध लगने वाला है। जब प्लास्टिक बंद हो जाएगा, तुम्हारा धंधा कैसे चलेगा? हंसते हुए वह बोली-बाबूजी! ऊपर वाला एक रास्ता बंद करता है तो दूसरा खोलता है। अगर प्लास्टिक बंद हो जाएगा तो कागज की थैलियां आएगी। अरे मैं तो बातों में भूल ही गई कि आगे भी जाना है। झोला उठाकर वह आगे बढ़ गई। उसे जाते देख मुझे उसके द्वारा कहीं बातें याद करके हंसी आ रही थी कि इतनी छोटी बच्ची में कितनी समझदारी है और दु:ख भी हो रहा था कि हमारे देश में अब भी गरीबी और भूखमरी इस कदर हावी है कि इसके कारण इस बच्ची और इस जैसे ही लाखों बच्चे इस तरह के काम करके अपना पेट पाल रहे हैं। यह सब हमारी कमजोरी है या…..? और पत्नी की आवाज से मेरा ध्यान टूटा। वह मुझे चाय के लिए बुला रही है।